बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ) जितना भारत में सक्रिय रहता है, उतनी ही उसकी सक्रियता नेपाल में भी है। और भी दिलचस्प सच्चाई यह है कि संघ नेपाल के राजनीतिक नेतृत्व के मुक़ाबले वहाँ की राजशाही के ज़्यादा निकट है। नेपाल में चूँकि राजशाही की सक्रियता अचानक बढ़ गयी है और राजनीतिक नेतृत्व से उसकी टकराव जैसी स्थिति बन रही है, ऐसे में भारत की भी गहरी नज़र वहाँ के घटनाक्रम पर है। आईने में दो सवाल हैं। पहला यह कि क्या नेपाल की जनता लोकशाही से विमुख हो रही है और दोबारा उसकी नज़र राजशाही पर है? जो नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र बनाने की माँग कर रही है। दूसरा सवाल यह है कि यदि नेपाल में स्थिति बदलती है, तो क्या भारत किसी भूमिका में रहेगा? साल 2008 में नेपाल में राजशाही के अंत के बाद यह पहली बार है कि वहाँ के पूर्व राजा ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह जब 09 मार्च को पोखरा से काठमांडू पहुँचे, तो उनके स्वागत के लिए हज़ारों की भीड़ जमा हो गयी। यह आश्चर्यजनक था; क्योंकि राजा हाल के वर्षों में बहुत कम ही सार्वजनिक रूप से दिखते रहे हैं।
पिछले एक महीने में राजा ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह एक से ज़्यादा बार जनता के बीच पहुँचे हैं, जो उनकी सक्रियता को ज़ाहिर करता है। और भी दिलचस्प यह है कि यह सक्रियता राजनीतिक सक्रियता दिख रही है। उन्होंने इस दौरान नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की माँग की है। नेपाल राजशाही के समय तक घोषित हिन्दू राष्ट्र था। निश्चित ही नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था राजा की सक्रियता से परेशान होगी। नेपाल में राजा के सक्रिय होने और उनके दोबारा नेपाल में राजतंत्र को जीवित करने की मंशा को इसलिए भी बल मिल रहा है; क्योंकि नेपाल की स्थिति हाल के वर्षों में ख़राब हुई है। वहाँ की अर्थव्यवस्था बदहाल हुई है।

नेपाल की जनता राजनीतिक सत्ता से अप्रसन्न है। एक तो नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता बहुत ज़्यादा है, दूसरे बेरोज़गारी और महँगाई जैसे मुद्दे जनता को बेचैन कर रहे हैं। नेपाल की स्थिति देखने से लगता है कि जनता का राजनीतिक सत्ता (लोकशाही) से मोह भंग हो रहा है। वे परिवर्तन चाहते हैं और राजशाही को इसमें अपनी वापसी का रास्ता दिख रहा है। राजा ज्ञानेंद्र जनता की इस नब्ज़ को पकड़ रहे हैं और उन्होंने अपने सक्रियता बढ़ा दी है। राजा ज्ञानेंद्र अलवत्ता हाल के वर्षों में सक्रिय नहीं रहे थे। साल 2008 के बाद वे सार्वजानिक रूप से बहुत ही कम दिखे थे। अब उनके जाने के स्थानों पर जिस तरह भीड़ उमड़ रही है उससे संकेत मिलता है कि जनता उनसे कुछ उम्मीद कर रही है।
नेपाल में बदलते घटनाक्रम पर भारत की ही नहीं, चीन की भी नज़र है। यह माना जाता है कि हाल के वर्षों में चीन ने नेपाल में अपनी भूमिका को काफ़ी बढ़ाया है और राजनीतिक नेतृत्व के बीच उसकी सक्रियता और प्रभाव साफ़ तौर पर दिखे हैं। चीन ने नेपाल की परियोजनाओं में हिस्सेदारी बढ़ायी है और आर्थिक मदद के ज़रिये नेपाल को अपने साथ खड़ा करने की रणनीति अपनायी है। चीन ने यही रणनीति श्रीलंका, मालदीव और भूटान के लिए भी रखी है जिसके पीछे उसकी मंशा इन देशों को भारत से दूर ले जाने की रही है। श्रीलंका और मालदीव भारत से समुद्री सीमा साझा करते हैं, जबकि अन्य भूमि सीमा के रूप में। बहुत-से विशेषज्ञ मानते हैं कि आर्थिक मदद से इन देशों को क़ज़र्दार बनाकर चीन ने उन पर अपनी पकड़ क़ायम कर ली है। पाकिस्तान पहले से ही चीन का रणनीतिक साझेदार रहा है।
नेपाल आर्थिक रूप से कमज़ोर ट्रैक पर चलता रहा है। यही कारण है कि देश की जनता में असंतोष पनप रहा है। वहाँ बेरोज़गारों की क़तार लम्बी हुई है और आर्थिक विकास पर भी ब्रेक लगा है। हाल के वर्षों में नेपाल-भारत सीमा पर तनाव भी देखने को मिला है और जानकार इसके पीछे चीन को मानते हैं। यह भी सामने आया है कि भारत से लगती सीमा पर नेपाल के हिस्से में चीन ने कुछ निर्माण किये हैं। नेपाल इससे मन करता रहा है; लेकिन हाल के महीनों में ऐसे दस्तावेज़ और प्रमाण सामने आये हैं, जिनसे पता चलता है कि चीन ने नेपाल में निर्माण किये हैं और इनका मक़सद भारत पर नज़र रखना है।
बेशक नेपाल में आज से 17 साल पहले 2008 में लोकतंत्र ने दस्तक दे दे थी; लेकिन यह अभी भी वहाँ शैशवकाल में दिखता है। हाल के वर्षों में वहाँ लगातार राजनीतिक अस्थिरता रही है और बार-बार नेतृत्व परिवर्तन हुआ है। इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। नेपाल की अर्थव्यवस्था (जीडीपी) को लेकर वैसे तो विश्व बैंक के अनुमान बहुत चिन्ता जगाने वाले नहीं हैं; लेकिन हालात बहुत अच्छे भी नहीं हैं। विश्व बैंक के मुताबिक, नेपाल की अर्थव्यवस्था 2025 में 4.5 फ़ीसदी बढ़ने की संभावना है, जो पिछले माली साल में 3.9 फ़ीसदी थी। हालाँकि इसे व्यापक मामले में बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता है। यदि विश्व बैंक के अनुमान सही साबित होते हैं, तो 2025 के आख़िर तक नेपाल की जीडीपी 42.96 बिलियन यूएस डॉलर होने की उम्मीद है। नेपाल का विदेशी क़र्ज़ 2024 के आख़िर तक 10.5 अरब डॉलर था।
अब धीरे-धीरे नेपाल में राजशाही और लोकशाही के बीच तनाव बढ़ रहा है। हाल में तो वहाँ दोनों के समर्थकों के बीच हिंसक झड़पें भी देखने को मिली हैं। काठमांडू में इन झड़पों में दो लोगों की जान जाने से साफ़ संकेत मिलते हैं कि नेपाल में आने वाले समय में राजनीतिक तनाव और बढ़ेगा। हाल के समय में नेपाल के कुछ इलाक़ों, ख़ासकर मैदानी और मधेस के इलाक़ों में हिन्दू-मुस्लिम विवाद भी बढ़े हैं और दोनों समुदायों में हिंसा जैसी स्थिति भी बनी है। बहुत-से लोग नेपाल में इसके पीछे संघ की सक्रियता को देखते हैं। मधेश जैसे क्षेत्र में संघ ने अपना आधार मज़बूत किया है। बहुत दिलचस्प बात है कि संघ के राजाओं को विश्व हिन्दू सम्राट की उपाधि से सम्मानित करता रहा है। संघ नेपाल के राजा के हिन्दू होने के कारण वहाँ के राज-व्यवस्था को हिंदू राष्ट्र के रूप में व्याख्यायित करता रहा है। भारत के हिन्दू राष्ट्र होने की संघ की परिकल्पना किसी से छिपी नहीं है।
नेपाल का इतिहास काफ़ी पुराना है। वहाँ 1768 से राजतंत्र था; लेकिन 2008 में देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई और संसदीय प्रणाली के लागू होने के बाद देश के हिन्दू राष्ट्र के रूप में होने की पहचान ख़त्म हो गयी। राजा बीरेंद्र बीर विक्रम शाह की राजशाही जब थी, तब वह भारत और चीन के बीच संतुलन की नीति पर चलते थे। नेपाल में अस्सी के दशक में लोकतंत्र के आन्दोलन की आहूति पड़ी। वहाँ काम कर रहे राजनीतिक दलों ने देश में लोकशाही स्थापित करने और संविधान में सुधार का आन्दोलन शुरू किया। हालाँकि नेपाल में जब 1980 में एक जनमत संग्रह हुआ तो 45 फ़ीसदी लोगों ने राजतंत्र की जगह लोकतंत्र के हक़ में मत दिया। जनमत संग्रह के इस नतीजे ने राजशाही के भीतर हलचल पैदा कर दी और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी का सिलसिला शुरू हो गया।
जनता के बीच इसका अच्छा संकेत नहीं गया। राजशाही पर दबाव बनने लगा और आख़िर नब्बे के दशक का आगाज़ राजनीतिक दलों को छूट मिलने से हुआ। राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह ने संसदीय राजशाही घोषित करके जनप्रतिनिधियों की सरकार गठित करने की राह हमवार कर दी। लेकिन नेपाल में इसके बाद अस्थिरता और हिंसा का दौर शुरू हो गया। के.पी. भट्टराई सरकार स्थितियों को सँभालने में अक्षम साबित हुई और नेपाल गृहयुद्ध की दलदल में धँस गया। यही समय था, जब माओवादी काफ़ी ताक़तवर हो गये थे और 2006 तक क़रीब 10 साल देश के राजनीतिक दलों और माओवादियों के बीच हिंसा का दौर चला। एक अनुमान के मुताबिक, इस हिंसा में क़रीब 17 से 18 हज़ार लोगों की जान चली गयी। इस हिंसा के दौर में ही राजशाही में भी हिंसा की बड़ी घटना हुई साल 2001 में, जिसमें राजमहल के भीतर राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह के पूरे परिवार की हत्या कर दी गयी। नेपाल की जनता ने राजा बीरेंद्र के भाई ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह को इस क़त्ल-ओ-ग़ारत का ज़िम्मेदार माना, जो अब नये राजा बन चुके थे। लेकिन ज्ञानेंद्र कमज़ोर शासक साबित हुए और उन्होंने जल्दी ही घुटने टेकते हुए राजनीतिक आन्दोलन का सामना न करते हुए 2008 में इस्तीफ़ा दे दिया और नेपाल हिन्दू राष्ट्र से धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बन गया और पाँच साल के बाद देश का नया संविधान बन गया। अब यही राजा ज्ञानेंद्र नेपाल में राजशाही को बहाल करने के आन्दोलन के अगुआ बनने की कोशिश में हैं। देश में हिंसा का नया दौर शुरू होने के संकेत मिल रहे हैं। राजनीति और राजशाही के बीच टकराव का यह दौर क्या गुल खिलाएगा, अभी कहा नहीं जा सकता। लेकिन जनता भी बँट गयी है। एक धड़े में बड़ी संख्या में वे लोग हैं, जो राजशाही वापस लाने और नेपाल को फिर हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की राजा ज्ञानेंद्र की माँग के साथ खड़े दिखते हैं।