फील गुड के दौर में गरीबी

अखबारों और चैनलों पर देश में गरीबी घटने और गरीबों की संख्या में कमी आने की खबरें एक बार फिर सुर्खियों में हैं. गरीबी घटने के योजना आयोग के दावे पर न्यूज मीडिया के बड़े हिस्से खासकर गुलाबी अखबारों/चैनलों में स्वाभाविक तौर पर जश्न का माहौल है. नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की भोंपू बन चुकी फील गुड पत्रकारिता के दौर में इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है. आखिर इन आर्थिक नीतियों की सफलता को साबित करने के लिए देश में गरीबी घटने और गरीबों की संख्या में कमी आने से बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है? फील गुड पत्रकारिता को ऐसी खबरों और रिपोर्टों का बेसब्री से इंतजार रहता है. इनसे माहौल खुशनुमा बनता है. खुशनुमा माहौल बनाना अखबारों/चैनलों की मजबूरी है. क्योंकि नई अर्थव्यवस्था की जान अधिक-से-अधिक उपभोग में है. माना जाता है कि उपभोक्ता अपनी जेब से पैसा तभी निकालता है जब उसे माहौल खुशनुमा दिखाई देता है.

जाहिर है कि उपभोग बढ़ने से  कंपनियों का मुनाफा बढ़ता है. कंपनियों का मुनाफा बढ़ता है तो कॉरपोरेट अखबारों/चैनलों को विज्ञापन मिलता है. इससे उनका भी मुनाफा बढ़ता है. इस तरह फील गुड पत्रकारिता में अधिक-से-अधिक निवेश कारपोरेट मीडिया की मजबूरी और जरूरत दोनों है. आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों में देश में फील गुड पत्रकारिता का न सिर्फ तेजी से विस्तार हुआ है बल्कि वह भारतीय पत्रकारिता की मुख्यधारा बन गई है.  अखबारों/चैनलों में क्रिकेट, सिनेमा, फैशन, सेलिब्रिटी से लेकर पांच सितारा खान-पान, घूमना-फिरना, सजना-संवरना, फिटनेस, शॉपिंग और गैजेट को मिलने वाली जगह बढ़ती जा रही है. अखबारों/चैनलों में इन्हें कवर करने वाले रिपोर्टरों की मांग खासी बढ़ गई है. वहीं कृषि, श्रम, गरीबी-भूख, कुपोषण, माइग्रेशन जैसी बीट या तो खत्म कर दी गई हैं या उन्हें इकट्ठा करके आर्थिक बीट देखने वाले रिपोर्टर को ‘इन्हें भी देख लेना’ के चलताऊ निर्देश के साथ थमा दिया गया है. ऐसे में, हैरानी की बात नहीं कि अखबारों, पत्रिकाओं और चैनलों की सेक्स, फैशन, ट्रैवल, शॉपिंग, प्रॉपर्टी आदि पर सर्वे रिपोर्ट छापने में जितनी दिलचस्पी होती है, उसकी पांच फीसदी भी कृषि, श्रम, गरीबी-भूख पर छापने में नहीं होती है. क्या आपने किसी अखबार, चैनल, पत्रिका में कृषि, गरीबी, भूख, श्रम या माइग्रेशन पर कोई सर्वे या सप्लीमेंट या कवर स्टोरी देखी है? सीएसडीएस के एक सर्वे में यह पाया गया कि अंग्रेजी और हिंदी के छह बड़े अखबारों में ग्रामीण क्षेत्र से जुड़ी खबरों को दो से तीन फीसदी जगह मिलती है. चैनलों का हाल और बुरा है.

एक सर्वे बताता है कि अंग्रेजी और हिंदी के छह बड़े अखबारों में ग्रामीण क्षेत्र की खबरों को दो तीन फीसदी जगह मिलती है. चैनलों का हाल और बुरा है

फील गुड पत्रकारिता के दौर में गरीबी कोई खबर नहीं है. गरीबों और उनके मुद्दों को मीडिया के हाशिये पर भी जगह नहीं मिलती क्योंकि माना जाता है कि उनका जिक्र भी उनके पाठकों या श्रोताओं यानी उपभोक्ताओं के ‘बाईंग मूड’ को डिस्टर्ब या डिप्रेस कर सकता है. विज्ञापनदाता इसे पसंद नहीं करते. कहा जाता है कि गरीबी-भूख, कुपोषण जैसे मुद्दे अप-मार्केट नहीं हैं या वे उनके टीजी (टारगेट ग्रुप) को लक्षित नहीं हैं. लेकिन यह फैसला संपादक नहीं विज्ञापनदाता करते हैं. यही वजह है कि कॉरपोरेट मीडिया में जिस खबर/फीचर/रिपोर्ट का कोई प्रायोजक नहीं है, वह कॉरपोरेट मीडिया के लिए खबर नहीं है.

लेकिन गरीबी और गरीबों के नाम से दूर भागने वाला न्यूज मीडिया गरीबी में कमी की खबर को लेकर बावला हुआ जा रहा है. हालांकि इस विवादास्पद रिपोर्ट पर न्यूज मीडिया में जश्न के बीच कुछ सवाल भी उठे लेकिन उन सवालों को जिस तरह से उठाया गया है उसमें सनसनी ज्यादा है और गंभीरता कम. सनसनी हमेशा बड़े और गंभीर सवालों और मुद्दों को पीछे ढकेल देती है. आश्चर्य नहीं कि गरीबी के आकलन और उससे जुड़े व्यापक मुद्दों को न्यूज मीडिया में 22 और 28 रुपये प्रतिदिन की ग्रामीण और शहरी गरीबी रेखा तक सीमित कर दिया गया है. इससे सारा हंगामा गरीबों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति और उनकी वास्तविक समस्याओं की बजाय गरीबी रेखा पर केंद्रित हो गया है. गरीबी के बारे में योजना आयोग की ताजा रिपोर्ट से पहले पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में उसके हलफनामे पर ऐसी ही सनसनी मची थी. लेकिन वास्तविक मुद्दे और सवाल ज्यों के त्यों बने रहे. अब एक बार फिर गरीबी में कमी की घोषणा को लेकर न्यूज मीडिया में एक ओर जश्न और दूसरी ओर हंगामा मचा हुआ है. उसके शोर के बीच इस मुद्दे पर स्पष्टता कम और भ्रम ज्यादा बढ़ा है.

सच पूछिए तो देश में गरीबी के आकलन के मुद्दे पर न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग की गरीबी साफ़ दिख रही है. अधिकांश अखबारों और चैनलों में ऐसे रिपोर्टर या विश्लेषक नहीं हैं जो गरीबी के मुद्दे को राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संदर्भों में स्पष्ट कर सकें. यह दरिद्रता उनकी रिपोर्टिंग और उनके विश्लेषणों में भी झलकती है. हालांकि इक्का-दुक्का अखबारों या पत्रिकाओं में योजना आयोग के इन दावों पर गंभीर सवाल भी उठे और गरीबी रेखा की राजनीति को बेपर्दा करने की कोशिश हुई. लेकिन मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में फील गुड पत्रकारिता के दबदबे के आगे यह कोशिश नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई है.