ख़राब होते हालात पर भाजपा नेताओं की बयानबाज़ी ज़ख़्मों पर नमक छिडक़ने जैसी
क्या हो जब सरकार में ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोग देश की दिनोंदिन बिगड़ती अर्थ-व्यवस्था और बुरे हालात पर एक लंपट बच्चे की तरह जवाब दें? ज़ाहिर है कि यह सब किसी भी हिन्दुस्तानी को अटपटा लगेगा। आप समझ गये होंगे कि मैं डॉलर के मुक़ाबले लगातार कमज़ोर हो रहे रुपये पर विदेश में जाकर देश की वित्त मंत्री के बयान को लेकर बात कर रहा हूँ, जिसको विपक्ष ने आज मुद्दा बनाया हुआ है। देश में विभिन्न मंचों पर इस विषय पर चर्चाएँ हो रही हैं और वित्त मंत्री को जैसे कोई फ़िक्र नहीं है। अभी कुछ दिनों पहले ही वह महँगाई को झुठलाने के लिए बाज़ार में सब्ज़ियाँ लेने भी गयी थीं। इससे पहले प्याज महँगा होने पर उन्होंने कहा था कि वह प्याज नहीं खातीं। इसी प्रकार महँगाई और बेरोज़गारी पर भी कई भाजपा नेता और मंत्री बेतुके बयान देते रहे हैं, जो देश में ख़राब होते हालात में भी ज़ख़्मों पर नमक छिडक़ने जैसे लगते हैं। ऐसे बयान उनकी अपनी प्रतिष्ठा के ख़िलाफ़ ही लगते हैं।
हालाँकि जनता के अहम मुद्दों पर इस प्रकार की टिप्पणियाँ करने पर भी देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बेतुके बयानों पर मैं कोई प्रतिक्रिया देना नहीं चाहता हूँ। लेकिन देश का एक जागरूक नागरिक और लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया में होने के नाते सिर्फ़ कुछ सच्चाइयाँ और कुछ सवाल जनता और सरकार की अदालत में रखना चाहता हूँ।
कहते हैं कि सन् 1947 में जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ, तो एक रुपया एक अमेरिकी डॉलर के बराबर था। ज़ाहिर है कि उस समय अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा लुटा-पिटा हिन्दुस्तान आज की तरह समृद्ध और मज़बूत नहीं था। उस समय एक ब्रिटिश पाउंड की क़ीमत 13 रुपये के बराबर ज़रूर थी। अगर हम कुछ लोगों की यह बात भी मान लें कि डॉलर की क़ीमत एक रुपये से ज़्यादा थी, तो भी ऐसे लोग उस समय भी दो रुपये के आसपास एक डॉलर की क़ीमत बताते हैं। लेकिन आज उसी एक डॉलर की क़ीमत रिकॉर्ड 83 रुपये के क़रीब है। यह इसी अक्टूबर में दो बार रुपये में आयी और कमज़ोरी के बाद हुआ है। उस पर वित्त मंत्री कह रही हैं कि रुपया कमज़ोर नहीं हुआ है, बल्कि डॉलर मज़बूत हो गया है।
यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि किसी देश की मुद्रा (करेंसी) क्यों और कैसे कमज़ोर होती है? दरअसल जब किसी देश पर जैसे-जैसे क़र्ज़ बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उस देश की मुद्रा कमज़ोर होती जाती है। हाल ही में सरकार की ओर से जारी ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक, 31 मार्च, 2022 तक हिन्दुस्तान का विदेशी क़र्ज़ 620.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो चुका है। सरकारी आँकड़े ही बताते हैं कि मार्च, 2021 के अन्त में यह क़र्ज़ 573.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। मतलब सरकार ने इस एक साल में 47 बिलियन अमेरिकी डॉलर का क़र्ज़ और लिया। एक बिलियन एक अरब यानी 100 करोड़ के बराबर होता है। मतलब इस हिसाब से हमारे देश पर 62,070 करोड़ डॉलर यानी 5,112,519.69 करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। सन् 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद देश पर 49 फ़ीसदी क़र्ज़ बढ़ाया है। इसका मतलब यह है कि जितना क़र्ज़ 70 साल में पिछली सरकारों ने लिया, उतना या शायद उससे कहीं ज़्यादा 2024 तक केवल 10 साल के कार्यकाल में केंद्र की मोदी सरकार ले चुकी होगी। फ़िलहाल 70 बनाम साढ़े आठ साल के क़र्ज़ लेने के इन आँकड़ों के बराबर होने में महज़ एक फ़ीसदी का फ़र्क़ रह गया है। याद दिला दें कि सन् 2014 के लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान एक जनसभा में ख़ुद नरेंद्र मोदी (जो तब गुज़रात के मुख्यमंत्री थे) कहा था- ‘मित्रों यह ऐसे नहीं होता। रुपया उसी देश का गिरता है, जिस देश की सरकार गिरी हुई होती है।’
यहाँ यह भी बताना ज़रूरी है कि सन् 2014 में एक डॉलर 63.33 रुपये के बराबर था। यानी तबसे अब तक ठीक साढ़े आठ साल में डॉलर के मुक़ाबले हमारा रुपया 20 रुपये से ज़्यादा कमज़ोर हुआ है। देखने वाली बात यह है कि मोदी सरकार ने पिछले 70 साल के कुल 51 फ़ीसदी के मुक़ाबले अपने साढ़े आठ साल के कार्यकाल में 49 फ़ीसदी क़र्ज़ ही नहीं लिया है, बल्कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया यानी आरबीआई से भी पिछली सरकारों के मुक़ाबले पैसा भी ज़्यादा निकाला है और बड़ी मात्रा में सोना भी गिरवी रखा है। और यह मैं नहीं कह रहा, बल्कि सरकार और आरबीआई के आँकड़े बता रहे हैं।
अगर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की बात को ध्यान करें, तो इसका मतलब यही हुआ कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। जबकि विदेशी क़र्ज़ के अनुपात के रूप में विदेशी मुद्रा भण्डार गिरकर मार्च, 2022 के अन्त में 97.8 फ़ीसदी हो गया है। इसकी चिन्ता कौन करेगा? उन्हें याद रखना चाहिए कि इस देश की ज़्यादातर, बल्कि 80-85 फ़ीसदी आबादी ऐसी है, जिसे भले ही आपके वित्तीय आँकड़ों का ज्ञान न हो; लेकिन उसे यह पता है कि महँगाई बहुत बढ़ चुकी है और लोग जो भी कमाते हैं, उसमें उन्हें घर चलाने में बहुत दिक़्क़त आ रही है। अब इसी प्रकार अगर भुखमरी सूचकांक को देखें, तो पता चलता है कि हम वैश्विक भुखमरी के मामले में श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार और नेपाल से भी पिछड़ चुके हैं। अब हर साल की तरह इसे केंद्र की मोदी सरकार फिर से नकार रही है। दु:ख होता कि एक तरफ़ प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि हिन्दुस्तान पूरी दुनिया का पेट भरा सकता है, बस उन्हें विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की अनुमति मिल जाए। वहीं दूसरी तरफ़ वह अपने ही देश में फैली भुखमरी से निपटने में नाकाम हैं। ग़रीबों को पाँच किलो राशन देकर उसका प्रचार लगातार किया जा रहा है। लेकिन न तो किसानों से हो रही लूट, बढ़ती बेरोज़गारी, भुखमरी, ग़रीबी, महँगाई का और न ही तहस-नहस होती अर्थ-व्यवस्था का कहीं कोई ज़िक्र है।
आयरलैंड की एजेंसी कन्सर्न वल्र्डवाइड और जर्मनी के संगठन वेल्ट हंगर हिल्फ ने मिलकर तैयार की ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी वैश्विक भुखमरी सूचकांक में हिन्दुस्तान को इस साल 107वें नंबर पर माना है। जबकि जब मोदी सरकार के आने के दौरान सन् 2014 में हिन्दुस्तान वैश्विक भुखमरी के मामले में महज़ 55वें स्थान पर था। यानी भुखमरी के आँकड़े भी नरेंद्र मोदी की इन साढ़े आठ साल की सत्ता के दौरान तक़रीबन दोगुने स्तर पर पहुँच गयी है। इस बार सिर्फ़ 15 देश ही भुखमरी के मामले में हिन्दुस्तान से पीछे हैं। लेकिन अगर ऐसे ही भारत में भुखमरी बढ़ती रही, तो भारत उन देशों से भी आगे निकल जाएगा, जहाँ रोटी के लिए मारामारी मची रहती है। शर्मनाक यह है कि केंद्र की मोदी सरकार देश की जनता का पेट भराने में उन पड़ोसी देशों से भी पीछे रह गयी, जो हिन्दुस्तान के सामने दूसरे किसी भी मामले में कहीं भी नहीं टिकते हैं। सोचने वाली बात यह भी है कि जिन देशों में भुखमरी महामारी की तरह फैली थी, उनके यहाँ हमसे हालात काफ़ी सुधरे हैं। मसलन इस साल जारी आँकड़ों के मुताबिक, वैश्विक भुखमरी में श्रीलंका की रैंक 64, पाकिस्तान की रैंक 92, नेपाल और बांग्लादेश की रैंक 76, म्यांमार की रैंक 71 और अफ़ग़ानिस्तान की रैंक 103 है, जबकि साढ़े आठ साल पहले यानी सन् 2014 में वैश्विक भुखमरी में पाकिस्तान और बांग्लादेश की रैंक 57 थी। हालाँकि नेपाल की स्थिति सन् 2014 में भी हिन्दुस्तान से अच्छी थी। लेकिन हमें अपने देश के बारे में सोचना चाहिए, न कि दूसरे के बारे में।
हालाँकि कुछ जानकारों का मानना हैं कि यह सब वैश्विक महामारी कोरोना की वजह से हुआ है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कोरोना महामारी की वजह से हिन्दुस्तान में बहुत-सी और भी मुसीबतें आयी हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इसकी एक बड़ी वजह नोटबंदी भी है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से सवाल किया है कि वह बताये कि किस क़ानून के तहत उसने नोटबंदी की थी। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि हिन्दुस्तान के लोगों की मुसीबतें बढऩे की दूसरी बड़ी वजह यह भी है कि यहाँ से बड़ी-बड़ी देशी और विदेशी कम्पनियाँ बोरिया-बिस्तर समेटकर बाहर चली गयीं। देश में बढ़ रही तीसरी सबसे बड़ी वजह है नये रोज़गारों का कम संख्या में सृजन होना और ज़्यादा संख्या में लोगों की नौकरियाँ छिनना भी है। इन परेशानियों की चौथी वजह महँगाई और टैक्स बढऩा है। हैरानी होती है कि जो खाद्य पदार्थ किसानों से कौड़ी भाव में ख़रीदे जाते हैं, वही खाद्यान्न और उनसे बनायी हुई चीज़ें सोने के भाव उपभोक्ताओं को मिलती हैं। ऊपर से उन पर जीएसटी लगाने में सरकार कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है। कहते हैं कि यह पहली ऐसी सरकार है, जिसने दूध, दही, आटा, चावल, दाल पर तो जीएसटी लगा ही रखा है। जब इससे भी सरकारी ख़ज़ाना ख़ाली लगा, तो रोटी पर पाँच फ़ीसदी और पराठें पर 18 फ़ीसदी जीएसटी लगा दिया गया।
बहरहाल जानकारों का मानना है कि लोगों की बढ़ती परेशानियों की पाँचवीं सबसे बड़ी वजह 50 से ज़्यादा डिफाल्टर उद्योगपतियों का देश के बैंकों का मोटा पैसा लेकर विदेश भागना है, जिनके ख़िलाफ़ सरकार शायद कोई कार्रवाई करने की सोच ही नहीं रही है। सत्ता में आने से पहले नरेंद्र मोदी कहा करते थे कि काला धन लाएँगे। सत्ता में आने के बाद कहा कि कालेधन वालों की सूची उनके हाथ में है। ताज्जुब होता है कि आज तक न तो एक भी विदेशों में कालाधन रखने वाला पकड़ा गया है और न ही कोई काला धन देश में वापस आया है, जिसको लाने पर हर हिन्दुस्तानी के हिस्से में 15 लाख रुपये आने की बात ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने कही थी। ये पैसे आने तो दूर बल्कि और घोटालों व कालेधन में बढ़ोतरी होती जा रही है।
देश में धोखाधड़ी का हाल यह है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने पिछले साल ख़ुद कहा था कि पिछले सात वर्षों में हर रोज़ देश को 100 करोड़ रुपये का चूना लगा है। आरबीआई के मुताबिक, महज़ 1 अप्रैल, 2015 से 31 दिसंबर, 2021 तक सभी राज्यों में क़रीब 2.5 लाख करोड़ रुपये की बैंकिंग धोखाधड़ी हुई। वित्त वर्ष 2015-16 में 67,760 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी हुई, वित्त वर्ष 2016-17 में 59,966 करोड़ रुपये से अधिक की धोखाधड़ी हुई, वित्त वर्ष 2019-20 में 27,698 करोड़ रुपये से ज़्यादा की धोखाधड़ी हुई, तो 2020-21 में कऱीब 10,670 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी हुई। सवाल यह है कि जब ख़ुद आरबीआई के आँकड़े इतने साफ़ हैं, तो फिर सरकार कर क्या रही है? यह धोखाधड़ी करके देश का पैसा हड़पने वाले लोग कौन हैं? क्या ये लोग सरकार की पहुँच से दूर हैं? या फिर इनसे सरकार को डर लगता है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)