कहने को तो यह बांस-बल्लियों और तंबुओं के सहारे बसाई हुई एक अस्थायी व्यवस्था है फिर भी इसके स्वभाव में एक स्थायीपन महसूस होता है. शायद ऐसा लोक के मानस में धर्म और उसके प्रतीकों की स्थायी जगह के चलते होता हो. कस्बाई संस्कृति और अत्याधुनिक तकनीक के मेल से बनी यह कुंभनगरी है जिसके फैलाव का दायरा कुछेक शहरों से भी बड़ा है. यहां डेढ़ माह के लिए बसने वाले लोगों की आबादी भी किसी शहर से ज्यादा है. इसमें हर दिन पहुंच रहे श्रद्धालुओं के विशाल झुंडों को भी जोड़ दें तो यहां रोज एक लघु भारत आकार लेता है. तमाम दुश्वारियों के बावजूद हर रोज लाखों लोग इलाहाबाद में बसी इस नगरी में पहुंच रहे हैं. ये वे लोग हैं जिन्हें कंपकंपाती ठंड डराती नहीं. पूरी रात बालू पर सोन-जगने से इन्हें परहेज नहीं. इनकी बस एक ही आकांक्षा होती है कि गंगा, यमुना और अदृश्य हो चुकी सरस्वती के संगम में एक डुबकी लगा मोक्ष के अधिकारी बन जाएं. इस तरह देखा जाए तो आस्था की इस नगरी की जान श्रद्धालु ही हैं. वैसे यहां आकर्षण के दूसरे केंद्र भी कम नहीं. कदम कदम पर अजब-गजब नाम और धुन वाले बाबाओं का डेरा है. नंगे बदन पर भभूत लपेटे और धूनी जमाए बैठे नागा साधुओं के शिविरों में हर समय चहल-पहल रहती है. महाकुंभ में आने वाला हर व्यक्ति एक दफा उन्हें जरूर देखना चाहता है. महिला साधुओं के अलग खेमे और मठ ने इस धार्मिक आयोजन में एक नया अध्याय जोड़ा है. तस्वीरें और आलेखः विकास कुमार
रात के समय रोशनी में नहाया कुंभ परिसर
पहली बार नागा साधुओं के अखाड़े में महिलाओं को स्वतंत्र और अलग पहचान मिली है.
शाही स्नान के दिन महिला नागा साधुओं ने पुरूष नागा साधुओं के साथ ही संगम में स्नान किया
कुंभ आयोजन का जिम्मा मुख्य रूप से नागा साधुओं के हाथ में ही रहता है
शाही स्नान के दौरान हर अखाड़े की शोभा यात्रा निकलती है. इसे देखने के लिए श्रद्धालु बड़ी संख्या
में जुटते हैं और घंटों सड़क के दोनों किनारों पर खड़े रहते हैं.
श्रद्धालुओं द्वारा संगम में चढ़ाए गए सिक्कों को निकालने में कुछ लड़के जुटे रहते हैं.
दिन ढ़लने तक इनकी सौ से डेढ़ सौ रुपये की कमाई हो जाती है.
मजबूरी की सवारी ठेलागाड़ी
श्रद्धालु संगम के किनारे केवल महाकुंभ के दौरान जुटते हैं लेकिन ये प्रवासी पक्षी हर साल इस मौसम में यहां भारी संख्या में आते हैं