सीबीआई, ईडी में कार्यकाल बढ़ाने की आड़ में सरकार कर रही उन्हें पिंजरे का तोता बनाने की एक और कोशिश
संसद के शीतकालीन सत्र के निर्धारित होने से कुछ दिन पहले सरकार ने शीर्ष जाँच संस्थाओं- सीबीआई और ईडी के प्रमुखों का कार्यकाल बढ़ाने वाले दो अध्यादेश जारी किये। इनसे सरकार की मंशा साफ़ झलक रही थी। सन् 2013 में कोलफील्ड आवंटन मामलों की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से सीबीआई का वर्णन करके उसे ‘पिंजरे का तोता’ की संज्ञा दी थी। अब वही हो रहा है। केंद्र सरकार के दो अध्यादेशों में इन एजेंसियों की स्वतंत्रतता को सीमित करने की पूरी क्षमता है।
यह दो अध्यादेश प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशकों की सेवा को कम-से-कम दो साल के निर्धारित कार्यकाल से अधिकतम पाँच साल तक बढ़ाने की अनुमति देते हैं। विस्तार एक बार में केवल एक वर्ष दिया जा सकता है। यानी दो साल के एक निश्चित कार्यकाल के बाद उन्हें तीन साल का विस्तार (एक्सटेंशन) मिल सकता है।
वर्तमान ईडी प्रमुख संजय कुमार मिश्रा, जिनका कार्यकाल 17 नवंबर को समाप्त होना था; नये नियम के तहत एक साल का विस्तार प्राप्त करने वाले पहले अधिकारी बन गये हैं। अध्यादेशों का समय बताता है कि यह क़दम ईडी निदेशक के कार्यकाल को बढ़ाने के लिए था, जिसका कार्यकाल पहले 2020 में एक वर्ष के लिए बढ़ाया गया था।
ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने 8 सितंबर, 2018 के नियुक्ति आदेश में पूर्वव्यापी बदलाव को चुनौती देने वाली याचिका को ख़ारिज कर दिया था। ईडी के निदेशक के रूप में संजय कुमार मिश्रा ने कहा कि चल रही जाँच को पूरा करने की सुविधा के लिए विस्तार की एक उचित अवधि दी जा सकती है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया था कि सेवानिवृत्ति की आयु प्राप्त करने वाले अधिकारियों के कार्यकाल का विस्तार दुर्लभ और असाधारण मामलों में किया जाना चाहिए। अध्यादेश दिल्ली पुलिस विशेष स्थापना अधिनियम में संशोधन करते हैं, जो सीबीआई के लिए मूल क़ानून है और केंद्रीय सतर्कता अधिनियम, जो ईडी निदेशक की नियुक्ति को आवृत्त (कवर) करता है। क़ानून और न्याय मंत्रालय ने घोषणा की कि दो अध्यादेशों- दिल्ली विशेष पुलिस (स्थापना) अध्यादेश-2021 और केंद्रीय सतर्कता आयोग (संशोधन) अध्यादेश-2021 को तत्काल प्रभाव से लागू होंगे।
सीबीआई और ईडी के प्रमुखों के कार्यकाल को मौज़ूदा दो साल के कार्यकाल से पाँच साल तक बढ़ाने की सिफ़ारिश करने के सरकार के फ़ैसले को दो प्रमुख जाँच एजेंसियों की आज़ादी को छीनने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। दिल्ली विशेष पुलिस (स्थापना) अध्यादेश के माध्यम से मंत्रालय ने दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम-1946 में एक संशोधन पेश किया है, जिसमें एक खण्ड जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है- ‘बशर्ते कि जिस अवधि के लिए निदेशक अपनी प्रारम्भिक नियुक्ति पर पद धारण करता है, जनहित में धारा-4(ए) की उप-धारा(1) के तहत समिति की सिफ़ारिश पर और लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों के लिए एक बार में एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। बशर्ते कि ऐसा कोई विस्तार बाद में नहीं दिया जाएगा। कुल मिलाकर प्रारम्भिक नियुक्ति में उल्लिखित अवधि सहित पाँच वर्ष की अवधि पूरी करने तक विस्तार किया जा सकता है।’
सीबीआई निदेशक के विपरीत ईडी के प्रमुख का चयन उस समिति द्वारा नहीं किया जाता है, जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल होते हैं। हालाँकि ईडी निदेशक के कार्यकाल के विस्तार की सिफ़ारिश मुख्य सतर्कता आयुक्त, सतर्कता आयुक्त, गृह सचिव और कार्मिक और प्रशिक्षण और राजस्व विभाग के सचिवों की एक समिति से आती है। ज़ाहिर है सरकार ने एक अध्यादेश के ज़रिये ईडी प्रमुख का कार्यकाल बढ़ाकर इस समिति को दरकिनार कर दिया गया है।
अध्यादेश के पहले से ही सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गयी है, जिसमें केंद्र द्वारा 14 नवंबर को जारी किये गये उन दो अध्यादेशों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गयी है, जिसके तहत सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के निदेशकों का कार्यकाल अब दो साल की अनिवार्य अवधि के बाद तीन साल तक बढ़ाये जाने की पहल की गयी है। याचिका में आरोप लगाया गया कि केंद्रीय सतर्कता आयोग (संशोधन) अध्यादेश और दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान (संशोधन) अध्यादेश संविधान के असंवैधानिक, मनमाना और अधिकारहीन हैं और उन्हें रद्द करने किया जाना चाहिए।
अधिवक्ता एम.एल. शर्मा द्वारा दायर जनहित याचिका में आरोप लगाया गया है कि केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद-123 के तहत अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया है, जो संसद के अवकाश के दौरान राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति से सम्बन्धित है। इसमें कहा गया है कि वर्तमान में सरकार को दो एजेंसियों के प्रमुखों के कार्यकाल को दो साल से अधिकतम पाँच साल तक बढ़ाने की शक्ति देकर दो अध्यादेश इन एजेंसियों की स्वतंत्रता को और कम करने की क्षमता रखते हैं।
तृणमूल कांग्रेस नेता और सांसद मोहुआ मोइत्रा ने भी अध्यादेशों को चुनौती देने वाली एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की है। उधर राकांपा प्रमुख शरद पवार ने कथित तौर पर आरोप लगाया है कि ईडी, सीबीआई और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो का इस्तेमाल विपक्ष को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है। कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला ने भी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) के प्रमुखों के कार्यकाल को दो से पाँच साल तक बढ़ाने के केंद्र सरकार के अध्यादेशों को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय का रूख़ किया है। कांग्रेस नेता ने अध्यादेशों द्वारा संस्थानों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए समय-समय पर जारी न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन करने का आरोप लगाते हुए न्यायालय से अंतरिम राहत की भी माँग करते हुए कहा है कि ऐसे संस्थानों को किसी भी बाहरी विचार से दूर रखा जाता है। उन्होंने कहा कि अध्यादेश अधिकारियों द्वारा सत्ता के स्पष्ट दुरुपयोग का ख़ुलासा करते हैं।
ये अध्यादेश भारत सरकार को ईडी और सीबीआई के निदेशकों के कार्यकाल का एक-एक साल का टुकडा़-टुकड़ा विस्तार प्रदान करने का अधिकार देते हैं और यह उनकी क़ानून में प्रदान की गयी निश्चित शर्तों के समापन के बाद शुरू होता है। अध्यादेशों के ख़िलाफ़ याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि कोई मानदण्ड प्रदान नहीं किया गया है और यह सार्वजनिक हित के अस्पष्ट सन्दर्भ को छोडक़र और वास्तव में उत्तरदाताओं की व्यक्तिपरक सन्तुष्टि पर आधारित है। इसका प्रत्यक्ष और स्पष्ट प्रभाव जाँच करने वाले निकायों की स्वतंत्रता को नष्ट करने का है; क्योंकि यह प्रत्येक वर्ष नियुक्ति प्राधिकारी की व्यक्तिपरक सन्तुष्टि के आधार पर एजेंसी प्रमुखों की निर्भरता को बढ़ाने का प्रभाव है। याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि अध्यादेश पूरी तरह से सुरक्षा उपायों को पूर्ववत् करते हैं, जो कार्यकाल की स्थिरता सुनिश्चित करते हैं और अधिकारी को कार्यपालिका की दया पर निर्भर कर देते हैं। सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि दोनों अध्यादेश इन जाँच एजेंसियों के निदेशकों पर केंद्रीय नियंत्रण को मज़बूत करने के लिए ग़लत तरीक़े से छिपाये गये प्रयास हैं। इन जाँच एजेंसियों को जनता की सेवा के लिए बनाया गया था; लेकिन इन संशोधनों के साथ कार्यपालिका की इच्छा को पूरा करने के लिए उन्हें स्पष्ट और दुर्भावनापूर्ण तरीक़े से अधीनस्थ किया जा रहा है।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह मुद्दा एक बड़े विवाद में बदल सकता है और विपक्ष द्वारा संसद सत्र शुरू होने से कुछ दिन पहले जिस तरह से अध्यादेश लाये गये, उसके लिए सरकार पर निशाना साधा जाना स्वाभाविक है। आलोचकों को डराने के लिए उनके दुरुपयोग के आरोपों के साथ केंद्रीय जाँच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पहले से ही सवालों के घेरे में आ गयी है।