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बीती 14 फरवरी को दो खबरें एक साथ आईं. पहली यह थी कि भारत में अमेरिका की राजदूत नैंसी पॉवेल ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की है. दूसरी खबर एक सर्वे की थी. इंडिया टीवी, टाइम्स नाउ और सी वोटर द्वारा करवाए गए इस सर्वे में कहा गया था कि मौजूदा हालात को देखते हुए अगले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के खाते में अब तक की सबसे ज्यादा सीटें जाएंगी. सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, भाजपा को 543 लोकसभा सीटों में से अपने दम पर 202 सीटें मिलने की उम्मीद है और उसके सहयोगियों को 25 सीटें मिल सकती हंै. यानी कुल मिलाकर राजग को 227 सीटें मिलने का अनुमान है.
पहली घटना के बाद माना जा रहा है कि अगले आम चुनाव में मोदी की जीत की संभावना को ध्यान में रखते हुए अमरीका ने बातचीत की पहल की है. इससे पहले ब्रिटेश के उप विदेश मंत्री और भारत में ब्रिटेन के राजदूत भी मोदी से मिल चुके हैं. सर्वे के नतीजों के बाद मोदी की अगुवाई में चुनावी समर में जा रही भाजपा भी उत्साहित है.
2014 का लोकसभा चुनाव जिस एक व्यक्ति पर सबसे ज्यादा केंद्रित है, वे हैं भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी. मोदी न सिर्फ पार्टी में तमाम तरह के आंतरिक संघर्षों से लड़ते-भिड़ते हुए खुद को पार्टी का पीएम प्रत्याशी बनवा पाने में सफल हुए बल्कि बेहद अन्य राजनीतिक दलों से काफी पहले ही उन्होंने अपने आक्रामक चुनावी अभियान की शुरुआत भी कर दी. पिछले डेढ़ दशक में भारत के सर्वाधिक विवादित राजनेता रहे मोदी ने पूरे देश में अब तक कई दर्जन चुनावी सभाएं की हैं. अपनी सभाओं में वे विकास के अपने गुजरात मॉडल की खूब तारीफ तो करते ही हैं, कुछ वैसा ही राष्ट्रीय स्तर पर दुहराने की भी बात करते हैं. सभाओं में वे जनता से कांग्रेस के 60 साल के शासन की तुलना में उन्हें 60 महीने देने की मांग करते हैं. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद अगले पांच साल में देश की तस्वीर और तकदीर बदलने का दम भर रहे हैं. ऐसे में मोदी अगर किसी तरह प्रधानमंत्री बन पाने में सफल हो जाएं तो देश की तस्वीर कैसी हो सकती है? कैसा हो सकता है वह भारत जिसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे? उनके आने के बाद देश और समाज के विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों पर किस तरह के बदलाव और प्रभाव दिखाई दे सकते हैं? एक-एक करके समझने की कोशिश करते हैं.
मुस्लिम समाज
अगर मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो क्या वे मुस्लिम समुदाय के लिए पहले की तुलना में कुछ अलग होंगे? क्या 2002 के दंगे ने मोदी और मुसलमानों के बीच जिस अविश्वास को जन्म दिया वह कम होगा या बढ़ेगा? वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई सहित अन्य जानकारों का एक वर्ग है जो मानता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी की तरफ से पूरे देश और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को यह दिखाने का प्रयास होगा कि वे किसी वर्ग, धर्म या संप्रदाय के खिलाफ नहीं हैं.
इसके प्रमाण मोदी की रैलियों में दिए उनके भाषणों से भी मिलने लगे हैं जिनमें वे अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में शामिल करने की बात करते हैं, मौकों के अभाव में उनके रोजगार और शिक्षा में पिछड़े होने की बात करते हैं. उधर, पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चे को जिम्मेदारी दी गई है कि मोदी जिस भी रैली में जाएं वहां ज्यादा से ज्यादा तादाद में मुस्लिम महिलाएं और पुरुष अपने पारंपरिक परिधान में मौजूद हों. कई जगहों पर मोर्चे ने रैली में आने के लिए अपने मुस्लिम सदस्यों के लिए ड्रेस कोड तय किया. यानी महिलाएं बुर्के में आएंगी और पुरुष कुर्ता पाजामा और टोपी पहनकर.पार्टी इस बीच लगातार यह दिखाने का प्रयास कर रही है कि वह कैसे मुस्लिम समाज के खिलाफ नहीं है. जानकारों का एक वर्ग मानता है कि मुसलमानों को लेकर उपजा मोदी का यह प्रेम सत्ता पाने की उनकी बेताबी से उपजा है. नहीं तो क्या कारण है कि जो मुख्यमंत्री अपने प्रदेश की नौ फीसदी जनता के मताधिकार और उनके राजनीतिक अस्तित्व का यह कहकर मजाक उड़ाता रहा हो कि उसे मुसलमानों का वोट नहीं चाहिए, वह मुसलमानों को अपनी रैलियों में लाने के लिए, उनका विरोधी न दिखने के लिए तमाम तिकड़म अपना रहा है. जानकार मानते हैं कि मोदी को अहसास हो गया है कि सात रेसकोर्स का सफर कई गलियों से होकर गुजरता है और इनमें कुछ गलियां उन मुसलमानों की भी हैं जिनके अस्तित्व को वे आज तक गुजरात में नकारते आए हैं.
हालांकि माना जाता है कि मोदी के इस मुस्लिम प्रेम की भी अपनी एक निश्चित सीमा है. उनके लिए जितना ज्यादा जरूरी यह दिखाना है कि वे मुस्लिम विरोधी नहीं हैं उतना ही जरूरी यह दर्शाते रहना भी है कि वे मुसलमानों से कोई विशेष प्रेम नहीं करने जा रहे हैं. जानकार बताते हैं कि आज नरेंद्र मोदी का जो समर्थक वर्ग है उसका एक बड़ा हिस्सा उनकी मुस्लिम विरोधी छवि के कारण ही उनसे जुड़ा है. ऐसे में मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद किसी भी कीमत पर अपने इस वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहेंगे. इस तरह वे मुसलमानों से खुद को जोड़ते हुए तो दिखेंगे लेकिन समुदाय की बेहतरी के लिए वे कुछ खास करेंगे नहीं.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘ मोदी अगर प्रधानमंत्री बनते हैं तो वे यह दिखाने की कोशिश जरूर करेंगे कि वे मुस्लिम विरोधी नहीं हैं. लेकिन इसके साथ ही वे समाज में हस्तक्षेप करने की कोशिश भी करेंगे. जैसे शेरवानी, टोपी और बुर्का मत पहनो, उर्दू मत बोलो आदि-आदि. यह सब आधुनिक बनाने के नाम पर किया जाएगा. कुल मिलाकर आप उनके राज में रह तो सकते हैं लेकिन आपके ऊपर नियंत्रण करने की कोशिश जारी रहेगी.’ बात आगे बढ़ाते हुए जनसत्ता के संपादक ओम थानवी कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मोदी की अल्पसंख्यकों के प्रति सोच में बदलाव की संभावना नहीं है क्योंकि वे जिस संघ से आते हैं उसकी सोच में बदलाव की सूरत दिखाई नहीं देती.’
सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार मानते हैं कि मुस्लिम समुदाय ही नहीं, समाज के अन्य पिछड़े और शोषित वर्गों को भी मोदी से कोई खास उम्मीद नहीं करनी चाहिए. वे कहते हैं, ‘जिस तरह से गुजरात में संसाधनों की लूट हुई है, उन्हें लूट कर बडे़ पूंजीपतियों को सौंप दिया गया है, उसे देखते हुए अगर मोदी कल को प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो यह डर है कि संसाधनों की भयंकर पैमाने पर लूट होगी. इससे भयंकर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हिंसा उपजेगी. समस्याएं पैदा होंगी जो लंबे समय तक इस पूरे भूभाग को अस्थिर करेंगी. मोदी का प्रधानमंत्री बनना इस भूभाग के लिए एक बड़ी दुर्घटना साबित होगी.’
भारतीय राजनीति
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय राजनीति और राजनीतिक संस्कृति में आमूलचूल परिवर्तन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. इस परिवर्तन के कुछ लक्षण अभी से दिखाई देने लगे हैं.
यह मोदी के व्यक्तित्व की ध्रुवीकरण क्षमता का ही प्रभाव है कि वर्तमान चुनाव काफी तक सांप्रदायिकता बनाम गैरसांप्रदायिकता के खांचे में सीमित हो गया है. हालांकि इसमें बीच-बीच में विकास, रोजगार आदि की बातें भी होती हंै, लेकिन वे कम्युनल सेक्युलर की लड़ाई पर कभी भारी पड़ती नहीं दिखतीं. विभिन्न विरोधी पार्टियों के राजनीतिक व्यवहार को देखें तो लगता है जैसे उन्होंने तय कर लिया है कि वे मोदी से किसी और मसले पर नहीं बल्कि सांप्रदायिकता के मसले पर ही भिड़ना चाहती हैं. क्या कांग्रेस, सपा, बसपा और क्या वाम दल, सभी के तरकश में मोदी से निपटने के लिए एक ही तीर है–सांप्रदायिकता का. कुल मुलाकर यह चुनाव ‘तुम सांप्रदायिक, हम धर्मनिरपेक्ष’ के आधार पर लड़े जाने की संभावना दिखती है. जानकारों के मुताबिक ऐसे में मोदी प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो यह लड़ाई आगे भी चलेगी. अर्थात सांप्रदायिकता के मुद्दे पर भारतीय राजनीति का ध्रुवीकरण तय है.
इसका प्रभाव उस राजनीतिक संस्कृति पर भी पड़ेगा जिसके तहत तमाम मतभेदों के बावजूद राजनीतिक दल एक दूसरे को लेकर सामान्य तौर पर मेलजोल की संस्कृति चलाते आए हैं. किदवई कहते हैं, ‘मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजनीतिक दलों के बीच गुप्त समझौते की संस्कृति में कमी आएगी. एक-दूसरे की दुखती रग पर हाथ न रखने यानी सेटिंग की राजनीति प्रभावित होगी. हम रंजन भट्टाचार्य को नहीं छुएंगे, तुम वाड्रा को हाथ न लगाओ जैसी चीजें लगभग खत्म हो जाएंगी.’
हालांकि मोदी को राजनीतिक तौर पर अशिष्ट मानने वाला एक तबका मानता है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद के देश की राजनीतिक संस्कृति में गिरावट आएगी. न सिर्फ ध्रुवीकरण बढ़ेगा बल्कि राजनीतिक शिष्टाचार की जो परंपरा पिछले 65 साल में विकसित हुई है उसके अवसान की भी आशंका है जो अंततः लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं होगा.
भाजपा
मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा का स्वरुप क्या होगा, इस प्रश्न का जवाब काफी कुछ उस पूरी प्रक्रिया और समय में पीछे जाने से मिल सकता है जिससे गुजरते हुए मोदी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने हैं. कैसे वे पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व पर दबाव बना पाने में सफल रहे, कैसे लौहपुरुष और पार्टी के पितृपुरुष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी की अनिच्छा के बावजूद पार्टी ने पहले उन्हें चुनाव अभियान की कमान सौंपी और कुछ समय बाद ही उन्हें 2014 में भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया.
आज पूरी पार्टी मोदीमय है. कुछ स्वेच्छा से तो कुछ विकल्पहीनता के कारण. आडवाणी युग लगभग चलाचली की बेला में है. और दिल्ली की राजनीति करने वाले सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह जैसे नेता मोदी का सारथी बनने में ही फिलहाल गर्व प्रकट कर रहे हैं. विश्लेषकों के मुताबिक जमीनी ताकत के अभाव में उन्हें लगता है कि हवा का रुख भांपते हुए हर-हर मोदी, घर-घर मोदी का नारा लगाना ही विकल्प है.
जाहिर सी बात है जब चुनाव से पहले यह स्थिति है तो मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने की सूरत में अन्य नेता जूनियर पार्टनर की स्थिति में ही होंगे. जानकारों के मुताबिक जैसा मोदी का व्यक्तित्व और काम करने का तरीका है और जिस तरह से उन्होंने गुजरात में शासन किया है उससे तो यही लगता है. किदवई कहते हैं, ‘देखना दिलचस्प होगा कि मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद केंद्रीय नेताओं के साथ क्या सलूक करते हंै. वे आई, मी और माइसेल्फ की मानसिकता वाले व्यक्ति हैं. ऐसे में पूरी संभावना है कि वे पीएम बनने के बाद दिल्ली में कोई दूसरा पावर सेंटर न उभरने दें.’ किदवई के मुताबिक मोदी ने गुजरात में पार्टी और सरकार को जिस तरह से चलाया है उससे यह संभावना मजबूत होती है कि पीएम बनने के बाद मोदी का यह प्रयास होगा कि सरकार से लेकर पार्टी की पूरी सत्ता उनके हाथों में केंद्रित हो. उनके इतर कोई दूसरा सत्ता केंद्र न पार्टी में हो और न सरकार में.
गुजरात में मोदी द्वारा केशुभाई पटेल से लेकर संजय जोशी समेत अन्य कई नेताओं को राजनीतिक तौर पर निपटाने के किस्से सत्ता के गलियारों में तैरते रहे हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘आशंका है कि नरेंद्र भाई सर्वेसर्वा बनने की कोशिश करें. लेकिन मेरा अपना मानना है कि गुजरात में जो हुआ वैसा ही दिल्ली की राजनीति में होना आसान नहीं है.’
राजनीतिक विश्लेषकों का एक वर्ग भी मानता है कि मोदी ने भाजपा की केंद्रीय राजनीति और नेतृत्व को अपने हिसाब से जरुर ढाल दिया है, लेकिन उनकी असली चुनौती शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह जैसे भाजपा के वे मुख्यमंत्री होने वाले हैं जो जीत-हार की चुनावी राजनीति में उनसे कुछ ही कदम पीछे हैं. राजनीतिक प्रेक्षकों का आकलन है कि अगर ये मुख्यमंत्री इसी तरह मजबूत होते गए तो निश्चित तौर पर भाजपा के भविष्य निर्धारण में न सिर्फ उनकी एक महती भूमिका होगी वरन वे प्रधानमंत्री मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होंगे.
संघ
अपने स्वयंसेवक को पीएम पद का दावेदार देखकर संघ खुश भी है, नाराज भी और सशंकित भी. खुश इसलिए कि उसकी शाखाओं में खेल-कूद कर बड़ा हुआउसका एक प्रचारक हिंदुस्तान-जिसे संघ हिंदुस्थान कहता है-का प्रधानमंत्री बनने की दहलीज पर खड़ा दिखता है. नाराज इसलिए कि कैसे उसे बेहद दबाव में लाकर मोदी ने उससे अपने नाम की मोहर लगवा ली जबकि वह तो किसी के दबाव में आने वाला संगठन है ही नहीं. आशंका इसलिए कि उसके पास मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल काल में गुजरात में संघ से जुड़े संगठनों के बर्बाद होने का उदाहरण है. यह वजह है कि संघ मोदी के के पीएम बनने के बाद की स्थितियों को लेकर सशंकित है.
नरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने पर संघ और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन बेहद खुश थे. उन्हें लगा कि वे प्रदेश में अपनी विचारधारा और कार्यक्रम को बिना किसी रोक-टोक के आगे बढ़ा सकते हैं. लेकिन उनका यह ख्वाब उनका अपना स्वयंसेवक ही तोड़ देगा इसका उन्हें भान नहीं था. लंबे समय तक विहिप के लिए काम करने वाले और पिछले विधानसभा चुनाव में केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी से जुड़े रहे एक स्वयंसेवक बताते हैं, ‘किसी भी सामाजिक संगठन की समाज में पहचान तब बनती है जब लोगों को यह लगता है कि इस संगठन की बात सुनी जाती है. अगर हम कहीं कोई विरोध प्रदर्शन करते थे तो वहां कानून-व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर जो पुलिसवाले हम पर लाठी चलाते थे उन पर मोदी की सरकार कोई कार्रवाई ही नहीं करती थी. अगर हम लोगों की कोई वाजिब शिकायत लेकर किसी प्रशासनिक अधिकारी के पास पहुंचते थे तो वहां हमारी बात नहीं सुनी जाती थी. इससे लोगों को धीरे-धीरे यह लगने लगा कि विश्व हिंदू परिषद की बात तो यहां कोई सुनने ही वाला नहीं है. बस लोग हमसे कटते गए. आज हालत यह है कि गुजरात में न सिर्फ संघ और विश्व हिंदू परिषद बल्कि संघ के सभी आनुषंगिक संगठनों की हालत खस्ता है.’ 2008 में मोदी सरकार के उस निर्णय से भी संघ बेहद खफा हुआ जब राजधानी गांधीनगर में अवैध कब्जे के खिलाफ चले अभियान के तहत सरकार ने 80 के करीब छोड़े-बड़े मंदिरों को तुड़वा दिया.
यही कारण है कि संघ का एक धड़ा मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने के सख्त खिलाफ था. उसने ऐसा न हो, इसके लिए पूरी ताकत लगा दी थी. लेकिन मोदी के पक्ष में माहौल कुछ ऐसा बना कि इस धड़े को अपने पांव पीछे खींचने पड़े. मोदी के विरोधी रहे संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘संघ में इस बात को लेकर एक राय नहीं थी कि मोदी को पीएम प्रत्याशी बनाया जाए. गुजरात में जो आदमी संघ को बर्बाद कर चुका है उसके हाथों में कमान देकर संघ ने खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है. प्रधानमंत्री बनने के बाद आप देखेंगे कि ये सेक्यूलर बनने के चक्कर में और सारी सत्ता अपने हाथों में रखने के लिए–जैसा कि इन महाशय का तरीका है–संघ के प्रभाव को तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. इनके नेचर में है ये.’
हालांकि सब ऐसा नहीं मानते. मोदी के समर्थक माने जाने वाले और पांचजन्य के पूर्व संपादक बलदेव शर्मा कहते हैं, ‘मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी संघ पर कोई असर नहीं पड़ेगा. संघ एक पद्धति है. ऐसी छवि बना दी गई है कि संघ मोदी से डरता है. लोग ये जान लें कि संघ मोदी से नहीं डरता.’
केंद्र-राज्य संबंध
मोदी को लेकर जिस तरह विभिन्न राजनीतिक दल आक्रामक रवैया अख्तियार किए हुए हैं उससे इस बात की झलक मिलती है कि केंद्र में अगर मोदी के नेतृत्व में सरकार बनती है तो राज्य सरकारों और केंद्र के बीच किस तरह के संबंध होंगे.
राजनीतिक पंडितों के एक तबके का ऐसा आकलन है कि ठीक-ठाक बहुमत के साथ अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो ऐसी स्थिति में उनका राज्य सरकारों से टकराव होने की पूरी संभावना है. ऐसा सोचने के पीछे इतिहास भी एक आधार है. राजनीतिक विरोधी होने पर विभिन्न राज्य सरकारें केंद्र पर सौतेला व्यवहार करने और राज्य के विकास को बाधित करने का आरोप लगाती हंै तो वहीं केंद्र भी राज्य सरकारों को अपने राजनीतिक गुणा-गणित के आधार पर फंड और सहूलियतें देता है. ऐसे में मोदी इससे उलट कुछ करेंगे ऐसा सोचने के लिए कोई खास आधार नहीं. हां, जिस अनुपात में विभिन्न दलों द्वारा शासित राज्य सरकारों के नेता मोदी के प्रति राजनीतिक कटुता का प्रदर्शन कर रहे हैं वह बताने के लिए काफी है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद अन्य दलों द्वारा शासित राज्य सरकारों से मोदी का कैसा टकराव हो सकता है.
किदवई कहते हैं, ‘केंद्रीय सरकार की प्रवृत्ति में यह होता है कि वह देश का कंट्रोल अपने पास चाहती है. ऊपर से जिस केंद्र सरकार के केंद्र में मोदी हों जिनका व्यक्तित्व ही सत्ता को खुद तक केंद्रित रखना है तो मुठभेड़ होना लाजिमी है.’
हालांकि राजनीतिक टिप्पणीकारों का एक समूह इसे दूसरे नजरिए से देखता है. उसका मानना है कि केंद्र में आने के बाद देश एक नये नरेंद्र मोदी को देख सकता है. वे मानते हैं कि केंद्र में सत्ता में आने के बाद मोदी की कार्यप्रणाली में बड़ी तब्दीली आएगी.गुजरात के उलट वे सबको साथ लेकर चलने की कोशिश करेंगे और राज्य सरकारों के साथ किसी तरह के संघर्ष से बचेंगे. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान कहते हैं, ‘राज्य से केंद्र में आने के बाद व्यक्ति के नजरिये में फर्क आ जाता है. जो व्यक्ति केंद्र में बैठता है उसे संतुलन बनाना ही पड़ता है. मोदी भी राज्य सरकारों के साथ संघर्ष छोड़ संतुलन स्थापित करने की कोशिश करेंगे.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘कोई भी राज्य सरकार केंद्र की मदद और सहयोग के बगैर नहीं चल सकती. ठीक उसी तरह से केंद्र की सरकार राज्य सरकार के सहयोग के बिना ठीक से काम नहीं कर सकती. दोनों को एक दूसरे की जरुरत है.’
कश्मीर एवं अन्य तनावग्रस्त क्षेत्र
क्या नरेंद्र मोदी ने अभी तक की अपनी राजनीतिक-प्रशासनिक यात्रा से भारत की आंतरिक चुनौतियों से निपटने का कोई रोड मैप सुझाया है ? क्या उनके पास भारत की आंतरिक चुनौतियों जिन्हें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हैं, उनसे निपटने की कोई दृष्टि है. अगर देश की कमान उनके हाथ आती है तो वे इन चुनौतियों से कैसे निपट सकते हैं ?
दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में नेल्सन मंडेला सेंटर फॉर पीस एंड कॉनफ्लिक्ट रेजोल्यूशन में प्रोफेसर तनवीर फजल कहते हैं, ‘मोदी एफिशिएंट स्टेट की बात करते हैं. ऐसी व्यवस्था अक्सर सेना और पुलिस केंद्रित होती है. नौकरशाही वहां जरूरत से अधिक ताकतवर होती है. सबसे बड़ी बात यह कि ऐसे राज्य में राजनीतिक प्रक्रियाओं को गैर जरूरी बताते हुए उन्हें खारिज किया जाता है. अब ऐसी व्यवस्था मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद ले आएंगे तो समस्याएं और संघर्ष सुलझने की बजाय बढ़ेंगे.’
कई जानकार मानते हैं कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पुलिस, सेना तथा अन्य सुरक्षा एजेंसियों को खुली छूट होगी. उनकी सरकार पोटा जैसे और बर्बर कानून लेकर आएगी. मानवाधिकारों का और अधिक हनन होगा, लेकिन इससे देश की समस्याएं कम होने के बजाय और बढ़ेंगी. ठीक वैसे ही जैसे भाजपा की अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के समय हुआ था.
तनवीर फजल कहते हैं, ‘भाजपा मोदी के नेतृत्व में क्या करने वाली है इसकी झलक इस बात से ही मिलती है कि उसके नेता मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अर्बन गुरिल्ला कहते हैं यानी नक्सलियों या माओवादियों के शहरी समर्थक और कार्यकर्ता. अब ऐसे में ये सरकार बनाते हैं तो तय है कि बिनायक सेन जैसे सैकड़ों लोगों को ये लोग जेल में ठूंस देंगे.’
हालांकि इसके उलट राय रखने वाला भी एक तबका है. वह मोदी के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में आंतरिक संघर्षों समेत कश्मीर जैसे विवादों के हल होने की संभावना भी जताता है. कुछ ऐसे ही लोगों की बात कश्मीर स्थित पार्टी पीडीपी की नेता और कश्मीर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष महबूबा मुफ्ती करती हैं. कुछ समय पहले एक अखबार को दिए साक्षात्कार में उनका कहना था, ‘जम्मू कश्मीर में एक तबका ऐसा है, जो ये मानता है कि मोदी में निर्णय लेने की क्षमता है और वे कश्मीर मसले का कोई सकारात्मक हल निकाल सकते हैं.’
इस पर तनवीर फजल कहते हैं, ‘पूरे विश्व का उदाहरण हमारे सामने है. जहां-जहां कोई एग्रेसिव स्टेट रहा है वहां समस्याओं के हल होने की संभावना और कम हुई है.’ वे आगे कहते हैं, ‘संघर्ष को हल करने के लिए राज्य का दिल बड़ा होना चाहिए. लेकिन मोदी के मामले में ऐसा नहीं है. ऐसे में भारत की आंतरिक चुनौतियां सुलझने के बजाय और बढ़ती और उलझती जाएंगी.’
देश का विकास
नरेंद्र मोदी हर सभा में गुजरात के विकास का हवाला देना नहीं भूलते. गुजरात उनके नेतृत्व में कैसे आगे बढ़ा है, इसको लेकर हर रैली में उनके पास कोई न कोई कहानी होती है. गुजरात के विकास को ही वे पूरे भारत में भुनाते हुए दिखाई देते हैं. कुछ इस तर्ज पर कि जिस तरह से उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री गुजरात का विकास किया है, उसी तरह से वे प्रधानमंत्री बनने पर पूरे देश का विकास कर देंगे.
लेकिन विकास का गुजरात मॉडल आखिर है क्या? अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला मोदी की आर्थिक सोच और उनके मॉडल की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘मोदी अर्थशास्त्र के ट्रिकल डाउन थ्योरी में विश्वास करते हैं. यही उनका मॉडल है.’ यानी आर्थिक विकास से ऊंचे तबके को होने वाले मुनाफे का फायदा एक न एक दिन निचले तबके तक भी अपने आप पहुंच जाएगा.
माना जाना चाहिए कि इस थ्योरी ने उस गुजरात में अपना असर जरूर दिखाया होगा जो पिछले कई दशकों से विकास के पूंजीवादी मॉडल पर काम कर रहा है, जहां नरेंद्र मोदी पिछले 15 साल से लगातार इसी मॉडल के आधार पर राज्य का विकास करने के काम में लगे हैं.
गुजरात में आर्थिक वृद्धि के कई प्रमाण दिखाई देते हैं. सड़कें, बिजली, फैक्ट्रियां और कारखाने तो जैसे दिन दोगुनी रात चौगुनी जैसी रफ्तार से बढ़े हैं. इनमें दिन-रात उत्पादन हो रहा है. लेकिन जैसे ही आप राज्य में हाड़-मांस के लोगों की स्थिति अर्थात मानव विकास को जानने की कोशिश करते हैं इस मॉडल का खोखलापन सामने आ जाता है. पता चलता है कि कैसे राज्य में हो रही आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों का वहां पैदा होने वाले बच्चों की जीवन वृद्धि से कोई लेना-देना नहीं है. दिन-रात उत्पादन में लगे कारखाने राज्य के 46 फीसदी बच्चों के लिए न्यूनतम पोषण भी पैदा नहीं कर पा रहे हैं. विकास के लिए 56 इंच का सीना होने की बात कहने वाले मोदी के गुजरात में पांच साल से कम उम्र के 46 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. 70 फीसदी बच्चों में खून की कमी है. 15 से 45 वर्ष की 55 फीसदी महिलाओं में खून की कमी है. राज्य की 22 फीसदी आबादी को पर्याप्त भोजन ही नहीं मिल रहा. ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट के मुताबिक तो भुखमरी के शिकार राज्यों में गुजरात का 13 वां नंबर है. यहां तक कि उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, बंगाल और असम भी उससे ऊपर हैं. कृषि विकास में राज्य देश में आठवें स्थान पर है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संस्थान (एनएसएसओ) के आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में पिछले 12 साल में रोजगार वृद्धि लगभग न के बराबर रही है. एनएसएसओ की 2011 की सर्वे रिपोर्ट कहती है, ‘गुजरात का आर्थिक विकास मूलभूत मानव विकास सूचकांकों को ताक पर रख कर हो रहा है.’ एनएसएसओ के मुताबिक, गुजरात के शहरी इलाकों में दिहाड़ी मजदूरी की दर 106 रुपये है. जबकि केरल में यह 218 रुपये है. इसी तरह (मनरेगा छोड़कर) गुजरात के ग्रामीण इलाकों में दिहाड़ी मजदूरी की दर 83 रुपये है और इस लिहाज से राज्य देश भर में 12वें स्थान पर है. पहले नंबर पर पंजाब है जहां दिहाड़ी 152 रुपये है. प्रति व्यक्ति आय में गुजरात का स्थान 11वां है.
मोदी के कार्यकाल में (2001-13) में राज्य पर लदा कर्ज करीब चार गुना बढ़ गया. जो कर्ज 2001 में 42,780 करोड़ था, वह 2013 में एक लाख 76 हजार 490 करोड़ हो गया. गुजरात में प्रति व्यक्ति ऋण पहले से ही पूरे देश में सबसे ज्यादा है. अगले तीन सालों में उसमें 46 फीसदी से ज्यादा वृद््धि की संभावना है. यूएनडीपी के अनुसार गुजरात में स्कूल ड्रॉप आउट रेट 58 फीसदी है. यानी 100 में से 58 बच्चे हाईस्कूल में पहुंचने के पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं. यह राष्ट्रीय अनुपात से भी ज्यादा है. हाल ही में यूनीसेफ ने अपनी एक रिपोर्ट में इशारा किया कि कैसे राज्य सरकार सरकारी स्कूली शिक्षा को सुधारने के बजाय प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा दे रही है. जिससे कमजोर तबके के बच्चे ऊंची शिक्षा तक पहुंच ही नहीं पा रहे हैं. सारा जोर निजीकरण की तरफ है. यह शिक्षा इतनी महंगी है कि आम आदमी की पहुंच से बाहर है.
2010 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट ने बताया कि कैसे बाल विवाह की सर्वाधिक घटनाएं गुजरात में हुई हैं. देवालय से पहले शौचालय का नारा देने वाले मोदी के गुजरात में 2011 की जनगणना के मुताबिक 43 फीसदी घरों में शौचालय नहीं हंै. ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालत और भी खराब है जहां 67 फीसदी घरों में यह सुविधा नहीं है.
2013 में वर्तमान रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की अध्यक्षता में बनी एक कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में विकास के मामले में गुजरात को पूरे देश में 12 वें स्थान पर रखा. कमेटी ने सभी राज्यों का कुल 10 मानदंडों के आधार पर अध्ययन किया था. इनमेंें प्रति व्यक्ति व्यय, शिक्षा, स्वास्थ्य, घरेलू सुविधाएं, गरीबी दर, महिला साक्षरता, दलित और आदिवासी समुदाय का प्रतिशत, शहरीकरण, वित्तीय समावेश, और कनेक्टिविटी आदि शामिल थे.
गुजरात के कई इलाकों से भयंकर सूखे की खबरें आती रहती हैं. मोदी अपने भाषणों में पूरे राज्य में पानी के पाइपों का जाल बिछाने की बात करते हैं. लेकिन पिछले ही साल राज्य के सौराष्ट्र और कच्छ इलाके को मिलाकर लगभग आधे गुजरात में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ था. कई इलाकों से ऐसी खबरें आईं जहां लोगों के पास पीने तक के लिए पानी नहीं था.
तो यह है गुजरात के विकास की चमचमाती तस्वीर जहां मानव विकास के आईने में राज्य के नागरिकों का अस्थिपंजर दिखाई दे रहा है. लेकिन इसके बावजूद मोदी मगन हैं. अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए साक्षात्कार में राज्य में कुपोषण के सवाल पर वे कहते हैं, ‘गुजरात में कुपोषण इसलिए है क्योंकि गुजराती मुख्य रूप से शाकाहारी हैं. दूसरी बात ये कि गुजरात मध्यवर्ग के लोगों का राज्य भी है. मध्यवर्गीय महिलाएं स्वास्थ्य की अपेक्षा अपने सौंदर्य के प्रति अधिक चिंतित रहती हैं. यदि एक मां अपनी बेटी को दूध पीने के लिए कहती है तो वह झगड़ने लगती है. वह मां से कहती है कि दूध लेने से मैं मोटी हो जाऊंगी.’
इसी सोच और अपने गुजरात के विकास मॉडल को मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद पूरे देश पर लागू करना चाहते हैं. देश के विकास के लिए वे ऐसी ही दृष्टि, मॉडल और रोडमैप की जरूरत बताते हैं.
झुनझुनवाला कहते हैं, ‘देखिए मोदी की इस बात के लिए तारीफ होनी चाहिए कि वे एक अच्छे प्रशासक हैं. तीन दिन के अंदर देश ने देखा कि कैसे मोदी बंगाल से नैनो को लेकर गुजरात चले आए. लेकिन दिक्कत यह है कि उनका जो विकास मॉडल है उसमें निवेश तो होगा, आर्थिक वृद्धि भी होगी लेकिन उसमें आम आदमी की कोई जगह नहीं होगी. देश आर्थिक तौर पर विकास करेगा लेकिन उस विकास यात्रा में आम आदमी कहीं पीछे छूट जाएगा.’
गुजरात वह राज्य है जो पहले से ही विकसित माना जाता है. कई अर्थशास्त्री आशंका जताते हैं कि मोदी के विकास मॉडल ने जब वहां मानव विकास के पैमाने पर इतनी गड़बड़ी मचा दी तो पूरे देश में उसे लागू करने पर क्या होगा. देश में तमाम ऐसे इलाके हंै जो सालों से भीषण गरीबी, कुपोषण और मानव विकास के विभिन्न पैमानों पर बेहद पिछड़े हैं. प्रधानमंत्री बनने पर मोदी अगर गुजरात का मॉडल देश में लागू करने लगे तो क्या कोहराम मचेगा? आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रितिका खेड़ा कहती हैं, ‘मैं गुजरात से आती हूं. गुजरात में जो आर्थिक विकास हुआ है उसमें मोदी की कोई भूमिका नहीं है क्योंकि यह विकास कोई मोदी के कार्यकाल में नहीं हुआ है. मोदी के आने से दशकों पहले से गुजरात आर्थिक तौर पर विकसित रहा है. हां, मोदी के कार्यकाल में यह जरूर हुआ है कि जो गुजरात मानव विकास के पैमानों पर बहुत अच्छा था वह नीचे गया है. पिछले 10-15 साल में मानव विकास में राज्य की स्थिति काफी खराब हुई है.’
ओम थानवी कहते हैं, ‘अर्थव्यवस्था को लेकर मोदी की कोई समझ हमारे सामने स्पष्ट नहीं है. एक राज्य को चलाना और देश को चलाना दो अलग अलग चीजें हैं. उन्हें समझना होगा कि देश गुजरात नहीं है. ऐसे में मोदी के अब तक के भाषणों से स्पष्ट नहीं है कि वे किस तरह देश चलाएंगे.’मोदी के आर्थिक मॉडल की आलोचना नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन भी करते हैं. कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि गुजरात में स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति ठीक नहीं है. इस दिशा में वहां बहुत काम करने की जरुरत है.
अंतरराष्ट्रीय संबंध
मोदी अगर प्रधानमंत्री बनते हैं तो विदेश संबंध भी एक बड़ा ऐसा क्षेत्र होगा जिस पर सभी की निगाहें होंगी. सामान्य परिस्थितियों में प्रायः अंतरराष्ट्रीय संबंध काफी हद तक ऑटो मोड में होते हैं अर्थात सरकार बदलने के साथ दूसरे देशों के साथ संबंधों में कोई खास परिवर्तन नहीं आता. देश के प्रधानमंत्री एक के बाद एक बदलते रहते हैं और थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ विश्व बिरादरी से संबंध पुरानी लीक के आसपास चलता रहता है. लेकिन जानकारों का मानना है कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो फिर इस क्षेत्र में बड़े बदलावों से इंकार नहीं किया जा सकता.
सबसे बड़ा मामला तो अमेरिका का है. 2002 में हुए गुजरात दंगे के बाद अमेरिका ने न सिर्फ मोदी की जमकर आलोचना की बल्कि उन्हें मानवता विरोधी ठहराते हुए उनके अमेरिका में प्रवेश करने पर पाबंदी लगा दी. अमेरिका की इस पाबंदी को आज लगभग 12 साल हो गए. जिस बीच न मोदी ने अमेरिकी वीजा के लिए अर्जी दी और न ही अमेरिका मोदी को लेकर अपने रुख में कोई नरमी लाया. बीते दिनों पावेल ने मोदी से मुलाकात तो की लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने साफ भी कर दिया कि उसके राजदूत की मुलाकात का वीजा नीति पर कोई असर नहीं होगा. ऐसे में मोदी अगर प्रधानमंत्री बनते हैं तो एक बड़ा सवाल यह होगा कि क्या भारत के प्रधानमंत्री पर अमेरिका अपने यहां न आने की पाबंदी लगा सकता है. दूसरी तरफ अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान भारत के प्रधानमंत्री को अगर अपने यहां आने नहीं देगा तो फिर वह भारत से किसके माध्यम से संबंध रखेगा? अमेरिका के जिस तरह के आर्थिक,राजनीतिक और सामरिक हित भारत के साथ जुडे़ हैं, उन्हें देखते हुए क्या वह अपने पुराने रुख पर कायम रहेगा? वहीं दूसरी तरफ मोदी भी क्या विश्व महाशक्ति से प्रधानमंत्री बनने के बाद मुठभेड़ या उसकी अनदेखी करने का जोखिम उठा सकते हैं?
मोदी समर्थक मोदी की क्षमताओं को लेकर न सिर्फ उत्साहित हैं बल्कि वे अमेरिका को घुटने टेकते हुए भी देखना चाहते हैं. पांचजन्य के पूर्व संपादक बलदेव शर्मा कहते हैं, ‘मोदी अमेरिका से वीजा मांगने नहीं जाएंगे. उनको पीएम तो बनने दीजिए, आप देखेंगे कि अमेरिका कैसे खुद मोदी के सामने घुटने टेकता है.’
शर्मा अमेरिका से जिस दबंगई से निपटने की बात करते हैं उसका विचार खुद मोदी ने अपने समर्थकों और आम जनता के बीच फैलाया है. वे कहते हैं, ‘आप लोग देखते रहिए एक दिन ऐसा आएगा जब भारत उस मुकाम पर पहुंच जाएगा कि अमेरिका से लेकर दुनिया के दूसरे मुल्कों से लोग भारत का वीजा पाने के लिए लाइन में खडे़ मिलेंगे.’ अब मोदी ऐसा अपने समर्थकों को उत्साहित करने के लिए कहते हैं या अपमान से उपजी खीज छुपाने के लिए, यह तो वही बता सकते हैं.
पाकिस्तान को लेकर मोदी के विचारों का अध्ययन करें तो वे एक तनावग्रस्त भविष्य की तरफ ही इशारा करते हैं. जानकार बताते हैं कि संघ की जिस वैचारिक फैक्ट्री में मोदी के मानसिक कलपुर्जों का निर्माण हुआ है उसकी सोच पाकिस्तान को लेकर बहुत स्पष्ट है. यानी वह एक दुश्मन देश है जो भारत की तमाम समस्याओं का कारक है, जिसे उसकी बांह मरोड़कर ही ठीक किया जा सकता है. मोदी भी अपने तमाम भाषणों में पाकिस्तान को देख लेने वाले अंदाज में ही संबोधित करते दिखाई देते हैं. उधर, जो उनका समर्थक वर्ग है उसकी बड़ी संख्या कभी यह बर्दाश्त नहीं करेगी कि मोदी पाक को लेकर कभी कोई नरमी बरतें. विदेश नीति के जानकारों के मुताबिक ऐसे में मोदी के पीएम बनने के बाद दोनों देशों के बीच संवाद और घटेगा और संघर्ष और बढ़ेगा. ओम थानवी कहते हैं, ‘मोदी की वर्तमान स्थिति ये है कि पश्चिम के देश उनकी तरफ सम्मान से नहीं देखते हैं. अमेरिका समेत बड़े देशों से उनका संबंध पहले से ही तनावपूर्ण है. यूरोपीय देशों में से कुछ ने पिछले समय में उनके प्रति नरम रुख दिखाया है. दूसरी तरफ पड़ोसी देशों से संबंध में जिस विशाल हृदय की जरुरत होती है उसकी उम्मीद मोदी से नहीं है. इसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी हैं जहां मुसलमानों की एक बड़ी संख्या है और उस आबादी को लेकर संघ जिससे मोदी आते हैं, की समझ घृणा की है. ऐसे में मोदी के पीएम बनने के बाद दूसरे देशों से भारत के संबंधों का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.’
हालांकि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान के प्रोफेसर कमल मित्र चिनॉय विदेश संबंधों में किसी बड़े बदलाव से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘गठबंधन के जमाने में कोई एक नेता विदेश नीति में अपने मन मुताबिक परिवर्तन कर दे यह संभव नहीं है. मोदी के पीएम बनने के बाद भी विदेश नीति में कोई खास परिवर्तन होने की सूरत दिखाई नहीं देती. हां, वे इतना कर सकते हैं कि चीन और पाकिस्तान के खिलाफ हो-हल्ला करें. इससे ज्यादा कुछ नहीं.’
मोदी के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में एक वर्ग लोकतांत्रिक संस्थाओं और उदारवादी दायरे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की भी शंका जताता है. ओम थानवी मीडिया समेत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा होने की बात करते हुए कहते हैं, ‘जिस तरह की विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मीडिया और समाज उपभोग कर रहा है, उस पर मोदी के पीएम बनने के बाद ग्रहण लगने की पूरी संभावना है.’ उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, ‘आज आप इंटरनेट या किसी सोशल प्लेटफॉर्म पर अगर किसी रूप में मोदी की आलोचना करते हैं तो उनके समर्थक तुरंत गाली-गलौज समेत तमाम असभ्य तौर तरीकों से आपको परेशान करने की कोशिश करते हैं. कल्पना कीजिए मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो उनके ये समर्थक क्या करेंगे. मीडिया की आजादी पर अभी से खौफ हावी है. मोदी की असहनशीलता और असहिष्णुता उनके अनुयायियों में भी कूट कूट कर भरी है. सत्ता में आने के बाद क्या होगा इसकी कल्पना की जा सकती है. मोदी का रवैया पीएम बनने के बाद भी लोकतांत्रिक नहीं होने वाला.’
जिस समस्या की तरफ थानवी इशारा करते हैं, उसका शिकार अमर्त्य सेन भी हो चुके हैं. मोदी की आलोचना करने के कुछ समय बाद से ही शरारती तत्वों ने एक अश्लील तस्वीर को सोशल मीडिया पर ये कहकर प्रचारित करना शुरू किया कि यह अमर्त्य सेन की बेटी है. और जो आदमी अपनी बेटी को नहीं संभाल पा रहा है वह मोदी और गुजरात पर टिप्पणी कर रहा है.
कई मीडिया संस्थानों से ऐसी खबरें आ रही हैं कि कैसे वहां मोदी की आलोचना का स्थान खत्म हो रहा है. मोदी की आलोचना करने वालों को कैसे बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है. मीडिया जगत से जुड़े लोग बताते हैं कि कैसे मोदी के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखने के कारण टीवी 18 समूह के अंग्रेजी समाचार चैनल सीएनएन आईबीएन में वरिष्ठ पत्रकार सागरिका घोष पर लगातार दबाव बना हुआ है. उन्हें मोदी की आलोचना करने वाले ट्वीट न करने की हिदायत तक दी गई है. स्क्रॉल डॉट इन वेबसाइट से बातचीत में सागरिका बताती भी हैं कि कैसे मोदी समर्थकों के कारण इंटरनेट पर मोदी की आलोचना करना बेहद मुश्किल होता जा रहा है और कैसे धीरे-धीरे यह असहिष्णुता इंटरनेट के बाहर भी फैल रही है. वे कहती हैं, ‘पहले भी मैंने कई मौकों पर कांग्रेस और गांधी परिवार की आलोचना की है, लेकिन कभी मुझे किसी ने जान से मारने, गैंग रेप करने या नौकरी से निकालने की धमकी नहीं दी.’
सूत्र बताते हैं कि मोदी के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखने वाले आईबीएन लोकमत के संपादक निखिल वागले पर भी प्रबंधन का दबाव है. वागले ने हाल ही में ट्विटर पर टिप्पणी भी की थी- ‘इंदिरा गांधी ने आपातकाल के समय पत्रकारों को डराने धमकाने काम किया. लेकिन वे सफल नहीं हो पाईं. आरएसएस और मोदी को इतिहास से सबक लेना चाहिए. पत्रकारों को धमकाना बंद करिए नहीं तो यह दांव उलटा पड़ जाएगा.’ अंग्रेजी अखबार द हिंदू के पूर्व संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के संस्थान छोड़ने के पीछे भी मोदी का हाथ होने की अपुष्ट खबरें मीडिया जगत में आती रहीं. छह फरवरी को ट्विटर पर उनकी टिप्पणी आई- आपातकाल के समय में जब मीडिया मालिकों को झुकने के लिए कहा गया तो वे रेंगने लगे. इसी तर्ज पर आदेश पाकर कई मीडिया मालिकों ने फिर रेंगने की शुरुआत कर दी है जबकि आदेश देने वाला अभी सत्ता में आया भी नहीं है.’ उदाहरण और भी हैं अंग्रेजी पत्रिका ओपन के राजनीतिक संपादक हरतोष सिंह बल को मैनेजमेंट द्वारा संस्थान छोड़ने के लिए कहने के पीछे भी मोदी फैक्टर बताया गया. चर्चा है कि मैनेजमेंट बल द्वारा अपने लेखों में मोदी की आलोचना से नाराज था. गुजरात में मोदी की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर देशद्रोह का मुकदमा करने से लेकर तमाम तरह से उन्हें प्रताड़ित करने के उदाहरण भरे पड़े हैं. यानी भविष्य के लिए आशंकाओं की तादाद आशाओं से ज्यादा है.