सोशल मीडिया की बहुत-सी साइट्स पर आजकल फर्ज़ी खबरों की भरमार देखी जा सकती है। ऐसी खबरों पर लगाम इसलिए भी नहीं लग पा रही है, क्योंकि इन्हें लोग व्यक्तिगत रूप से जारी करते हैं या फिर बिना सोचे-समझे इन्हें दूसरों को फॉरवर्ड कर देते हैं। लेकिन अगर सरकार चाहे, तो देश में ऐसी सोशल साइट्स पर लगाम लगा सकती है, जो लोगों के बीच माहौल बिगाडऩे का काम कर रही हैं या माहौल बिगाडऩे के लिए इस्तेमाल की जा रही हैं। अप्रैल 2020 की एक सर्वे रिपोर्ट में कहा गया था कि सोशल मीडिया पर 50 से 80 फीसदी जानकारी झूठी होती है। हालाँकि यह सर्वे फर्ज़ी खबरों के सवाल पर उत्तर आने के आधार पर किया गया था, लेकिन इसमें कोई दो-राय भी नहीं कि सोशल मीडिया पर झूठी खबरों की भरमार काफी है। इस बारे में भारत सरकार की ओर से सोशल साइट्स को पहले भी दिशा-निर्देश दिये जा चुके हैं कि वे अपने प्लेटफार्म पर फर्ज़ी और भड़काऊ खबरों पर रोक लगाएँ।
जानकारों की मानें तो सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों की संख्या बहुत है, जो असली खबरों से काफी दूर होते हैं और व्हाट्स ऐप व फेसबुक की खबरों के आधार पर एक-दूसरे को सूचना देते हैं, ज्ञान देते हैं और भड़काऊ भाषा का इस्तेमाल करते हैं। लॉकडाउन के दौरान सोशल मीडिया के बढ़े उपयोग ने इसमें और भी इज़ाफा किया था। हैरत की बात है कि सोशल साइट्स की कमायी की होड़, सरकारों की अनदेखी और सोशल साइट्स में युवाओं तथा बच्चों की बढ़ती दिलचस्पी आज की पीढ़ी को बर्बादी की ओर ले जाने का भी काम कर रही है। एक अनुमान के मुताबिक, सोशल मीडिया पर मौज़ूद 80 फीसदी लोग अपने समय का काफी हद तक दुरुपयोग करते हैं। कुछ जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि तकरीबन 30 फीसदी लोग आजकल सोशल मीडिया पर अपना कीमती समय बर्बाद करते हैं। इनमें अधिकतर लोग ऐसे हैं, जो रात को देर तक जागते हैं और बीमारियों को दावत दे रहे हैं। वहीं कुछ जानकार कहते हैं कि सोशल मीडिया लोगों की मौत का कारण भी बन रहा है। इसके कई उदाहरण भी वह गिनाते हैं। कई बार समाचारों में इस तरह की खबरें आती भी रहती हैं, भले ही मौत की वजहें अलग-अलग हों।
सन् 2017 में यूनेस्को द्वारा 2012 से 2016 के बीच पूरी दुनिया में सोशल मीडिया और इंटरनेट के इस्तेमाल से युवाओं में फैलते हिंसात्मक विचारों और अतिवादिता को लेकर एक अध्ययन किया गया था। इस अध्ययन में कहा गया था कि सोशल मीडिया और इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल ने सामाजिक हिंसा को तेज़ी से बढ़ावा दिया है। साथ ही अध्ययन में यह भी सलाह दी गयी थी कि सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स और इंटरनेट पर फैली जानकारियों का तेज़ी से फिल्टर करना जरूरी है, क्योंकि सोशल साइट्स पर धार्मिक और सामाजिक विभाजनकारी सामग्री लिखी जा रही है, जिसका असर बहुत तेज़ होता है। इस रिपोर्ट के अध्ययनकर्ताओं ने समाज में सोशल मीडिया और वेबसाइट्स से फैलने वाली बुराइयों को रोकने के लिए 16 सुझाव दिये थे।
माइक्रोसॉफ्ट की 22 देशों में किये गये एक सर्वे की रिपोर्ट में कहा गया है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट उपभोक्ताओं को फर्ज़ी खबरों का सबसे अधिक सामना भारतीयों को करना पड़ता है, जिनकी संख्या तकरीबन 64 फीसदी है। रिपोर्ट बताती है कि इन फर्ज़ी खबरों का प्रसार वैश्विक औसत से कहीं ज़्यादा भारत में होता है।
क्यों नहीं लग पा रही रोक
सवाल यह है कि सोशल साइट्स पर रोक लगे या फर्ज़ी खबरों पर? इस सवाल के जवाब में भी लोग दो मत ही मिलते हैं। कोई कहता है कि समस्या को जड़ से खत्म किया जाना चाहिए अर्थात् सोशल साइट्स पर ही रोक लगनी चाहिए, तो कोई कहता है कि फर्ज़ी खबरों पर ही रोक लगनी चाहिए। कुल मिलाकर समस्या तो फर्ज़ी खबरों की है, भले ही उसकी जड़ सोशल मीडिया है। ऐसे में कम से कम फर्ज़ी खबरों पर रोक लगनी ही चाहिए, अन्यथा इससे समाज में बिगाड़ ही पैदा होता जाएगा। वैसे अगर सोशस साइट्स चाहें, तो वे अपने प्लेटफार्म पर ऐसी खबरों के प्रसार को रोक सकती हैं। लेकिन वे ऐसा क्यों नहीं करतीं? इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। कुछ समाज सुधारकों की मानें तो सोशल मीडिया का दुरुपयोग अब सरकारों द्वारा भी किया जाता है, यही वजह है कि सरकारें इन सोशल साइट्स को बन्द करने के लिए पहल नहीं करतीं। हालाँकि यह एक तरह का तथाकथित आरोप है, जिसकी पुष्टि कोई व्यक्ति निजी तौर पर नहीं करेगा। लेकिन यह बात सही है कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग कई ऐसे कामों के लिए किया जाता है, जिनके चलते समाज में तनाव, बिखराव और अलगाव की स्थिति बनती है।
फर्ज़ी अकाउंट सबसे बड़ी सिरदर्दी
सोशल मीडिया के प्लेटफॉम्र्स पर सबसे बड़ी सिरदर्दी फर्ज़ी अकाउंट्स (जाली खातों) की है। इस बारे में किसी प्रकार के ठोस आँकड़ें तो उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन कई बार फर्ज़ी अकाउंट के खुलासे हो चुके हैं। सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉम्र्स पर फर्ज़ी अकाउंट के ज़रिये साइबर क्रिमिनल लोगों को तरह-तरह के जाल में फंसाने का काम करते हैं। फेसबुक पर अक्सर कई ऐसी शिकायतें देखने को मिलती हैं, जिनमें किसी फर्ज़ी अकाउंट बनाकर असली अकाउंट होल्डर के जानकारों से पैसा मांगने की बात सामने आई है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया पर फर्ज़ी अकाउंट के ज़रिये महिलाओं को फँसाने की कोशिशों और अपराध की खबरें तक सामने आ चुकी हैं।
हालाँकि साइबर क्राइम (अपराध) से निपटने के लिए कानून भी बन चुका है, लेकिन यह रुकने की जगह और बढ़ रहा है। बड़ी बात यह है कि साइबर क्राइम की सबसे ज़्यादा शिकार महिलाएँ होती हैं। महिलाओं को फँसाने के लिए कुछ अपराधी अपनी प्रोफाइल महिलाओं के नाम से ही बनाते हैं। फेसबुक और ट्विटर पर ऐसी प्रोफाइल काफी संख्या में देखी जा सकती हैं। महिलाओं को अपनी पोस्ट पर अधिक लाइक्स की चाह क्राइम का शिकार बनाने के जाल में जल्दी फँसा देती है। फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर इससे बचने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि फ्रेंड रिक्वेस्ट (मित्रता निवेदन) भेजने वाले की प्रोफाइल की अच्छी तरह जाँच कर लें, तब उसे मित्र बनाएँ। अगर फर्ज़ी प्रोफाइल का पता चले, तो ऐसे व्यक्ति को ब्लॉक कर दें और अगर कोई फेसबुक पर दोस्त बनने के बाद असहज बात या टिप्पणी करे, तो भी उसे ब्लॉक कर दें; अन्यथा उससे दूरी बना लें।
कैसे बढ़ रही अराजकता
बहुत से समाज सुधारकों और अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट के ज़रिये बहुत लोग अराजकता फैलाने का काम कर रहे हैं। इनमें कुछ असामाजिक तत्त्वों और हिंसक प्रवृत्ति के संगठनों का भी हाथ है। पिछले कुछ वर्षों में कई दंगों में सोशल साइट्स का इस्तेमाल किये जाने के आरोप लगते रहे हैं। यह अलग बात है कि दंगे भड़काने या अराजकता फैलाने के बयान खाली आरोप-प्रत्यारोप के रूप में ही इस्तेमाल होकर रह गये हैं, उनकी कोई ठोस जाँच नहीं हुई है; खासकर भारत में। हाल ही में कुछ रिपोर्ट ऐसी भी आयी हैं, जिनमें कहा गया है कि बीते कुछ वर्षों से दुनिया के अधिकतर देशों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल राजनीतिक ध्रुवीकरण और धार्मिक कट्टरता को बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। इससे सामाजिक संघर्ष के साथ-साथ तनाव और झगड़ों की वजहें बढ़ी हैं। यहाँ तक कि इससे आंतकवाद की घटनाएँ तेज़ी के साथ बढ़ी हैं।
श्रीलंका में हो चुकी है बड़ी हिंसा
सन् 2019 में न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि सन् 2018 में श्रीलंका में हुई भयंकर साम्प्रदायिक हिंसा सोशल मीडिया के दुरुपयोग की वजह से फैली थी। रिपोर्ट बताती है कि फेसबुक पर गलत सूचनाओं और झूठी खबरों के प्रसार के सहारे हिंसा को भड़काया गया था। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि सन् 2018 में श्रीलंका में फेसबुक को हेट स्पीच (घृणित बयानबाज़ी) और मिसइन्फॉर्मेशन (गलत सूचना) के लिए इस्तेमाल किया गया, जिसका नतीजा भयंकर हिंसा के रूप में सामने आया। आखिरकार श्रीलंका सरकार को पूरे देश में इमरजेंसी लगानी पड़ी और फेसबुक पर भी प्रतिबन्ध लगाना पड़ा। भारत में भी इसी तरह कई जगहों पर दंगों के दौरान सोशल साइट्स के दुरुपयोग की खबरें सामने आ चुकी हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले राजधानी में फैले साम्प्रदायिक दंगे इसका बड़ा उदाहरण हैं।
कहाँ-कहाँ है प्रतिबन्ध
दुनिया के ऐसे कई देश हैं, जहाँ कई सोशल साइट्स पर प्रतिबन्ध है। श्रीलंका सरकार द्वारा सन् 2018 में फेसबुक पर रोक के अलावा हाल ही में म्यांमार के प्रभारी सैन्य अधिकारियों ने तख्तापलट के बाद सोशल मीडिया की कई साइट्स पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। यहाँ के अधिकारियों ने देश में ट्वीटर और इंस्टाग्राम के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। बता दें कि म्यांमार में फेसबुक और अन्य कई सोशल साइट्स पर पहले ही प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है। म्यांमार की सैन्य सरकार का कहना है कि सोशल मीडिया का उपयोग फर्ज़ी और अराजक खबरों के लिए किया जा रहा था। यहाँ फेसबुक और अन्य ऐप्स पर पाबन्दी लगाने के अलावा संचार ऑपरेटरों और इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को ट्विटर और इंस्टाग्राम के इस्तेमाल पर भी रोक लगाने का आदेश दिया है। सेना द्वारा जारी किये गये एक बयान में कहा गया है कि कुछ लोग फर्ज़ी खबरें फैलाने के लिए इन दोनों प्लेटफॉम्र्स का इस्तेमाल कर रहे हैं।
भारत में फर्ज़ी खबरों पर कैसे लगे रोक
दुनिया के कई देशों की तरह भारत सरकार भी यदि चाहे, तो सोशल साइट्स पर रोक लगा सकती है। इसके अलावा सरकार फर्ज़ी खबरों को रोकने के लिए भी ठोस कदम उठा सकती है। कुछ देशों ने ऐसे ही कदम उठाये हैं। इनमें मलेशिया और आस्ट्रेलिया की सरकारों ने फर्ज़ी खबरें रोकने के लिए एंटी फर्ज़ी खबरें लॉ जैसा सख्त कानून बनाया है। वहीं रूस, फ्रांस, चीन, जर्मनी, सिंगापुर और यूरोपियन यूनियन ने भी फर्ज़ी खबरें रोकने के लिए कानून बना रखे हैं। यदि भारत सरकार चाहे तो यहाँ भी फर्ज़ी खबरें रोकने के लिए कानून बना सकती है, लेकिन अभी तक सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।
साइबर लॉ के जानकार बताते हैं कि भारत में आईटी एक्ट है, जिसके तहत फर्ज़ी खबरों पर रोक लगाने के प्रावधान हैं; लेकिन ये कानून बहुत स्पष्ट और सख्त नहीं है, इसलिए ऐसा नहीं हो पा रहा है। हालाँकि फर्ज़ी खबर फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है।