कांग्रेस के भीतर कहीं गहराई में प्रतिस्पर्धी कूटनीति का रोमांच जरूर है, जो एक नए आवेग और धमाके के साथ प्रकट होता है। बेशक इसमें लंबा और ऊबाउ वक्त लगता है। लेकिन इसमें एक ठोर पर ठिठक गई ठंडी राजनीति में रफ्तार भरने की जबरदस्त ताकत है। 1999 में जब सोनिया गांधी रायबरेली से चुनाव लड़ रही थी तो प्रचार अभियान की कमान प्रियंका संभाले हुए थी। उस दौरान एक पत्रकार ने लगे हाथ सवाल दाग दिया था कि, ‘राजनीति में सक्रिय होने को लेकर आपकी क्या योजना है?’’ उनका जवाब था, ‘आपको इसके लिए बहुत-बहुत वक्त का इंतजार करना पड़ेगा?’’ और वो इंतजार खत्म हुआ, 20 साल बाद, जब उन्हें एक इतिहास का हिस्सा होना था….तब जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रफ्तार की उम्मीदों का ईधन तेजी से खत्म हो रहा था। आखिर 20 साल पहले प्रियंका के मन में क्या घुमड़ रहा था? भले ही प्रियंका ने तब गहरी चुप्पी साध ली लेकिन पत्रकार को मुनासिब जवाब गांधी परिवार के निष्ठावान आरके धवन ने दिया कि, ‘गांधी परिवार के लोग अपना मन बाहरी लोगों के सामने कभी नहीं खोलते।’ विश्लेषक कहते हैं कि, ‘चाहे प्रियंका भौतिक रूप से राजनीति में सक्रिय नज़र नहीं आई किन्तु वह हर जटिल मौकों पर कांग्रेस के लिए नई सूझ-बूझ की महारथी बनी रही और उनकी पैनी सूझ साल-दर-साल निखरती रही। विश्लेषकों का मानना है कि, ‘प्रियंका के फैसले भारतीय राजनीति में नई बयार के प्रतीक बन सकते हैं वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं कि, ‘वे कुछ ज़रूरी मुद्दों पर बेहतर करेंगी। ऊंची जातियों के बीच भाजपा की लोकप्रियता में सेंध लगाने के अलावा,उत्तरप्रदेश में बसपा-सपा गठजोड़ के चुनावी प्रभाव को मोथरा कर सकती हैं। कांग्रेस के लिए इस मायने में भी प्रियंका आब-ए-हयात हो सकती है कि, ‘पार्टी संगठन एक मजबूत डोर में बंध जाएगा, जो कि अभी नहीं है। प्रियंका की राजनीतिक सक्रियता को लेकर मोदी का तंज कि, ‘कांग्रेस परिवारवाद को बढ़ावा दे रही है? प्रतिस्पर्धी राजनीति में ज्यादा सना हुआ लगता है जबकि वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता का यह कथन इस तंज की बखिया उधेड़ देता है कि, ‘संघ तो शीर्ष स्तर के स्वयंसेवक तक को ‘बंधु’ ही कहकर परिवार के बल पर आगे बढऩा सिखाता है। भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी संघ परिवार से ही पली-बढ़ी है। अटल बिहारी वाजपेयी को दीनदयाल उपाध्याय ने आगे बढ़ाया। अटल बिहारी वाजपेयी ने आडवाणी को और दोनों ने नरेन्द्र मोदी को सत्ता के शिखर पर पहुंचाया। ये रिश्ते खून से भी ज्यादा मायने रखते हैं। फिर जनसंघ-भाजपा में प्रादेशिक राष्ट्रीय स्तर पर सिंधिया परिवार की धाक कौन भूल सकता है?’’
बहरहाल प्रियंका की ऐंट्री से कांग्रेस जबरदस्त उभार पर है और उसका उभार सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहने वाला नहीं है और कहने की ज़रूरत नहीं कि मीडिया में जिस तरह प्रियंका छाई हुई है, उनके दीवाने प्रसंशकों का तो जैसे महा मेला लगा हुआ है। छलकती उम्मीदों से कोई अछूता नहीं है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कहते हैं, ‘यह जश्न का माहौल है। कांग्रेस के लिए और मजबूत होने का अहसास है।’ पत्रकार रमण स्वामी कहते हैं, ‘उनकी शख्सियत के जिन पहलूओं का जिक्र अक्सर होता है, वे है असंगदिग्ध करिश्मा और स्वाभाविक संवाद शैली। वरिष्ठ पत्रकार जाल खंबाता कहते हैं कि, प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने से अचंभित भाजपा को एक नया सदमा सहने के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि, वे अपने चचेरे भाई वरुण गांधी को, जो कि सुल्तानपुर से भाजपा सांसद है, कांग्रेस में शामिल कर बड़ा धमाका कर सकती है। प्रियंका लंबे समय से वरुण गांधी के संपर्क में है। पार्टी सूत्र इस बात से भी इन्कार नहीं करते कि वे अपनी चाची मेनका गांधी को भी पार्टी में शामिल कर सकती हैं। मेनका गांधी अभी मोदी सरकार में महिला और बाल विकास मंत्री हैं। मेनका के मोदी से पहले ही रिश्ते तल्ख चल रहे हैं। उन्होंने यह मांग रखकर कि वरुण गांधी को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाए, मोदी को नाराज़ कर दिया था। वरुण भी तब से पार्टी की गतिविधियों से कटे हुए थे। जाहिर है कि अब मेनका और वरुण गांधी की कांग्रेंस में आमद की प्रतीक्षा करनी चाहिए।