अरबी में ‘फतवे’ का अर्थ होता है ‘कानूनी सुझाव’, लेकिन कालांतर में लोगों ने अपने हितों के मुताबिक इसमें बदलाव और व्याख्या करनी शुरू कर दी, और अंतत: फतवे के प्रति लोगों के मन में यह छवि बना दी गई कि यह एक कानूनी आदेश है जिसे मानना सबकी मजबूरी है. जबकि यह पूरी तरह से फतवे के मूल विचार और इस्लामी मान्यताओं के खिलाफ है.
उस हद तक फतवे में कोई बुराई नहीं जब तक वह यह स्पष्ट करता हुआ चले कि यह उस व्यक्ति का निजी विचार है. साथ ही यह बात भी साफ होनी चाहिए कि वह व्यक्ति संबंधित मामले का जानकार है. समस्या तब होती है जब फतवा कानूनी आदेश के रूप में धार्मिक चोला ओढ़कर सामने आता है. कुरान ऐसे लोगों की पुरजोर मुजम्मत करता है, ‘उन पर मुसीबत आना तय है जो खुद के शब्द गढ़ते हैं और अपने तुच्छ फायदे के लिए उन्हें अल्लाह के शब्द बताते हैं.’ (कुरान 2.79)
फतवों का बेजा इस्तेमाल पहली दफा नहीं हो रहा. पेशेवर मुल्ला-मौलाना हमेशा से ही फतवे का मजाक बनाते आ रहे हैं. अगर आप अरबी साहित्य पर थोड़ी निगाह डालें तो पाएंगे कि वहां सबसे ज्यादा बदनाम पद काजी का रहा है. मौलाना आजाद ने अपने एक लेख में लिखा है, ‘मुफ्ती की कलम (फतवा जारी करने वाला व्यक्ति) हमेशा से मुस्लिम आतताइयों की साझीदार रही है और दोनों ही तमाम ऐसे विद्वान और स्वाभिमानी लोगों के कत्ल में बराबर के जिम्मेदार हैं जिन्होंने इनकी ताकत के आगे सिर झुकाने से इनकार कर दिया.’
इस्लाम स्पष्ट शब्दों में हर स्त्री और पुरुष को इजाजत देता है कि वह धर्म के मूल सिद्धांतों की समझ के साथ अपनी सोच और ज्ञान का दायरा बढ़ाए ताकि अपनी जिंदगी से जुड़े मसलों पर वह खुद फैसले ले सके. अगर वह खुद किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है तो जानकारों से सलाह ली जा सकती है. पर यहां जोर व्यक्ति के ऊपर ही है. अपने मसलों में मुफ्ती, काजी सब कुछ वह व्यक्ति ही है. किसी तीसरे को उसके निजी जिंदगी से जुड़े फैसले करने का अधिकार नहीं.
यह जरूरी है कि फतवे सभी पक्षों की बात सुनकर परिस्थितियों और सबूतों का सम्यक मूल्यांकन करने के बाद ही दिए जाएं. पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा. फतवा एक पक्ष के सवालों के जवाब के रूप में होता है और इसे सुझाव की बजाय बाध्यता के रूप में प्रचारित किया जाता है.
(अतुल चौरसिया से बातचीत के अंश)