न तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, न यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महासचिव प्रियंका गांधी का रास्ता वाराणसी से चुनाव लड़ने के लिए रोका था। कांग्रेस के सभी बड़े नेता इसके लिए हामी भर चुके थे। खुद प्रियंका गांधी मानसिक रूप से खुद को पूरी तरह वाराणसी से चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर चुकी थीं। यहाँ तक कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव तक प्रियंका के समर्थन में अपना उम्मीदवार हटाने का भरोसा दे चुके थे। फिर कहाँ मामला अटका? ”तहलका” की जानकारी के मुताबिक प्रियंका और वाराणसी के रास्ते में रोड़ा बनीं बसपा प्रमुख मायावती।
भाजपा खेमे में भी प्रियंका गांधी के वाराणसी से लड़ने की खबर के बाद हलचल थी। प्रियंका चुनाव लड़ेंगी, इसके लिहाज से रणनीति बदलने और बनाने की भाजपा के स्तर पर कोशिश हो गयी थी। गुरूवार को पीएम मोदी के रोड शो में जो जबरदस्त इंतजाम दिखे, उनके पीछे एक बजह प्रियंका के वाराणसी से चुनाव लड़ने की ख़बरें भी थीं।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपने स्तर पर इस कार्यक्रम का जिम्मा देख रहे थे यूपी के बाकी हिस्सों से भी कार्यकर्ताओं को वाराणसी पहुँचने के लिए कहा गया था ताकि रोड शो के जरिये ही मनोवैज्ञानिक बढ़त ले ली जाए। लेकिन प्रियंका का वाराणसी में मोदी के खिलाफ मैदान में उतरने का मामला अटक गया। हालाँकि, भाजपा को मोदी के रोडशो से कमसे कम एक दिन पहले ही यह आभास हो गया था कि प्रियंका मैदान में नहीं उतरेंगी।
”तहलका” की जानकारी के मुताबिक दो बड़े भाजपा नेताओं ने भी बसपा प्रमुख या उनके निकटवर्तियों से संपर्क साध कर टोह लेने की कोशिश की थी कि क्या मायावती गठबंधन की तरफ से प्रियंका की उम्मीदवारी का समर्थन कर रही हैं। तब तक यह खबर आ चुकी थी कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव प्रियंका के हक़ में अपनी उम्मीदवार शालिनी यादव को वापस लेने को तैयार हैं। इससे भाजपा खेमे में बैचेनी थी।
कांग्रेस की तरफ से मायावती या उनके निकटवर्तियों को प्रियंका के हक़ में मनाने की गंभीर कोशिश हुई थी। जानकारी के मुताबिक कुछ बसपा नेता इसके हक़ में भी थे लेकिन मायावती इसके बिलकुल खिलाफ थीं। भले मायावती पीएम मोदी के खिलाफ जितना बोलती हों, वाराणसी के मामले में उनका रुख साफ़ था – ”नो स्पोर्ट टू प्रियंका”। कहते हैं खुद प्रियंका कांग्रेस नेताओं को बता चुकी थीं कि उन्हें मायावती से समर्थन मिलने की उम्मीद न के बराबर है।
साल २०१४ के लोक सभा चुनाव में जीरो पर सिमट जाने वाली बसपा और मायावती मानती हैं कि कांग्रेस का यूपी में उभार होता है तो उसका सबसे ज्यादा नुक्सान बसपा को होगा और उसके अस्तित्व के लिए खतरे जैसी स्थिति बन जाएगी। बहुत दिलचस्प बात है कि यूपी की राजनीति के कई बड़े जानकार यह मानते हैं कि चुनाव के बाद कुछ परिस्थितियों में मायावती भाजपा को समर्थन दे सकती हैं।
प्रियंका के मामले में मायावती बहुत चौकन्नी थीं। उन्हें मालूम था प्रियंका का मोदी के खिलाफ उतरने का सीधा मतलब होता, लोगों का पूरा फोकस कांग्रेस और प्रियंका पर हो जाना। इससे पूरे यूपी, खासकर पूर्वांचल में कांग्रेस की हवा बनती। इससे चुनाव भाजपा बनाम कांग्रेस हो जाता। कांग्रेस को तो इसका लाभ देश भर में मिल सकता था। कहते हैं मायावती की ”न” के बाद भी प्रियंका का जोर था कि उन्हें मोदी के मैदान में उतरने दिया जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।
”तहलका” की पक्की जानकारी के मुताबिक प्रियंका वाराणसी के मतों का पूरा गुना-भाग कर चुकी थीं। गाँव के वोटरों में रुझान का अध्ययन कर चुकी थीं। साल २०१४ के में पड़े मतों का कई बार विभाजन कर जानने की कोशिश कर चुकी थीं कि उनके उतरने से कहाँ-क्या हो सकता है। वाराणसी में मोदी को २०१४ में ५,८१,०२२ वोट मिले थे। मोदी के निकटतम प्रतिद्वंदी अरविन्द केजरीवाल थे जो उनसे करीब ३,७७,००० वोटों से हारे थे और उन्हें खुद २,०९,२३८ वोट मिले थे। यह काम वोट नहीं थे और प्रियंका की लोकप्रियता वाराणसी में निश्चित ही केजरीवाल से अधिक रहती। उस चुनाव में भी कांग्रेस प्रत्याशी अजय राय को ७५,६१४, बसपा को ६०,५७९, सपा को ४५,२९१ वोट मिले थे जो मिलाकर ३,९०,७२२ हो जाते हैं। यह मत मोदी की जीत के अंतर से ज्यादा हो जाते हैं।
वोटों के इस गुना-भाग के अलावा जातिगत समीकरण का भी प्रियंका ने हिसाब-किताब किया था। वाराणसी में बनिया मतदाता करीब ३.२५ लाख हैं जिन्हें भाजपा का पक्का समर्थक है हालांकि, जीएसटी के बाद इस समुदाय में गुस्सा है। प्रियंका का गणित था कि इसमें से वोट कांग्रेस के पक्ष में आ सकते हैं।
ब्राह्मण मतदाता २.५० लाख के करीब हैं। एक तो एससी-एसटी एक्ट के कारण इन समुदाय में नाराजगी और दूसरे विश्वनाथ कॉरीडोर योजना से सबसे ज्यादा प्रभावित भी ब्राह्मण ही हैं। वे प्रियंका के चुनाव में उतरने की स्थिति में कांग्रेस की तरफ आ सकते थे। वाराणसी में तीन लाख के करीब मुस्लिम वोटर भी हैं जो प्रियंका के लड़ने की सूरत में उन्हें समर्थन के लिए एक बड़ा चेहरा मिल जाता। सपा का समर्थन मिलता तो यादव वोट भी मिल सकता था। दलित और ओबीसी मिलकर (८० हजार जमा ७० हजार) करीब १.५० लाख, भूमिहार १.२५ लाख, राजपूत एक लाख, पटेल २ लाख चौरसिया ८० हजार हैं। जाहिर है मोदी बनाम प्रियंका मुकाबले में यह वोट इधर-उधर हो सकते थे।
भले मोदी ने पिछले पांच साल में बाराणसी में काफी काम भी किये हैं लेकिन प्रियंका को लगता था कि गाँव का वोट उन्हें मिल सकता है क्योंकि मोदी जीतने के बाद गाँव में नहीं गए हैं। वाराणसी और पूर्वांचल इलाके की कुशीनगर, सलेमपुर, मिर्ज़ापुर, प्रतापगढ़, भदोही, संत कबीर नगर, महराजगंज और बस्ती जैसी लोक सभा सीटों पर कांग्रेस पहले से ही बहुत ताकत से लड़ रही है।
प्रियंका के खुद वाराणसी से मैदान में उतरने पर इन सीटों पर कांग्रेस बहुत मजबूत हो जाती। मायावती को भी इसका एहसास था। इसलिए उन्होंने प्रियंका के लिए ”नो” का फैसला चुना। वाराणसी में नामांकन की आखिरी तारीख २९ है और वाराणसी में कांग्रेस के लोगों को अभी भी भरोसा है कि प्रियंका अभी भी चुनाव लड़ सकती हैं। वैसे अमेठी और वायनाड दोनों जगह से राहुल के जीतने की स्थिति में माना जाता कि अमेठी से प्रियंका लड़ेंगी।
भाजपा इस चुनाव में २०१४ जैसी स्थिति नहीं होने से वाकिफ है। भले भाजपा नेता अपने कैडर में जोश भरे रखने के लिए २०१४ जैसे ”मोदी लहर” का दावा चुनाव सभाओं में कर रहे हैं, ज़मीनी हकीकत इसके विपरीत है। इस बार चुनाव में मोदी लहर जैसी कोइ चीज नहीं है। बेरोजगारी अभी भी बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है। लिहाजा भाजपा प्रियंका के वाराणसी में उतरने की ख़बरों से चिंता में थी। इससे मोदी को वाराणसी में थोड़ा ज्यादा वक्त देना पड़ता जिससे देश के बाकी हिस्सों में पार्टी प्रचार पर विपरीत असर पड़ता। सब मानकर चल रहे हैं कि प्रियंका उत्तर प्रदेश में ”लम्बी रेस का घोड़ा” हैं। उधर मायावती का प्रियंका को लेकर अपना ”फियर साइकोसिस” था। यानी भाजपा-बसपा की प्रियंका को लेकर एक सी स्थिति थी। और अब प्रियंका ”मैदान में नहीं” हैं। लेकिन सच में प्रियंका ”मैदान से बाहर” हैं, चुनाव नतीजे बताएँगे !