शराब कारोबारी पोंटी चड्ढा की गाजियाबाद स्थित परियोजना वेव सिटी अपनी शुरुआत से ही नियम-कायदों की भयानक अनदेखी और किसानों के दमन का उदाहरण रही है.जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट बताती है कि किस तरह उत्तर प्रदेश में अलग-अलग समय पर रही सरकारों ने इस परियोजना के प्रति खास दरियादिली दिखाई
किस्तों में कत्ल हुआ मेरा, कभी खंजर बदल गए, कभी कातिल बदल गए… कुछ ऐसी ही पीड़ा है गाजियाबाद से सटे नायफल गांव के रविदत्त शर्मा की. शर्मा ही नहीं, आस-पास के करीब 18 गांवों के किसानों का यही दर्द है. सरकार उनकी करीब नौ हजार एकड़ जमीन वेव सिटी के नाम पर चर्चित शराब कारोबारी पोंटी चढ्ढा के स्वामित्व वाली कंपनी को औने-पौने दामों पर दे चुकी है. हालांकि कागजों में योजना का स्वामित्व पोंटी के रिश्तेदार गिन्नी चड्ढा को दिखाया गया है. वेव सिटी बनवाने के लिए सरकारें कितनी बेताब रहीं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2003 से उत्तर प्रदेश की सत्ता में रही समाजवादी पार्टी रही हो या दलितों की रहनुमा बसपा सभी ने नियम- कानूनों के साथ ऐसा खिलवाड़ किया कि गरीब किसान एक ही झटके में अपनी खेती-बाड़ी की जमीन से महरूम हो गए. ऐसा नहीं कि किसानों ने सरकार और बिल्डर के जुल्म के खिलाफ आवाज नहीं उठाई, लेकिन पैसे और सत्ता की ताकत के आगे उनकी आवाज गांव की गलियों में ही दफन हो गई.
सबसे पहले बात करते हैं टाउनशिप नीति की जिसकी शुरुआत नवंबर, 2003 में हुई थी. तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह थे. सरकार ने उस समय गाजियाबाद जिले के नायफल गांव से सटे कुछ गांवों में हाईटेक सिटी बनाने का लाइसेंस पोंटी चड्ढा को दिया. 2003 से 2006 तक वेव सिटी के निर्माण में कोई खास तेजी नहीं आई. इस दौरान बिल्डर की ओर से कुल भूमि के करीब 20 से 25 प्रतिशत का अधिग्रहण हो सका. 2007 में बसपा की सरकार राज्य में बनी. नई सरकार ने नई टाउनशिप नीति घोषित कर दी. इसके मुताबिक परियोजना की 75 प्रतिशत भूमि बिल्डर को सीधे किसानों से खरीदनी थी. बाकी 25 प्रतिशत भूमि सरकार को अधिग्रहण के जरिए उपलब्ध करवानी थी.
2007 में बनी यह नीति सिर्फ दो साल चली. जनवरी, 2009 में इसमें एक बार फिर से संशोधन किया गया. इस संशोधन में सरकार ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों पर खास ध्यान दिया. नई नीति में कहा गया कि हाईटेक टाउनशिप के चयन स्थल में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के व्यक्तियों की जितनी भी भूमि बिल्डर द्वारा खरीदी जाएगी उतनी ही भूमि आस-पास के क्षेत्र में खरीद कर उन लोगों को दी जाएगी. यह अपने आप में ही अव्यावहारिक है. जानकार कहते हैं कि एनसीआर के इलाके में जमीनों की ही लड़ाई है ऐसे में जमीन के भूखे बिल्डर जमीन खरीद कर देने की सोच भी नहीं सकते.
खेती-बाड़ी पर गुजर-बसर करने वाले दलित और गरीब किसानों के लिहाज से नई टाउनशिप नीति वरदान सरीखी थी. लेकिन असल हालात कुछ और ही कहानी बयान करते हैं. दलित रतन सिंह की पौने तीन बीघा जमीन अर्जेंसी क्लॉज लगा कर सरकार ने वेव सिटी को आवंटित कर दी. जमीन जाने का रंज रतन को इस कदर है कि जमीन का जिक्र आते ही वे बिफर उठते हैं, ‘जमीन के बदले जमीन देना तो दूर मुआवजा तक ठीक से नहीं मिला. मुझे 9.27 लाख रुपये बीघे के हिसाब से मुआवजा मिला है जबकि मेरी जमीन का बाजार भाव 60-70 लाख रुपये बीघा है क्योंकि यह पूरी जमीन नगर निगम गाजियाबाद की सीमा में आती है.’
सपा रही हो या बसपा, पोंटी के मेगा प्रोजेक्ट के आगे किसानों के अधिकार और हक की सुनवाई कहीं नहीं हुई. नियमों को तार तार करने में सरकार के साथ नौकरशाह भी शामिल रहे. आरोप है कि सरकारी मशीनरी ने बिल्डर के पक्ष में किसानों को बरगलाने का काम किया. रतन बताते हैं, ‘तत्कालीन भू-अर्जन अधिकारी ने दलित किसानों को बुलवाया और कहा कि आप लोग अपनी ही बिरादरी के हैं. अभी जमीन दे दीजिए, आगे यदि जमीन का रेट बढ़ता है तो कंपनी से बात करके मैं बढ़ा रेट जरूर दिलवाऊंगा.’ रतन आगे कहते हैं, ‘अधिकारी की बातों पर विश्वास करके हमने जमीन दे दी, अब हमारे पास कुछ नहीं है. चार बेटे हैं. कभी यदि वे अपना अलग मकान बनाना चाहें तो एक इंच जमीन भी नहीं बची है.’
वेव सिटी के लिए सरकार की दरियादिली किसानों की जमीन दिलाने तक ही सीमित नहीं रही. गांव की उन तमाम सरकारी जमीनों को भी उसने इस परियोजना के हवाले कर दिया जिन्हें सिर्फ सामुदायिक कार्यों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. इन सरकारी जमीनों में चकरोड, रास्ते, नहरें, नालियां और ग्रामसभा की जमीनें आती थीं. गाजियाबाद नगर निगम के सभासद राजेंद्र त्यागी कहते हैं, ‘जिले की कई ग्राम सभाओं की 70.488 एकड़ सरकारी जमीन का पुनर्ग्रहण (ऐसी जमीनें जो अतीत में सरकार ने ही लोगों को आवंटित की हों) कर हाइटेक सिटी के हवाले कर दिया गया जबकि प्रदेश सरकार की ओर से 1991 में एक आदेश पारित कर यह नियम बनाया गया था कि सरकारी जमीनों का उपयोग भूमिहीनों के आवंटन एवं ग्रामीणों के सामुदायिक विकास के लिए ही किया जा सकता है.’ त्यागी आगे बताते हैं, ‘सरकार इन जमीनों का पुनर्ग्रहण सिर्फ राज्य ही कर सकती है. निजी क्षेत्र को ऐसी भूमि के आवंटन पर भी आदेश में स्पष्ट नियम हैं. इसके मुताबिक सिर्फ उसी निजी उद्यम को ऐसी जमीने उपलब्ध करवाई जा सकती हैं जिनमें सरकार की 50 प्रतिशत या अधिक की अंश पूंजी लगी हो.’
गांव की उन तमाम सरकारी जमीनों को भी इस परियोजना के हवाले कर दिया गया जिन्हें सिर्फ सामुदायिक कार्यों के लिए ही इस्तेमाल किया जा सकता है
दिहाड़ी मजदूर रामपाल को 1981 में राज्य सरकार ने छह बीघे जमीन का पट्टा 1981 में दिया था. अब यह जमीन निजी क्षेत्र को देने के लिए वापस ले ली गई है. किसान नेता डॉक्टर रूपेश कहते हैं, ‘जब सरकारी जमीन को निजी क्षेत्र के हाथ सौंपने का कोई नियम-कानून ही नहीं है तो सरकार एक खास बिल्डर पर इतनी मेहरबान क्यों हैं?’
जमीनों की कीमत भी झगड़े की जमीन तैयार करती है. जिस जमीन को सरकार ने बिल्डर को 1100 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से आवंटित किया है उसे वेव सिटी में 18,700 रुपये प्रतिवर्ग मीटर से लेकर 35,000 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से बेचा जा रहा है. इस मनमानी के खिलाफ सभासद त्यागी ने राज्यपाल को भी एक ज्ञापन भेजा है. अपने ज्ञापन में उन्होंने लिखा है कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी यदि कोई जमीन खरीदता है तो उसे स्टांप ड्यूटी देनी होती है जबकि पोंटी चड्ढा को सरकार की ओर से ड्यूटी में छूट दी गई है.
पोंटी पर सरकार की मेहरबानी 2006 के बाद से अचानक ही बढ़ गई. तब प्रदेश में सपा का शासन था. 2006 में वेव सिटी के लिए सरकार ने डासना, बयाना, नायफल, महरौली व काजीपुरा गांव की 433.639 हेक्टेयर जमीन पर अर्जेंसी क्लाज लगाकर अधिग्रहण की पृष्ठभूमि तैयार की. सपा शासन के अंतिम दौर में जनवरी 2007 में दुरयाई गांव की 96.013 हेक्टेयर जमीन पर अर्जेंसी क्लाज लगाकर वेव सिटी का रास्ता खोला गया.
इस अर्जेंसी क्लॉज के खिलाफ किसानों ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली. यहां उन्हें बड़ी राहत मिली और यथास्थिति बनाए रखने का आदेश कोर्ट ने जारी किया. यहां एक बार फिर से किसान खेती-बाड़ी में लग गए. लेकिन शांति ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रही. बसपा सरकार ने 2009 में एक बार फिर डासना, बयाना, नायफल, महरौली व काजीपुरा की उन्हीं जमीनों पर अर्जेंसी क्लॉज लगा दिया जिन पर सपा ने 2006 में लगाया था. सरकार के इस कदम से नाराज 252 किसानों ने एक बार फिर से हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हाई कोर्ट ने गाजियाबाद के जिलाधिकारी से स्थिति साफ करने को कहा. इस फैसले से असंतुष्ट किसान सुप्रीम कोर्ट चले गए. सुप्रीम कोर्ट में किसानों ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि सरकार उनकी जमीनों का बेवजह अर्जेंसी क्लाज में अधिग्रहण कर रही है और हाई कोर्ट दोबारा उन्हें सरकार के पास ही भेज रहा है. इस पर सुनवाई करते हुए जस्टिस आरएम लोढ़ा और एचएल गोखले की पीठ ने 30 जनवरी 2012 को फिर से पूरी जमीन पर यथास्थिति बनाए रखने का निर्णय दे दिया. महरौली गांव के प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘जब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार यथास्थिति बनाए रखने का निर्णय दे दिया था तब सरकार ने दोबारा उसी जमीन पर अर्जेंसी क्लॉज कैसे लगा दिया. क्या सरकार का निर्णय देश की सर्वोच्च न्यायपालिका के आदेश से बड़ा है?’
नायफल के किसान रविदत्त शर्मा कहते हैं, ‘सरकार को निजी क्षेत्र की टाउनशिप बनवाने के लिए अर्जेंसी क्लॉज लगाने की जरूरत क्यों पड़ गई. जबकि न्यायालय ने अपने निर्देश में साफ कहा है कि अर्जेंसी क्लॉज लोकहित के लिए ही लगाया जा सकता है मसलन छावनी बनाना, आपदा पीड़ितों और विस्थापितों को बसाना आदि. यहां इनमें से कोई भी स्थिति नहीं है.’
चड्ढा और सरकार की इस स्वप्निल परियोजना को सिरे चढ़ाने के लिए गाजियाबाद जिले का पूरा प्रशासनिक अमला भी आमादा था. दुरियाई गांव निवासी ब्रह्म प्रकाश कहते हैं, ‘अधिकारियों ने किसानों को कागजों में ऐसा उलझाया कि वे अपनी जमीनंे बचाने के लिए कोर्ट-कचहरी के चक्कर में उलझ गए और जमीन पर धीरे-धीरे बिल्डर का कब्जा होता गया.’ सरकारी मशीनरी की ओर से बिछाए गए जाल का उदाहरण देते हुए प्रकाश बताते हैं कि उनका 15 बीघा खेत एक ही जगह पर स्थित है लेकिन उसमें से साढ़े सात बीघे पर अर्जेंसी क्लॉज लगाया गया और साढ़े सात बीघे पर आपत्ति मांगी गई. अर्जेंसी क्लॉज तब लगाया जाता है जब जमीन की आवश्यकता तुरंत हो. ऐसे में सवाल उठता है कि जब खेत एक ही जगह हैं तो आधे में अर्जेंसी क्लॉज और आधे पर आपत्ति क्यों मांगी गई जबकि पूरा प्रोजेक्ट एक ही है. अपने सवाल का जवाब भी प्रकाश खुद ही देते हैं, ‘ऐसा किसानों को उलझाने के लिए किया गया है ताकि वे एकजुट न हो पाएं.’
ऐसा सिर्फ प्रकाश के नहीं बल्कि काजीपुरा, डासना, बयाना, नायफल सहित कई गांवों के सैकड़ों किसानों के साथ हुआ है. नायफल की 184.031 हेक्टेयर जमीन में से 147.964 हेक्टेयर जमीन पर अर्जेंसी क्लॉज लगाया गया, जबकि 36.067 हेक्टेयर पर किसानों से आपत्ति मांगी गई. इसका क्या आधार था, अधिकारियों के पास कोई जवाब नहीं. कोशिश करने पर जो जवाब किसानों को मिले वे हास्यास्पद हैं. किसानों द्वारा दायर एक आपत्ति के जवाब में गाजियाबाद प्राधिकरण का एक जवाब देखें- ‘…आपत्तिकर्ताओं को सुना गया. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लोक प्रयोजन हेतु जनपद गाजियाबाद के विकास एवं सुख सुविधा एवं दुर्बल वर्ग के व्यक्तियों को सुखागार एवं हाईटेक टाउनशिप योजना के अंतर्गत भूमि अधिगृहीत की जा रही है…’
एनसीआर प्लानिंग बोर्ड ने 13 फरवरी 2012 को अपने जवाब में बताया कि वेव सिटी टाउनशिप के विकास हेतु किसी भी प्रस्ताव को उसने मंजूरी नहीं दी है
एक बार को यह मान लेते हैं कि योजना दुर्बल वर्ग के लोगों को ध्यान में रख कर बनाई जा रही है. लेकिन पूरी वेव सिटी परियोजना में जमीन की कीमत देखी जाए तो यह 18 से 35 हजार रु प्रति वर्गमीटर के बीच है. इसके बाद कोई भी समझ सकता है कि योजना किस आयवर्ग के लिए है.
दुरियाई गांव के किसान अमन जाटव कहते हैं, ‘जब किसानों ने एकजुट होकर जमीन न देने के लिए आंदोलन शुरू किया तो सरकार व प्रशासनिक अधिकारियों ने बलपूर्वक तथा बिल्डर ने लालच देकर उनमें फूट डालने की कोशिश की. किसान मामचंद्र की जमीन का जो करार हुआ उसके बदले सरकार की ओर से 58,63,000 रुपये का चेक आठ अप्रैल 2010 को दिया गया. इसके दो दिन बाद ही यानी 10 अप्रैल 2010 को 17,84,057 रु का एक अकाउंट पेयी चेक किसी चंदन सिंह के नाम का भी दिया जाता है. यह चेक गाजियाबाद स्थित एक्सिस बैंक के अकाउंट संख्या 000199740950102 की ओर से जारी किया गया.’ अमन आरोप लगाते हुए कहते हैं, ‘जमीन की जो रकम सरकार की ओर से मामचंद्र को दी गई वह तो ठीक थी लेकिन दो दिन बाद जो चेक चंदन सिंह के नाम से मामचंद्र को जारी किया गया वह जमीन देने के बदले समझौते की रकम थी.’ अमन बताते हैं कि सरकार व प्रशासन की मिली भगत से बिल्डर के लोगों ने कई किसानों को तोड़ने का काम इसी तरह किया.
वेव सिटी नियम-कानूनों को धता बता कर खड़ी की जा रही है, इसके और भी तमाम सबूत हैं. रविदत्त शर्मा ने जनवरी, 2012 में शहरी विकास मंत्रालय के अधीन आने वाले एनसीआर प्लानिंग बोर्ड में आरटीआई डाल कर यह जानकारी मांगी कि क्या बोर्ड ने हाईटेक टाउनशिप के लिए उत्तर प्रदेश सरकार अथवा गाजियाबाद विकास प्राधिकरण को स्वीकृति प्रदान की गई है. जवाब चौंकाने वाला था. बोर्ड ने 13 फरवरी 2012 को अपने जवाब में बताया कि वेव सिटी टाउनशिप के विकास हेतु किसी भी प्रस्ताव को बोर्ड ने मंजूरी नहीं दी है. कुछ महीने पहले कुछ ऐसा ही सवाल उठाने पर एनसीआर प्लानिंग बोर्ड की कमिश्नर प्रोमिला शंकर को निलंबन के रूप में इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था. हाल ही में केंद्र के हस्तक्षेप के बाद वे बहाल हुई हैं. तहलका के साथ बातचीत में प्रोमिला का कहना था, ‘कृषि योग्य भूमि पर हो रहा अंधाधुंध निर्माण भविष्य में सामाजिक अस्थिरता पैदा कर सकता है, इसलिए एनसीआर में होने वाले किसी भी अधिग्रहण के लिए प्लानिंग बोर्ड की सहमति जरूरी होती है.’
वेव सिटी के लिए गाजियाबाद के अतिरिक्त गौतमबुद्धनगर के भी पांच गांवों की जमीन अधिगृहीत की जा रही है. यह जमीन एनएच 24 से लेकर जीटी रोड तक स्थित है. टाउनशिप की सीमा प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के पैतृक गांव बादलपुर तक जाती है. बादलपुर से सटे दुजाना गांव की 256.695 हेक्टेयर जमीन टाउनशिप में शामिल की जा रही है. क्षेत्र में किसानों की हालत यह है कि अधिग्रहण के चलते उनकी पूरी दिनचर्या ही बदल गई है. पिछले कुछ सालों से किसानों का ज्यादातर समय कोर्ट कचहरी के चक्करों में बीत रहा है और बचा-खुचा समय गांव की पंचायतों में बैठकें करके जमीन बचाने की रणनीति बनाने में बीतता है. सआदतनगर इकला के टीकम नागर जैसे युवक गांव-गांव जाकर लोकगीतों के माध्यम से किसानों को जागरूक करने का काम कर रहे हैं. पीएचडी करके किसानों की लड़ाई लड़ रहे डाक्टर रूपेश कहते हैं, ‘पूरे एनसीआर में जिस तरह उपजाऊ जमीन का सरकार बिल्डरों को फायदा देने के लिए अधिग्रहण कर रही है आने वाले समय में नोएडा, गाजियाबाद, दिल्ली ही नहीं, आसपास के पूरे क्षेत्र में लोगों को दूध व अनाज की भारी किल्लत का सामना करना पड़ेगा. जब खेत और मवेशी ही नहीं होंगे तो किसानी और पशुपालन कहां से होगा.’
लेकिन जब एक सीनियर आईएएस अधिकारी तक को सवाल उठाने पर निलंबन भुगतना पड़ा हो तो आम आदमी का क्या कहा जाए.