राजनीति में प्रियंका को नई जिम्मेदारी सौंपना और खुद राहुल का इस बात की घोषणा करना यह बताता है कि कांग्रेस अपनी चाल खुद चलने पर भरोसा रखती है।
इससे यह साफ है कि प्रियंका में जो करिश्मा है उसका लाभ देश की यह पुरानी पार्टी उठाना चाहती है। पार्टी कितनी बेसब्र है यह इस बात से भी जाहिर है कि प्रियंका का चेहरा उनकी दादी इंदिरा के चेहरे से कितना मेल खाता है और प्रियंका में इंदिरा की इस झलक को पार्टी भुना लेना चाहती है।
अभी हाल ही में पार्टी ने राहुल ने नेतृत्व में खासा बेहतर प्रदर्शन किया है। लेकिन लगता है कि पार्टी में अभी भी वह जोश नहीं आया है जिसके कारण पिछले चुनावों में इसे जीत हासिल होती थी। इस कमी को पूरा करने के लिए पार्टी ने प्रियंका का सहारा लिया है।
इस साल यानी 2019 की चुनावी जंग में कांग्रेस में प्रियंका के आने की खबर के साथ ही भाजपा में मानों खलबली सी मची हुई है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने सेना के लोगों की ‘वन रैंक वन पेंशन’ की अर्से से चली आ रही मांग को एक नया अर्थ दे दिया है, ‘एक राहुल गांधी-कांग्रेस अध्यक्ष और उनकी बहन प्रियंका गांधी’। इस पर फौरी टिप्पणी की जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने। उन्होंने कहा,’ यह ‘आडोमॉस’ का ओवरडोज है, सिर्फ मोदी और सिर्फ शाह के लिए’।
बहरहाल, तगड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा प्रियंका को। उनके एक हाथ की ओर तीर-कमान से लैस मोदी-शाह -योगी हैं। दूसरे हाथ हैं सपा-बसपा-रालोद। पहले हाथ की ओर खड़े तीरंदाजों को गजब का भरोसा है खुद पर जबकि दूसरे हाथ के गठबंधन ने अभी हाल में दो महत्वूपर्ण उपचुनावों में अपने रणनीतिक कौशल के झंडे गाड़ दिए थे। इस गठबंधन ने उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को दो ही सीटों के लायक समझा और उसके लिए रायबरेली और अमेठी की सीटें छोड़ीं।
प्रियंका के लिए यह सहज नहीं होगा कि वंशवाद का लाभ उन्हें मिले। बल्कि उनकी यह अग्नि परीक्षा होगी जब मौनी अमावस्या और शाही स्नान के मौके पर वे प्रयागराज के अर्धकुंभ मेले में गंगा-यमुना के संगम में डुबकी लगाने के बाद पूर्वी उत्तरप्रदेश में कांग्रेस महासचिव का पदभार ग्रहण करेंगी जिसकी उन्हें कमान दी गई है। पूर्वी उत्तरप्रदेश की सीमा में महराजगंज और कुशी नगर के पूरब में धौरहरा और खीरी और पश्चिम में पीलीभीत और रामपुर हैं।
पार्टी 1989 से इस नक्शे के बाहर रही है। अलबत्ता 2009 में लोकसभा की 21 सीटों पर कांग्रेस को कामयाबी हासिल हुई। इस साल की चुनावी जंग में कांग्रेस पार्टी कितना कुछ कर पाती है उसे देखना वाकई दिलचस्प होगा। कांग्रेस की रणनीति में आए बदलाव का क्या असर मायावती और ममता पर होगा जो देश के भावी प्रधानमंत्री होने का ख्बाब पाल रही थीं? सेवानिवृत्त नौकरशाह और मायावती के पूर्व सहयोगी पीएल पूनिया कांग्रेस में हैं। वे किसी की हथेली की रेखाओं की तरह उत्तरप्रदेश को भी जानते समझते हैं। उत्तरप्रदेश की चुनावी जंग में अभिनय कौशल, जाति का गणित, दिल को छू लेने वाले नारे और स्थानीय व राष्ट्रीय मुद्दे खासे हावी रहते हैं। बतौर वक्ता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही प्रभावित कर ले जाते हों लेकिन ‘अच्छे दिन’ का प्रलाप इस चुनाव में सिरे से गायब होगा।
प्रियंका गांधी के लिए कांग्रेस को ज़मीनी स्तर से जोडऩा बड़ा कार्य होगा क्योंकि आज इंदिरा गांधी को याद करने वाले मतदाता नहीं हैं बल्कि उनकी जगह मतदाताओं की एकदम नई पीढ़ी है। एक पुरानी पार्टी की राह में रोड़े बहुत हैं। इसमें सबसे बड़ी खामी है संगठन का अभाव। ऐसे में यह कहना ज़रा कठिन है कि प्रियंका को नई कमान का मिलना तुरुप का इक्का है या कुछ भी नहीं।