आदिवासियों की दशा समझने और सुधारने के लिए आजादी के बाद कई समितियां बनी हैं इनमें पहली मानवशास्त्री वेरियर एल्विन की अध्क्षता में बनी थी. और पहला आयोग कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष यूएन धेबर की अध्यक्षता में 1960 में बना. लेकिन शुरुआत में ही ये प्रयास खोखले साबित होने लगे. इसका नतीजा यह रहा कि 1960-70 के दशक के दौरान बस्तर में आदिवासी आंदोलन में भारी उभार देखा गया. इसका नेतृत्व बस्तर के पूर्व राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के हाथों में था. आदिवासियों के लिए वे भगवान सरीखे थे.
प्रवीर चंद्र ने ही भारत में बस्तर रियासत के विलयपत्र पर दस्तखत किए थे और बाद में वे कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेस का सदस्य रहते हुए 1957 में प्रवीर चंद्र विधायक बने लेकिन आदिवासियों के प्रति सरकार के रवैए से निराश होकर 1959 में विधानसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. सरकारी नीतियों के खिलाफ जब पूर्व राजा की सक्रियता बढ़ गई तब 1961 में उन्हें कुछ दिनों के लिए हिरासत में भी लिया गया. केंद्र सरकार ने कार्रवाई आगे बढ़ाते हुए एक आदेश के जरिए राजा के रूप में मिली उनकी सुविधाएं भी समाप्त कर दीं. बस्तर के आदिवासी सरकार के इस कदम से हैरान थे.
सरकार के इस फैसले के खिलाफ छत्तीसगढ़ के सुदूरवर्ती क्षेत्रों तक आदिवासियों की सभाएं होने लगीं. इसी समय एक गांव लोहड़ीगुड़ा में पुलिस ने प्रदर्शनकारी आदिवासियों पर गोलियां चलाईं जिसमें सरकारी आंकड़े के मुताबिक तकरीबन दर्जन भर आदिवासी मारे गए थे.
आजाद भारत में पुलिस की फायरिंग से आदिवासियों के मारे जाने की यह पहली घटना है.
इन घटनाओं ने प्रवीर चंद्र को बस्तर में और मजबूत कर दिया. 1962 के विधानसभा चुनाव में बस्तर की दस में से आठ सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार प्रवीर चंद्र के चुने हुए उम्मीदवारों के सामने बुरी तरह हार गए. एक तरह से यह सरकार की पराजय थी. इसके बाद से प्रवीर चंद्र दिल्ली से लेकर भोपाल तक आदिवासियों के पक्ष में बड़े-बड़े विरोध प्रदर्शन करने लगे. पुलिस और पूर्व राजा के नेतृत्व में आदिवासियों के बीच पहली झड़प की कथित घटना इसी समय की है. मार्च, 1966 में आदिवासी राजमहल में एक त्योहार के सिलसिले में जुटे हुए थे. आदिवासी अपनी परंपरागत वेशभूषा के साथ तीर-कमानों से लैस थे. कहा जाता है कि इसी दिन किसी दूसरे क्षेत्र में पुलिस की आदिवासियों से एक झड़प हुई और संदिग्धों की तलाश में पुलिस ने राजमहल को घेर लिया. अचानक यहां पुलिस और आदिवासियों के बीच संघर्ष शुरू हो गया. पुलिस ने आदिवासियों पर फायरिंग शुरू कर दी और दर्जनों आदिवासियों के साथ प्रवीर चंद्र की भी इस इसमें मौत हो गई. इसी के साथ उस दौर में आदिवासियों का सबसे बड़ा नेतृत्व खत्म हो गया.
कहा जाता है सरकार ने जानबूझकर बस्तर के पूर्व राजा की हत्या करवाई थी क्योंकि वे सरकार के लिए चुनौती बन गए थे. हालांकि पुलिस का दावा था कि आदिवासी प्रवीर चंद्र के नेतृत्व में उनके ऊपर तीरों से हमला कर रहे थे और इसकी प्रतिक्रिया में पुलिस को कार्रवाई करनी पड़ी.