कबीर दास ने कहा है- ‘‘हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना। आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।’ अर्थात् हिन्दू कहते हैं कि हमें राम प्रिय हैं और तुर्क (मुसलमान) कहते हैं रहमान। दोनों ही (मूर्ख) आपस में लड़-लडक़र मर रहे हैं। लेकिन (ईश्वर क्या है? कौन है? इसका) मर्म कोई नहीं जानता। कबीर दास जी ने सच ही कहा है। आिखर हम लोग जिन मज़हबों के खूँटों से एक दायरे में बँधे हैं, वे दायरे क्या ईश्वर ने बनाये हैं? नहीं। क्योंकि अगर ईश्वर ऐसा करता, तो हम सबको मज़हब के हिसाब से शारीरिक रूप और सोच देकर ही पैदा करता। फिर हमें दुनिया में आने के बाद अपने को मज़हब के हिसाब से भेष नहीं बनाना पड़ता। बाना नहीं पहनना पड़ता। इससे भी बड़ी बात कि फिर कोई अपना मज़हब नहीं बदल पाता और न ही किसी भी हालत में मज़हब की ये दीवारें कभी टूटतीं। इंसानियत और प्यार की पैरवी संत कभी नहीं करते और न ही सबको एक ईश्वर होने की शिक्षा देते।
मैंने जीवन में कई ऐसे मामले देखे, पढ़े और सुने हैं, जब मज़हब की दीवारें बड़ी आसानी से टूटी हैं। ऐसे ही एक वाकये का •िाक्र आज मैं कर रहा हूँ। यह वाकया उत्तर प्रदेश के बरेली से तकरीबन 30-31 किलोमीटर दूर गौंटिया नामक एक गाँव का है। वहाँ पर सरकारी जूनियर हाई स्कूल में सभी मज़हबों और जातियों के बच्चे पढ़ते थे। उसी में सुमित चौहान और हसीना पड़ते थे। दोनों ने एक-दूसरे को कब पसन्द कर लिया, कब एक-दूसरे से प्यार कर बैठे? किसी को पता ही नहीं चला। दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे और दोनों ने साथ ही स्नातक में पहुँच गये। कहते हैं कि इश्क और मुश्क छिपते नहीं। हुआ भी वही। बात कॉलेज से निकली और दोनों के घर तक पहुँच गयी।
आिखर वही हुआ, जिसकी अमूमन लोग कल्पना करते हैं; हसीना का कॉलेज छूट गया। यूँ कहें कि उसे घर में ही कैद कर दिया गया। इधर, हसीना के कॉलेज न पहुँचने से सुमित परेशान रहने लगा, उसने खाना-पीना भी त्याग-सा दिया। उधर, हसीना ने तो बिलकुल ही खाना-पीना त्याग दिया। समस्या मज़हब की दीवारें थीं। हसीना के परिवार की तरफ से तो सिर्फ यही बात थी। सुमित के परिवार वालों को इससे बहुत अधिक मतलब भी नहीं था। जब कई दिन तक हसीना कॉलेज नहीं पहुँची, तो सुमित उसके घर पहुँच गया। लेकिन जैसे ही हसीना के घर वालों ने उसे देखा, आगबबूला हो गये और उसे खरी-खोंटी सुनाने लगे। दो-एक परिजनों ने उसे मज़हब का हवाला देकर हसीना से दूर हो जाने की हिदायत दी। हसीना की माँ शकीला इस मामले में कुछ नहीं बोल रही थीं। उन्हें अपनी बच्ची हसीना से बहुत प्यार था और वे उसकी हर खुशी पूरी करने की हमेशा ही कोशिश में रहती थीं। उन्होंने अंदर जाकर अपनी बेटी से बात की और जानना चाहा कि क्या वह एक हिंदू परिवार में जीवन गुज़ार पायेगी? हसीना ने हाँ में जवाब दिया। उन्होंने उसे हर अनहोनी से आगाह भी किया, पर हसीना ने साफ शब्दों में कह दिया कि यदि सुमित उसे नहीं मिला, तो वह मर जाएगी। उन्होंने कहा कि अल्लाह ने हर इंसान को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक जीने का हक दिया है। अल्लाह बड़ा कारसाज है, उसकी मर्ज़ी होगी, तो तुझे सुमित ज़रूर मिल जाएगा। हसीना की बड़ी भाभी ने इस बात का समर्थन किया। हसीना की माँ शकीला बाहर आयीं, तो सुमित और हसीना के बड़े भाई शहवाज़ में बहस चल रही थी। शकीला ने अपने बेटे को डाँटा और सुमित को बात करने के लिए घर में ले गयीं। उन्होंने सुमित से पूछा कि वह हसीना के लिए क्या कर सकता है? सुमित ने सीधा जवाब दिया वह उससे प्यार करता है और करता रहेगा। उसे ये धर्म-मज़हब का चक्कर समझ में नहीं आता। उसे पूरी दुनिया भी छोड़ दे, तो भी वह हसीना को नहीं छोड़ेगा। उसके बाद उन लोगों में पता नहीं क्या बातें हुईं? पर, थोड़ी देर बाद सुमित वहाँ से चला गया। कुछ दिन बाद ऐसा लगा मानो न सुमित को हसीना से मतलब है और न हसीना को सुमित से। हसीना के घर वाले उसके लिए घर ढूँढने लगे। सुमित चुपचाप कॉलेज जाता रहा। परीक्षा के दिन आ गये। हसीना को उसके घर वाले परीक्षा देने भी नहीं भेजना चाहते थे; लेकिन उसकी माँ और भाभी के समझाने पर उसे परीक्षा देने जाने दिया गया।
जिस दिन आिखरी पेपर था, उस दिन न हसीना अपने घर नहीं लौटी। उसके घर वालों ने उसे बहुत तलाशा, पर कहीं नहीं मिली। आिखर थाने में रिपोर्ट लिखायी। दूसरे दिन पता चला कि हसीना और सुमित ने कोर्ट में शादी कर ली है और अब वह सुमित के घर पर ही है। पुलिस ने इस मामले में दखल देने से मना कर दिया; लेकिन हसीना का बयान ज़रूर लिया और उलटे पाँव लौट गयी। हसीना के घर वालों ने इसी दौरान सुमित का घर देखा। ज़मींदार परिवार था उसका। हसीना के परिजन थोड़ा-बहुत दबे भी इस बात से पर गुस्सा करते हुए, हसीना से रिश्ता तोडऩे की बात कहकर लौट आये। एक साल बाद ही सुमित-हसीना को एक बेटी हुई। हसीना पूरी तरह इस परिवार में घुलमिल गयी। यह कहानी लम्बी है। पर सुमित आगे चलकर ग्राम प्रधान बन गया और फिर दोनों परिवार एक-दूसरे के यहाँ आने-जाने भी लगे। दोनों मज़हबों से सम्बन्धित त्योहार भी सब मनाने लगे। तीन-चार साल में सभी ऐसे हिल-मिल गये मानों दोनों में कोई अन्तर, कोई भेदभाव ही नहीं था। लोग दोनों के प्यार की मिसालें देने लगे। मज़हब की दीवारें टूट गयीं। न किसी से कोई शिकवा-शिकायत, न दुश्मनी, न मज़हब की तकरार। अब तो सुमित-हसीना भी अधेड़ होंगे। उनकी यह मिसाल अब कितने लोगों को पता होगी? मालूम नहीं।