तेज़ कृत्रिम प्रकाश के चलते रतौंधी समेत पनप रहीं कई गम्भीर बीमारियाँ
जगमगाती रोशनी और जगमगाते शहरों की चकाचौंध भले ही सबको अच्छी लगती हो; लेकिन इसे प्रकाश प्रदूषण यानी लुमिनस पॉल्यूशन कहते हैं। इसका एक नाम फोटो पॉल्यूशन भी है। यह प्रदूषण इंसानों द्वारा निर्मित कृत्रिम प्रकाश से फैलता है। यह कृत्रिम प्रकाश इंसानों से लेकर दूसरे जीव-जंतुओं तक की आँखों के लिए बहुत ज़्यादा हानिकारक और आँखों की क़ुदरती दृश्यता को कम करने वाला होता है, जिससे इंसानों से लेकर दूसरे जीव-जन्तुओं, ख़ासकर रात्रिचर जीव-जन्तुओं के लिए हानिकारक होता है। आजकल प्रकाश प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ भी हो रही हैं। लेकिन कुछ जानकारों के अलावा पूरी दुनिया इससे अनजान है।
अंतरराष्ट्रीय डार्क-स्काई एसोसिएशन (आईडीए) ने प्रकाश प्रदूषण को आसमान की दृश्यता के लिए सबसे बड़ा बाधक माना है। आईडीए की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कृत्रिम प्रकाश के बढ़ते प्रदूषण से प्राकृतिक प्रकाश अव्यवस्थित हो रहा है और रात की दृश्यता कम हो रही है। इसके अलावा कृत्रिम प्रकाश से ऊर्जा की बर्बादी भी हो रही है। प्रकाश प्रदूषण भी ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण की तरह ही नुक़सानदायक है, जिससे आज ज़्यादातर दुनिया अनजान है और लगातार इसके घातक साइड इफेक्ट देखे बग़ैर इसका उपयोग कर रही है। प्रकाश प्रदूषण के चलते ही अब रात में न आसमान साफ़ दिखता है और न ही आसमान में टिमटिमाने वाले तारे ही साफ़ नज़र आते हैं।
खगोलीय वेधशालाओं के काम में भी कृत्रिम प्रकाश हस्तक्षेप करता है। लेकिन खगोलीय वेधशालाओं के मिशन के काम करने के लिए भी कृत्रिम प्रकाश की ज़रूरत भी पड़ती है, जो ख़ुद में भी प्रकाश प्रदूषण ही है। वैज्ञानिक बहुत पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि कृत्रिम प्रकाश से पैदा होने वाला प्रदूषण इंसानों के साथ-साथ धरती पर मौज़ूद सभी प्रकार के जीव-जन्तुओं से लेकर पेड़-पौधों को भी प्रभावित कर रहा है। इस कृत्रिम प्रकाश से फैलने वाले प्रदूषण से धरती का पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित और बाधित हो रहा है, जिसका सभी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। वैज्ञानिकों और खगोलविदों ने कृत्रिम प्रकाश से फैलने वाले प्रदूषण को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा है, जिनमें से पहला है- कष्टप्रद प्रकाश, जिसके प्रभाव को जल्दी महसूस नहीं किया जा सकता है और यह इंसानों से लेकर धरती पर मौज़ूद सभी प्रकार के जीव-जन्तुओं और प्राकृतिक चीज़ों की हल्की प्रकाश व्यवस्था में दख़लंदाज़ी करता है यानी धीरे-धीरे नुक़सान पहुँचाता है। दूसरा ज़्यादा घातक है, जिसके चलते किसी को भी तेज़ी से नुक़सान होता है और इस प्रकार का कृत्रिम प्रकाश आमतौर जल्दी ही नुक़सानदायक परिणाम दिखाना लगता है। उदाहरण के लिए तेज़ प्रकाश से आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है या आँखों से जलन के साथ आँसू निकलने लगते हैं। दूसरी प्रकार का कृत्रिम प्रकाश स्वास्थ्य पर जल्दी और ज़्यादा प्रतिकूल असर डालता है।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि जो लोग यह जानते हैं कि कृत्रिम प्रकाश से निकला प्रदूषण बहुत नुक़सानदायक साबित हो रहा है, वही कृत्रिम प्रकाश की और अधिक दृश्यता यानी प्रकाश की तेज़ किरणों की खोज में लगे हैं, जिससे वे गहरे से गहरे अंधकार में भी आसानी से देख सकें। इसके अलावा सदियों से आसमान के रहस्यों को जानने की कोशिशों में लगे वैज्ञानिक भी ऐसे कृत्रिम प्रकाश को खोजने की कोशिश में लगे हैं, जिसकी मदद से अपने सौरमंडल के अलावा दूसरे सौर मंडलों का पता लगा सकें और ब्रह्मांड में बने ब्लैक होल्स में आसानी से झाँककर पता लगा सकें कि वहाँ क्या चल रहा है? इसके अलावा हर दिन ईजाद की जा रही ज़्यादा दृश्यता वाली ट्यूब लाइट्स और ज़्यादा रोशनी पैदा करने वाले रंग-बिरंगे बल्बों की खोज हो रही है, जिससे धरती पर और ज़्यादा तथा आकर्षक रोशनी की जा सके। आजकल तो गाड़ियों में इतनी तेज़ लाइट्स आ गयी हैं, जिनकी तरफ़ देखने भर से आँखों में परेशानी होने लगती है। जब तक इस तरह की खोजों पर रोक नहीं लगेगी और कृत्रिम प्रकाश की दृश्यता की एक सीमा निर्धारित नहीं की जाएगी, प्रकाश प्रदूषण रोकना तो दूर, उलटा यह बढ़ता ही रहेगा।
कृत्रिम प्रकाश के नुक़सानों को देखते हुए सन् 1980 के दशक की शुरुआत से दुनिया भर के कुछ जागरूक लोगों ने एक वैश्विक डार्क स्काई मूवमेंट चलाया, जिसे काला आसमान आन्दोलन भी कहते हैं। इस आन्दोलन का मक़सद दुनिया भर की सरकारों से कृत्रिम प्रकाश से फैलने वाले प्रदूषण को रोकने की अपील करना रहा है। लेकिन आज तक इस आन्दोलन का किसी पर कोई असर नहीं पड़ा और दुनिया भर के शहर आज पहले से भी ज़्यादा कृत्रिम प्रकाश में जगमगाते दिखते हैं। आज शहरों से लेकर गाँवों तक देर तक लोगों का कृत्रिम रोशनी में जागना, देर रात तक काम करना या मोबाइल देखना बहुत घातक होता जा रहा है।
आज दफ़्तरों में दिन भर जो लोग कृत्रिम प्रकाश में बैठकर कम्प्यूटर पर लगातार काम करते हैं, उन्हें इसके सबसे ज़्यादा नुक़सान होते हैं। इसलिए डॉक्टर सलाह देते हैं कि कम्प्यूटर पर लगातार काम करने वालों को हर 20-25 मिनट में उठकर टहल लेना चाहिए, वर्ना उन्हें इसके कई नुक़सान उठाने पड़ सकते हैं। अक्सर देखा गया है कि ज़्यादा देर तक कम्प्यूटर पर काम करने वालों को कई परेशानियाँ होने लगती हैं, जिनमें सबसे पहली परेशानी आँखों की रोशनी कम होना है। इसके अलावा ऐसे लोगों को रतौंधी, कमर दर्द, बीपी, शुगर, थायराइड के अलावा पेट में इंफेक्शन और जोड़ों में दर्द की शिकायत भी रहती है। ज़्यादा कृत्रिम प्रकाश यानी प्रकाश कोलाहल से सड़क से लेकर हवाई पर्यावरण को भी ख़तरा होता है, जिसकी वजह से दुर्घटना होने का ख़तरा ज़्यादा रहता है। आज दुनिया भर में होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में से क़रीब 70 फ़ीसदी सड़क दुर्घटनाएँ रात में ही होती हैं, जिनकी ज़्यादातर वजह दृश्यता की कमी है और इसके लिए 80 फ़ीसदी तेज़ कृत्रिम प्रकाश ही ज़िम्मेदार है। इसलिए अगर बहुत ज़रूरी हो, तभी कम-से-कम दृश्यता वाले ही कृत्रिम प्रकाश का इस्तेमाल करें। उदाहरण के लिए अगर बल्ब जलाना पड़ता है, तो कम रोशनी करने वाले बल्ब का इस्तेमाल करें।
इसमें दो-राय नहीं कि आज कृत्रिम प्रकाश के बिना काम नहीं चल सकता। लेकिन इसका एक सीमा से ज़्यादा उपयोग और ज़्यादा दृश्यता वाले प्रकाश में काम करने की लत से लोग अपनी आँखों की रोशनी खो रहे हैं। डॉक्टरों के मुताबिक, कृत्रिम प्रकाश में अगर किसी को काम करना भी पड़े, तो उसे आँखों पर ऐसा चश्मा लगाना चाहिए, जो तेज़ रोशनी के प्रभाव को कम कर सके। ठीक वैसे ही, जैसे कोई वेल्डिंग करने वाला वेल्डिंग करते समय अपनी आँखों पर काला चश्मा लगाता है या अपनी आँखों के आगे एक काला गिलास लेकर काम काम करता है। समस्या यह है कि आज की औद्योगिक सभ्यता में कृत्रिम प्रकाश के बिना काम ही नहीं चल सकता। आज कोई भी काम हो और कोई भी जगह हो, कृत्रिम प्रकाश एक ऐसी ज़रूरत बन गया है, जिसके बिना काम ही नहीं चल सकता। लेकिन इससे फैलने वाला प्रकाश प्रदूषण इंसानों से लेकर दूसरे जीव-जन्तुओं और धरती के पर्यावरण को जितना नुक़सान पहुँचाता है, उससे भी हर किसी को वाक़िफ़ होना चाहिए; जिससे लोग ज़रूरत के मुताबिक ही कृत्रिम प्रकाश का उपयोग करें।
यूके स्थित इंस्टीट्यूशन ऑफ लाइटिंग इंजीनियर्स नाम का संस्थान काफ़ी पहले से ही अपने कर्मचारियों को प्रकाश प्रदूषण और इससे पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में जानकारी देने के अलावा यह भी बताता रहा है कि इससे होने वाले नुक़सानों से कैसे बचा जा सकता है। इंस्टीट्यूशन ऑफ लाइटिंग इंजीनियर्स ने बहुत पहले ही अपने कर्मचारियों को कम रोशनी में काम करने के लिए कहा था और जहाँ ज़्यादा रोशनी की ज़रूरत है, वहाँ आँखों पर ख़ास तरह के चश्मे लगाने की सलाह दी थी। लेकिन भारत में लोगों की समस्या यह है कि अगर उन्हें धुँधला दिखता है, तो वे आँखों की सेफ्टी करने की जगह कृत्रिम प्रकाश बढ़ाने के बारे में सोचते हैं। उदाहरण के लिए अगर किसी को मोबाइल में कम दिखता है, तो वह उसकी स्क्रीन लाइट बढ़ा देता है। जबकि मोबाइल को पहले ही कम स्क्रीन लाइट में देखना चाहिए और वह भी जितना कम-से-कम हो सके, उतना ही देखना चाहिए। हो सके, तो आँखों पर प्रकाश-रोधी लेंस वाला चश्मा लगाकर ही मोबाइल देखना चाहिए। लेकिन भारत में ज़्यादातर लोग इसके उलट करते हैं।
आज प्रकाश प्रदूषण एक वैश्विक चिन्ता का कारण बनता जा रहा है; लेकिन इसके बावजूद न तो सभी देशों की सरकारें कृत्रिम प्रकाश की दृश्यता की सीमा तय कर रही हैं और न ही कोई संस्थान इसके लिए ख़ास काम कर रहा है। जो लोग इसे लेकर चेतावनी दे रहे हैं, उनकी कोई सुनने वाला नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, अगर कृत्रिम प्रकाश की दृश्यता लगातार बढ़ती रही और लोग दिन-रात तेज़ कृत्रिम प्रकाश में काम करने से बाज़ नहीं आये, तो आने वाले 50 वर्षों में दुनिया के 60 फ़ीसदी लोगों को चश्मा लगाना होगा और हो सकता है कि 15 फ़ीसदी लोग 20 साल की उम्र तक ही अंधे हो जाएँ। आज मेड्रिड के आसपास के क्षेत्र में एक एकल विशाल समूह से उत्पन्न कृत्रिम प्रकाश के प्रदूषण का प्रभाव इसके केंद्र बिन्दु से चारो तरफ़ 100 किलोमीटर यानी क़रीब 3,28,084 फुट दूर तक महसूस किया जा सकता है। यह चिन्ता का विषय है और दुनिया के हर देश को इस पर विचार करना चाहिए।