साम्प्रदायिक सद्भाव की निगाह से बेहद नाजुक डाल पर टिके हुए टोंक जिले के मालपुरा कस्बे में प्रशासन की मामूली चूक ने राख में दबी चिंगारी को भड़कने का मौका दे दिया। बवाल उस कस्बे में पैदा हुआ जहां की जमीन 1992 की बाबरी मस्जिद ढहाने की घटना से पहले ही खदबदाई हुई थी, जिसके जेरेसाया कस्बे में अब तक 28 लाशें बिछ चुकी थी। जिसकी शुरूआत मालपुरा के ही हिन्दूवादी राष्ट्रीय पार्टी के स्थानीय नेता कैलाश माली की हत्या से हुई।
राजस्थान पुलिस के डीआईजी सत्यनारायण जैन ने तभी इस बात के अंदेशे की तरफ इशारा कर दिया था कि, ‘ग्रामीण इलाकों में साम्प्रदायिकता सिर उठाने लगी है। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, ‘भविष्य में स्थिति विध्वंसक हो सकती है। बहरहाल इस घटना से मालपुरा कुख्यात हो चुका है। मुख्य घटनाओं पर गौर करें तो, ‘गुरूवार 24 अगस्त को हिन्दूवादी संगठनों द्वारा निकाली गई तिरंगा यात्रा पथराव की शिकार हो गई। सूत्रों के अनुसार यात्रा निकालने की सहमति सांसद सुखबीर सिंह जोनपुरिया और मालपुरा विधायक कन्हैया लाल चौधरी की मौजूदगी में विभिन्न संगठनों की बैठक में हुई। लेकिन प्रशासन ने इसकी इजाजत नहीं दी, बावजूद इसके संगठन यात्रा निकाल बैठे।
इसका नतीजा क्या हो सकता था, इसका प्रशासन को पूरा अंदाजा था, फिर भी प्रशासन ने यह कहते हुए समाधान कर दिया कि, ‘ठीक है लेकिन यात्रा उनके बताए मार्ग से निकाले।“ किन्तु ऐसा नहीं हुआ और हिन्दूवादी संगठन के कावडिए न सिर्फ तय रास्ता बदल गए। बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक स्थल की तरफ से यात्रा निकाल बैठे। संगठन में अति उत्साही युवा ज्य़ादा तैश में आ गए और दुकानों में तोड़-फोड़ कर दी। इस पर बवाल पैदा होना ही था, नतीजतन गुस्साई भीड़ ने न सिर्फ जमकर पथराव किया, बल्कि आधा दर्जन दुकानों को फूंक दिया। दंगे की आशंका में प्रशासन ने कस्बे में बेमियादी कफ्र्यू लगा दिया, लेकिन आग तो अब भी धधक रही है। लगता है डीआईजी जैन ने गलत नहीं कहा था? हालांकि अब तो जि़ला कलैक्टर भी प्रशासनिक चूक को मानते हैं। प्रशासन भले ही अपना सिर धुने, लेकिन इस घटना से पूरा सूबा तनाव के तंदूर पर बैठ गया है।
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार कहते हैं, ‘असहिष्णुता का जिन्न अगर एक बार बोतल से बाहर आ गया तो उसे फिर बोतल में डालना संभव नहीं है। मालपुरा में भड़की हिंसा ने एक तरह से समूचे राज्य को चपेट में ले लिया हैं इनकी खिलाफत में अगर प्रदर्शनों को देखें तो लगता है इस ओट में राजनीति चमकाने की कोशिश की जा रही है। टिप्पणीकारों का कहना है कि अगर हिन्दूत्व राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा देता है तो इस्लाम भी उस राष्ट्र के प्रति वफादारी की सीख देता है जिसमें इस्लाम के अनुयायी बस जाते हैं।
लेकिन क्या इस तरह के विवाद देश और इसके स्थायित्व को नुकसान नहीं पहुंचा रहे? इससे किसी धर्म का सम्मान नहीं हो रहा, बल्कि कुल मिलाकर यह वोट बैंक के लिए नेताओं की होड़ को बढ़ा रहा है। क्या इस तरह की हिंसक घटनाएं धार्मिक सनक को बढ़ावा नहीं दे रही? वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं, जिस तरह हिन्दू-मुस्लिम समुदायों का धु्रवीकरण बढ़ रहा है, उसके आगे देशहित गौण हो चुका है। पिछले दिनों राजस्थान के बूंदी में एक प्रतिमा को लेकर हिन्दूवादी संगठन और मुस्लिम आमने-सामने हो गए और जिन नेताओं पर सौहार्द रखने का दायित्व था, वे जुबानी जहर उगलने में जुट गए। आखिर कब तक बात-बेबात पर भड़कते रहेंगे लोग?