अपनी विस्तारवादी और कुटिल नीतियों के ज़रिये चालबाज़ चीन दुनिया के कई देशों की ज़मीन और समुद्री क्षेत्र पर नज़रें गड़ाये हुए है। वह कभी किसी देश की वायु सीमा को लाँघता है, तो कभी किसी देश के समुद्री क्षेत्र में घुसपैठ करता है। इसीलिए अब उसके ख़िलाफ़ वैश्विक घेराबंदी करके समुद्र में उससे मुक़ाबले की योजना तैयार की गयी है। क्वाड के बाद अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का एक और अध्याय ‘प्रोजेक्ट ऑकस’ शुरू होने जा रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया ने चीन का सामना करने के उद्देश्य से एक सुरक्षा साझेदारी की स्थापना की है। इस परियोजना के तहत तीनों देश मिलकर ऑस्ट्रेलिया में परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी का निर्माण करेंगे। अमेरिका और ब्रिटेन मिलकर ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी बनाने की तकनीक देंगे। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और ब्रिटेन की इस नयी सुरक्षा साझेदारी ‘ऑकस’ से अब हिन्द महासागर में चीन को ऑस्ट्रेलिया से तो चुनौती मिलेगी ही, भारत से अपने तरीक़े से चुनौती मिलेगी। क्योंकि हिन्द महासागर में चीन के बाद सिर्फ़ भारत के पास ही परमाणु पनडुब्बियाँ हैं।
समुद्र के नीचे छुपी पनडुब्बियाँ किसी भी देश के लिए बड़ी ताक़त होती हैं। उनका पता लगाना क़रीब-क़रीब नामुमकिन होता है। नाभिकीय पनडुब्बी (न्यूक्लियर सबमरीन) दूसरी पारम्परिक पनडुब्बियों के मुक़ाबले ज़्यादा ख़ामोश होती हैं। नाभिकीय ऊर्जा से चलने की वजह से इनकी मारक क्षमता लगभग असीमित होती है। परमाणु पनडुब्बी बनाना बहुत महँगा और मुश्किल है। इसीलिए पाकिस्तान के पास भी अभी तक परमाणु बम तो हैं, मगर एक भी नाभिकीय पनडुब्बी नहीं है। नाभिकीय पनडुब्बी की तकनीक इस वक़्त सिर्फ़ अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, भारत, चीन और फ्रांस के पास है। लेकिन अब एक और देश ऑस्ट्रेलिया को नाभिकीय पनडुब्बी मिलने जा रही है, जिसकी मदद से वह चीन का मुक़ाबला करेगा। इसके बनाने की योजना अगले 18 महीनों में तैयार हो जाएगी। एक आभासी बैठक (वर्चुअल मीटिंग) में तीनों देशों के राष्ट्रप्रमुखों ने यह बात कही है।
हाल के वर्षों में चीन की सैन्य शक्ति तेज़ी से बढ़ी है। चीन अपनी अपनी अर्थ-व्यवस्था का बड़ा हिस्सा ख़र्च करके नौसेना का भी विस्तार कर रहा है। चीन पिछले कुछ वर्षों से हिन्द महासागर में अपनी पनडुब्बियाँ भेज रहा है। चीन की पनडुब्बियों ने कई बार हिन्द महासागर से अरब सागर तक गश्त की है, जो आने वाले ख़तरे की घंटी है। हिन्द महासागर में चीन की ताक़त कम होने का मतलब साफ़ है कि अमेरिका और भारत ताक़तवर होंगे। लगातार सीमावर्ती इलाक़ों पर क़ब्ज़ा, भारत के ख़िलाफ़ षड्यंत्र और तालिबान का साथ देकर दुनिया भर के देशों के लिए मुसीबत खड़ी करने वाला चीन अब ख़ुद बड़ी मुसीबत में पड़ सकता है। चीन की साज़िश के ख़िलाफ़ अब दुनिया का एकजुट होना ज़रूरी हो गया था, इसलिए उसे उसी की भाषा में जवाब देने की तैयारी की जा रही है। यह त्रिपक्षी सुरक्षा साझेदारी की यह घोषणा ऐसे समय में हुई है, जब चीन दुनिया के कई देशों को परेशान कर रहा है और उनके लिए ख़तरा बनता जा रहा है। इस नये साझाकरण से भारत को भी राहत मिलेगी; क्योंकि इससे चीन की चिन्ता बढ़ेगी और उसकी दादागिरी पर अंकुश लगेगा। ऑस्ट्रेलिया के हिन्द प्रशांत क्षेत्र में भारत का क़रीबी रणनीतिक साझेदार बनने से क्वाड की ताक़त बढऩे की भी पूरी सम्भावना है।
इस समझौते से तिलमिलाये चीन के वाशिंगटन दूतावास के प्रवक्ता ने कहा है कि कुछ देशों को शीत युद्ध वाली मानसिकता के साथ काम करना बन्द करना चाहिए। कोरोना महामारी के इस कठिन समय, अफ़ग़ानिस्तान में हुई त्रासदी और तालिबान राज के बीच दुनिया के घटनाक्रम तेज़ी से बदल रहे हैं। कहीं सुरक्षा की चुनौतियाँ बढ़ी हैं, तो कहीं अर्थ-व्यवस्था का बुरा हाल हो गया है। इसी बीच अब नये गठजोड़ भी उभरकर सामने आ रहे हैं।
चीन ने क्वाड पर कहा है कि वह इस पर क़रीब से नज़र रखेगा। इस गठबन्धन को उसने क्षेत्रीय शान्ति एवं स्थिरता को प्रभावित करने तथा परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने में बाधा उत्पन्न करने वाला कहा है। क्वाड को उसने सुरक्षा साझेदारी नहीं, बल्कि भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान का हिन्द प्रशांत क्षेत्र के मद्देनज़र कूटनीतिक उद्देश्यों के लिए तैयार किया गया एक मंच कहा है।
ऐसे में ऑकस क्वाड में सुरक्षा का दृष्टिकोण जोड़ता है। फ़िलहाल क्वाड और ऑकस समानांतर राह पर आगे बढ़ेंगे। ऑकस का उद्देश्य हिन्द प्रशांत क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया की ताक़त बढ़ाना है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने इस अवसर पर कहा कि भले ही भौगोलिक आधार पर अलग हों, लेकिन ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया स्वाभाविक सहयोगी हैं और उनके हित व मूल्य साझे हैं। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने कहा कि अगले 18 महीनों में तीनों देश सर्वश्रेष्ठ मार्ग तय करने के लिए मिलकर काम करेंगे। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि तीनों देश 20वीं सदी की तरह 21वीं सदी के ख़तरों से निपटने की अपनी साझेदारी क्षमता को बढ़ाएँगे। हालाँकि इस योजना के आलोचकों ने चिन्ता जतायी है कि इस समझौते के बाद परमाणु अप्रसार सन्धि (एनपीटी) के लूपहोल का फ़ायदा उठाने की कोशिश कुछ देश कर सकते हैं। लेकिन ऑस्ट्रेलियाई प्रशासन ने विश्वास दिलाया है कि उनका इरादा परमाणु हथियारों की संख्या बढ़ाने का नहीं है, वे परमाणु अप्रसार सन्धि का ही पालन करेंगे।