असमय प्रेम कविताएं
तुम्हारी छुअन से खिली पंखुड़ी
मेरा प्यार है
—-
प्यार का कोई न समय है, न उम्र
न देश, न धाम और न नगर
ओह! मुझे हर बार लगा
मेरा प्यार है-
नुकीले कांटों के बीच
फूलों का खिलना
जैसे पैने दुर्दान्त दांतों से घिरी
मेरी जीभ
—-
खालीपन बराबर बढ़ रहा है
हर दिन, हर ऋतु, हर सूर्यास्त
कहां से लाऊं ऐसा भरापन
जो मुझे नीचे गिरने से बचा सके
—–
तुम्हारी आंखों का नीलापन
मेरा प्यार हैं
कितनी बहुरंगीय धारियां है इसमें
और कितनी अनजानी शक्लें
स्फाटिक के रंबों में जैसे झिलमिलाती
एक उज्जवल रेख
मेरे अच्छे भविष्य की भी है
ये वस्तुएं तुम्हारे
विश्व बाज़ार से गायब हैं
हल्की धूप की परतों में
सुहाता गुनगुनापन जैसे
तुम्हारी सौम्य घनी पलकें
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गेहूं के दानों का दूधियाना।
मेरा प्यार है
जो धूप में पक रहा है
अन्न बनने को
अभी समय है
जब तक चैत आये
मैं जीवन की हरीतिमा को
सुनहरा होते देखूं
बदलते रंगों की
रोएंदार छाया में
मैंने तुम्हारे होने की लहरें सुनीं
पतझड़ के गिरने की
खाकी खडख़ड़ाहट मैंने सुनी
नदियां चाहे किसी पर्वत शिखर से फूटे
बहती हंै सागर की तरफ
जीवन ही वह धार है जल की
जो काली चट्टान को तोड़ कर
निर्झरित होगी
ओह! तेज़ हवा ने जब मुझे
मंजरित आम की तरह झकझोरा
मेरी फलवान नयी टहनियां हिलीं
भूरी नसों-दार पतियां विचलित हुई
पर जड़ों ने भरोसा नहीं खोया
जिस तरह उजाले से मैं जिया हूं
आज तक… वह मेरा प्यार है।
पारदर्शी जल में
जैसे मछलियों की बिछलन
कहां है अभी वसंत का आगमन
उसे मैं बीहड़ों में छोड़ कर आया हूं
उसकी जगह देखता हूं धुंधलके में
पथराई तुम्हारी सूनी आंखें
खोखले दिल का विस्तृत होता आयतन
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सुनो, सुनो अभी और भी सुनो
यदि मृत्यु अटल है इस तमस की तरह
तो जीवन भी अविनाशी है
वह अक्षय स्रोत कहां है
जहां से निरंतर फूटते हैं
मार्ग-वाहीं निर्झर
खिलते हैं अनचय बन फूल
और बिना कहे मुरझा कर गिर जाते हैं
कोई नहीं सुनता उनका त्रासद रूदन
इन्हीं में होता है प्रस्फुटित युग बीज
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तुम न बोलो चाहे
अपने ताजा घावों से रिसी भाषा
पर मुझे बोलने दो कवि की तरह
यह कर्म चुना है मैंने
मैं बोलूंगा
उनकी धूर्तता और
लफ्फाजी के विरूद्ध
हमारे मुंह सी दिए गए हैं
सुनहरे तारों से
जिसे तुम सौभाग्य समझ रहे हो
यह जादुई दुनिया मेरी नहीं है
मेरी धरती वह है
जो असंख्य खुरों से खुदी है
वे कौन हैं जो मुझे
रंगीन विज्ञापनों से चकित किए हैं
क्या कहूं… कितना त्रासद है
तुमने मुझे अपना कर मुट्ठी भर
रजत सिक्कों के लिए त्यागा है
दिल्ली दरबार तुम्हारे लिए खुला है
राजपथ पर चलने वाले कवियों की आत्मा
अंदर-अंदर मर चुकी है
भले ही वे पंच सितारों में जश्न मना रहे हों।
—–
धरती की अनंत गति से ही बदलती है ऋतुएं
आने वाले बेहतर दिनों का भरोसा करो
जिन्होंने भय और आतंक के सिवा
और कुछ जाना ही नहीं
वे अब लहलहाती दुनिया के
स्वप्न देख रहे है
ऐसा कभी नहीं हुआ
पतझड़ की गंधहीन सरसराहट से
पेड़ निपात हों
और वसंत न फूटे
अंत तक चाहूंगा
आदमी का सिर ऊंचा रहे
हिमालय शिखर की तरह
मैं अपने हृदय को खंगालता रहूं
जो गहरा है समुद्र से भी।