कभी कभी मौत दरवाजे पर खड़ी नजऱ आती है। परसों (नौ मई को) जब जयपुर के साकेत अस्पताल में श्याम आचार्य को देखने गए, तब पता नहीं कैसे लगा कि विदा होने की तैयारी में हैं। आज शाम वे चले गए।
हालांकि ऐसा संशय कुछ अरसे से मंडरा रहा था। दिसंबर से वे बिस्तर पर थे, पिछले ही पखवाड़े पूर्व आईएएस अधिकारी श्यामसुंदर बिस्सा के प्रयत्नों से उनकी नई किताब प्रावृत, भारती अकादमी ने छापी। राजेंद्र बोडा जी ने बताया कि वे अपनी कापी में पद्य लिखते आए है। परिजनों से ही पता चला। आनन-फानन में पांडुलिपि तैयार हुई और अस्पताल जाकर मित्र उनकी कृति भेंट कर आए।
प्रेमलता के साथ जब उनसे मिलने गया, इशारे से उन्होंने किताब की प्रति मुझे देने को कहा। उनकी बेटी सीमा ने कुछ तस्वीरें लीं। तब तक श्याम जी किताब को थामे रहे। मैंने उनसे कहा घर जाकर आज ही पढूंगा। भले उन्होंने बोलना छोड़ दिया था, पर सजग थे। उन्होंने गर्दन हिलाई।
घर पर जब किताब उठाई, हैरान हुआ कि पहली कविता मानों अंतिम कविता थी- प्राण, अब इस देहरी को छोड़ दे/ रोग की गठरी बनी जो/पीड़ की नगरी बनी जो/ मोह में नित उलझकर/ क्षीण, कृश ठठरी बनी जो ..।’
श्याम जी से पहली मुलाकात उनके ही कस्बे जैसलमेर में 1978 में हुई थी। वे जयपुर में हिंदुस्तान समाचार में थे। अरब के एक शहजादे के शिकार अभियान के हल्ले से चिंतित राज्य सरकार के प्रेस-दल में वहां आए थे। अरुण कुमार जी (तब यूएनआई में, बाद में पानी -बाबा) से भी पहली भेट तभी हुई। दिल्ली से आए जावेद लईक आर रघुराम से भी।
मैं साप्ताहिक ‘रविवार’ के लिए उस विवादग्रस्त शिकार की रिपोर्ट के सिलसिले में बीकानेर से जैसलमेर गया था। वहां से जयपुर आया। मेरी सचित्र रिपोर्ट राजस्थान पत्रिका ने पहले छापी और उसके आधार पर कुलिश जी से नौकरी का प्रस्ताव भी हासिल हुआ। मैंने पढ़ाई पूरी करने की मोहलत मांगी। बहरहाल रिपोर्ट, सरकार को रास नहीं आई। अरुण कुमार जी(जो तब मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत के बहुत करीब थे) ने भी मेरी नरम आलोचना की। पर श्यामजी ने एक नवोदित पत्रकार का हौसला बढ़ाया, यह मुझे बखूबी स्मरण है।
अगले वर्ष मेरा विवाह हुआ। ससुराल न्यू कालोनी में श्यामजी के घर और दफ्तर के सामने थी। श्वसुर गोपाल जी पुरोहित से उनका घराया था। अब मैं उनके विशेष स्नेह का पात्र भी बन गया। बाद में जनसत्ता में हम साथ हुए। वे वहां समाचार संपादक रहे थे। फिर नवभारत टाइम्स में जयपुर रह कर कलकत्ता के स्थानीय संपादक हो जनसत्ता से फिर जुड़ गए। कलकत्ता में श्याम जी की बड़ी पहचान और साख थी। बांग्ला धड़ल्ले से बोलते थे। उन्होंने मुझे अनेकानेक लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों से मिलवाया। जनसत्ता की प्रगति की योजना सुझाई। एक राजस्थानी बासे में घर जैसे खाने का ठिकाना भी बताया।
उनका निजी जीवन आगे दुखमय हो गया। विधि की विडंबना। पहले शंतिजी चली गई। फिर असमय ही बड़ा बेटा भूषण। पर उन्होंने अपने आपको संभाले रखा। लिखते रहे, जीते रहे।
जीवट के धनी, मधुर और सुंदर श्यामजी को विदा का आखिरी सलाम।
ओम थानवी
वाइस चांसलर, हरिदेव जोशी यूनिवर्सटी ऑफ जर्नलिज्म एंड मॉस कम्युनिकेशन
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