चार सितंबर. इतवार की सुबह थी. मेरे लिए अपना उपन्यास लिखने का दिन. तभी बंबई से रवि रावत का फोन आया. ‘ज्ञान जी, बुरी खबर है.’ रवि को मैंने चार दिन पहले ही भिजवाकर मूंदड़ा जी से मिलवाया था. ‘किस्सा कुत्ते का’ फिल्म लिखी है मैंने, मूंदड़ा जी के लिए. रवि को इस फिल्म के कलाकारों को ‘बुंदेलखंडी एसेंट’ (लहजा) में संवाद बोलने की रिहर्सल करानी थी. वह तो बस एक बार ही मिला उनसे. चार दिन की मुलाकात कह लें. पर ऐसा अभिभूत-सा था कि उनके बारे में लंबी बातें करता रहा था मुझसे. और उनकी मौत से उसी तरह स्तब्ध था जैसे उनके सगे-संगी-साथी. तो जब रवि ने कहा कि बुरी खबर है, तो मेरे अवचेतन मन ने मुझे मानो झकझोर कर चेताया कि वह अवश्य जगमोहन मूंदड़ा के बारे में ही कोई खबर दे रहा है. वही निकली भी. अभी मूंदड़ा जी नहीं रहे. दो दिन से आईसीयू में थे. बताया. पर तीन दिन पहले ही तो मेरी उनसे फोन पर देर रात लंबी बात हुई थी. एकदम बढ़िया थे. मैंने स्क्रिप्ट के चार अतिरिक्त दृश्य और लिख कर उनको ई-मेल किए थे. किए तो सात थे. चार रखे थे उन्होंने. बेहद उत्साहित होकर उन दृश्यों की तारीफ करते रहे थे कि अब अपनी स्क्रिप्ट एकदम मुकम्मल हो गई ज्ञान जी.
हॉलीवुड के बड़े-बड़े निर्देशक भी बेहद पढ़े-लिखे जगमोहन मूंदड़ा के कार्ड पर एमबीए पीएचडी देखकर कन्नी काट जाते थे
वे मुझे ज्ञान जी ही कहते और स्वयं फिल्म जगत में ‘भाई साहब’ नाम से संबोधित होते थे. यह नाम उन्हें राजेश राही ने दिया था जो पिछले 15 साल से विभिन्न प्रोजेक्टों में उनके चीफ असिस्टेंट डायरेक्टर रहे हैं. मैं फोन करता और उनके ज्ञान जी कहने की प्रतीक्षा करता. उनके ज्ञान जी कहने में कुछ अलग ही बात थी. वे एक मधुर-सा आलाप लेकर ज्ञान जी कहते. उस तीन अक्षरों की ध्वनि में इतना प्यार, आदर और आत्मीयता होती कि हर बार मेरा दिल भर आता. उनकी कॉलर ट्यून सुनने के लिए भी फोन किया जा सकता था. फोन करो तो वह गाना बज उठता जो कदाचित जगमोहन मूंदड़ा के जीवन दर्शन को भी बयान करता था. ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.’ यही तो थी उनकी जिंदगी भी. ‘ज्ञान जी, यह टांग कटने वाली ही थी. बंबई में डॉक्टर यही कह रहे थे. मैंने भी कहा कि चलो यही सही. काटो. फिर वाइफ ने कहा तो अमेरिका चले गए. लंबे इलाज के बाद टांग तो बच गई. पर टांग पर यह सूजन तभी से बनी रहती है. बनी रहे. क्यों ज्ञान जी…’ वे अपनी कटते-कटते बची चोटिल टांग, अपने दिल, अपनी एंजियोप्लास्टी, कमला फिल्म के जमाने में उन पर चलाए गए मुकदमों, करियर के शुरुआती दौर में हॉलीवुड में किसी भी प्रोड्यूसर द्वारा घास न डालने के असफल दिनों से लगाकर नॉटी एट फार्टी वाली हाल की गोविंदा अभिनीत फिल्म के डेट्स से लेकर रिलीज तक की अनगिन फिक्रों की बातें कुछ इसी तरह बेपरवाह होकर करते थे. कद छह फुट से कुछ इंच ऊपर ही. वजन भी खासा. होंगे 120 किलो के. खिले लहीम सहीम बदन वाला कहते हैं न, वैसा. पर कितनी ऊर्जा. कितना जीवट. बड़े से पेट पर लैपटॉप रखकर मेरे साथ दस घंटे की लंबी सिटिंग लगातार दो दिन तक की. इसी जुलाई माह में. भोपाल में. वही, मैं, सर (मैं उन्हें मूंदड़ा सर ही कहता था) और उनके अनन्य मित्र दीपक पुरोहित जी. हम हर सीन पढ़ते. मैं हर सीन के संवाद फायनल करता जा रहा था. सीन दुरुस्त किए जा रहे थे. मूंदड़ा जी स्वयं लैपटॉप पर यह सब टाइप करते चले जा रहे थे. लगातार दस घंटों तक. ‘आपके जाने के बाद रात दो बजे तक सारा मैटर दोबारा लैपटॉप पर दुरुस्त करता रहा, ज्ञान जी…’ वे अगली दोपहर बड़े उत्साह से बता रहे हैं. बेहद मेहनती. फिल्म को लेकर हरदम एक जुनून में गिरफ्तार. ‘हैदराबाद की फिल्मसिटी में स्टूडियो बुक कर रहा हूं. करा लूं? आप फलानी तारीख तक सीन भेज सकेंगे? ज्ञान जी, ज्ञान जी, बहुत बढ़िया सीन लिखा है. इंडस्ट्री में खबर चल गई है कि मूंदड़ा जी के पास बहुत बढ़िया स्क्रिप्ट है. ज्ञान जी, रघुवीर यादव के साथ आज सिटिंग है, शर्मिष्ठा चटर्जी बेहद एक्साइटेड है…’ चाहे जब फोन पर बताते कि काम कैसा चल रहा है. वे इतवार दिनांक चार सितंबर की सुबह अचानक यूं चले गए वरना इसी दस सितंबर से तो उन्हें ‘किस्सा कुत्ते का’ की शूटिंग शुरू करनी थी. उस बाकायदा रजिस्टर्ड, छपी, करीने से बाइंड की गई स्क्रिप्ट की जो कॉपी मूंदड़ा जी ने मुझे बंबई से भेजी थी, मेरी टेबल पर उदास-सी पड़ी है. कई बार किताबें भी अनाथ हो जाती हैं क्या? शायद हां. क्योंकि अब यदि कोई इसे बनाएगा भी तो क्या वह बात आएगी? शायद राजेश राही बना सकें क्योंकि वे इस
फिल्म के कागजी दिनों में लगातार साथ थे. उनके विजन के साक्षी.
मैं स्क्रिप्ट पूरा होने तक मूंदड़ा को एक आम फिल्मी हस्ती ही मानता रहा जो एक बेहतर इंसान भी है. बस. यदि हम स्क्रिप्ट पूरा होने की खुशी में दिए गए डिनर मंे शामिल न होते तो मैं मूंदड़ा की वह कहानी आपको न बता पाता जो आगे बताने जा रहा हूं. डिनर था, छोटा-सा. मैं, मेरी पत्नी डॉ शशि, दीपक पुरोहित और मूंदड़ा जी. बस. होटल जहनुमां में अभी कोई टेबल खाली नहीं था. हम लाउंज में जाकर बैठ गए. मैंने यूं ही पूछ लिया और मेरी बात के जवाब में मूंदड़ा जी ने अपनी जो जीवन गाथा के पन्ने हमें उस दिन पढ़वाए, वे स्वयं एक अद्भुत कहानी का हिस्सा थे. डेढ़ घंटे तक वे अपनी, फिल्मों से भी ज्यादा दिलचस्प जीवन कथा सुनाते रहे. खाना-वाना तो फिर उसके बाद ही हुआ. शायद नया दौर थी, या मुगले आजम जिसे स्कूली छात्र जगमोहन ने देखा और ऐसा अभिभूत हुआ कि उसने तभी यह तय कर लिया कि बड़ा होकर फिल्मकार बनेगा. पढ़ने में बहुत होशियार. आईआईटी बंबई में चुन लिए गए. इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर बन गए. पर मन में यह बात कहीं गहरे गड़ी थी कि जीवन में अंततः फिल्में ही बनानी हैं. कैसे बनाएंगे? कौन बनवाएगा? यह पता नहीं. पर बनाऊंगा यह पक्का था. अमेरिका में वजीफे के साथ एमबीए करने का अवसर मिल गया. दिन में एमबीए, रात में फिल्म मेकिंग के कोर्स. दोनों में डिग्री भी मिल गई. वजीफे के साथ पीएचडी का मौका मिला. मार्केटिंग में. डरते-डराते पूछा कि क्या मैं अंग्रेजी फिल्मों की मार्केटिंग और हिंदी फिल्मों की मार्केटिंग के तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी कर सकता हूं. क्यों नहीं. जरूर. करो.
इसी विषय पर पीएचडी की भी. इसी बहाने बंबई में फिल्मी सीन को समझा. फिर वर्ल्ड बैंक में बड़ी कमाई वाली नौकरी के ऑफर को ठुकराकर लॉस एंजिलिस में मार्केटिंग के प्रोफेसर हो गए. लॉस एंजिलिस में ही क्यों? क्योंकि हॉलीवुड पास है. दिन में प्रोफेसरी, रात में फिल्म मेकिंग के कोर्स. पांच साल तक यह किया. फिर एक दिन तय किया कि प्रोफेसरी आदि सब छोड़कर ही फिल्में ही बनानी हैं. छोड़ दी प्रोफेसरी. विजिटिंग कार्ड पर जेग मूंदड़ा छपवाया क्योंकि हॉलीवुड के प्रोड्यूसर भी विद्वान, बहुत पढ़े-लिखे उस जगमोहन मूंदड़ा, एमबीए, पीएचडी का कार्ड देखकर कन्नी काट जाते थे. फिर स्टूडियो के चक्कर. हर जगह असफलताएं. फिर होम वीडियो सर्किट के दौर में ब्रेक मिला तो बीस अंग्रेजी फिल्में बना डालीं. लिखना, डायरेक्ट करना, सब. पैसे भी खूब आ गए. जीवन ठीक चल पड़ा. फिर विजय अमृतराज की वह फिल्म मिली जो चार मिलियन डॉलर में बनी पर अपने निर्माता को चार सौ मिलियन डॉलर कमा कर दे गई. जग मूंदड़ा रातोंरात बड़े डायरेक्टर बन गया. फिल्में मिलीं. पैसा मिला. नाम हुआ. पर कभी बंबई आते तो पाते कि यहां का मीडिया और फिल्मवाले उन्हें ‘सेमी पोर्नो’ बनाने वाला मानते हैं. क्या करें? तब उन्होंने यहां बंबई आकर विजय तेंदुलकर के नाटक (और सच्ची घटना) पर ‘कमला’ बनाई. दीप्ति नवल को लेकर. फिर ऐश्वर्या राय की ‘प्रोवोक्ड’. नंदिता दास की ‘बवंडर’. और इस तरह वे सच्ची घटनाओं पर सामाजिक पड़ताल करने वाली फिल्में बनाने वाले कहलाने लगे.
तो स्क्रिप्ट का काम, तीन माह का समय, फोन कॉल, ई-मेल, बैठकों के इतने दौरों के बाद भी मुझे उनके बारे में यह सब न पता चलता यदि वह जहनुमां वाला डिनर साथ न लेते. उस दिन मैंने जाना कि मूंदड़ा क्यों मुझे आम फिल्मकार से इतने अलग-से लगते थे. वे अलग ही थे. बेहद व्यवस्थित, ईमानदार, जीवन को समझने वाले और भारत के गांवों को जानने की तड़प वाला व्यक्ति. ‘किस्सा कुत्ते का’ की एक लाइन की सच्ची घटना वाली एक कहानी लेकर वे मुझसे मिले थे. साफ कहा कि मैंने आपको कभी नहीं पढ़ा है परंतु दीपक पुरोहित कहता है कि इस विषय को केवल ज्ञान जी लिख सकते हैं. ठाकुर (जमींदार) के कुत्ते को दलित महिला द्वारा रोटी डालना. कुत्ते द्वारा रोटी खाने के बाद ठाकुर द्वारा पंचायत बिठाना. कुत्ते का जाति परिवर्तन करके उसे पंचायत द्वारा दलित घोषित करना. दलित महिला पर पंचायत द्वारा जुर्माना भी. इस सेंट्रल थीम पर हमने मिलकर एक शानदार रोचक व्यंग्य फिल्म की स्क्रिप्ट पूरी की थी. मूंदड़ा जी अक्टूबर तक इसे शूट करके जनवरी में किसी फिल्म फेस्टिवल में ले जाने वाले थे. सब धरा रह गया. ऊपर वाले की स्क्रिप्ट में तो ‘दी एंड’ कभी भी आ जाता है. जब सबको लग रहा था कि अभी तो कितनी कहानी बाकी है, तभी जगमोहन मूंदड़ा की फिल्म खत्म हो गई. और हम प्रेक्षागृह में भौंचक बैठे हैं. अवाक.