पैतृक सम्पत्ति में बेटी का भी बराबर हक

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए टिप्पणी की- 'बेटी ताउम्र बेटी रहती है।’

हिन्दू कानून में सुधार के लिए सन् 1941 से लेकर सन् 1956 तक यानी 15 वर्षों की अवधि तक मंथन होता रहा। हिन्दू महिलाओं के सम्पत्ति अधिकार अधिनियम-1937 की विसंगतियों को देखने के लिए सन् 1941 में हिन्दू कानून समिति की स्थापना की गयी थी। सन् 1944 में फिर दूसरी हिन्दू कानून समिति का गठन किया गया। कानून के जानकारों और जनता की राय लेने के बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और इसकी सिफारिशों पर संसद में सन् 1948 और सन् 1951 के बीच और फिर सन् 1951-1954 के बीच कई दफा बहस हुई। चार प्रमुख बिन्दुओं को लेकर सन् 1955-56 में इसे पारित किया जा सका। बाद में इसने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 का रूप लिया। इसके तहत महिलाओं के सम्पत्ति के अधिकार यानी संयुक्त हिन्दू परिवार में विरासत के अधिकार को मान्यता दी गयी। हालाँकि तब भी बेटी को को-पार्सनर (सम उत्तराधिकारी) का दर्जा नहीं दिया गया।

महिलाओं के अधिकारों पर भ्रम की स्थिति

भारत में पुरखों की सम्पत्ति अधिकार पर शास्त्र और परम्परागत कानूनी प्रावधानों का पालन किया जाता रहा है। ग्रंथकारों और टीकाकारों के मतभेद से पैतृक धनविभाग के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न व्यवस्थाएँ प्रचलित हैं। प्रधान पक्ष दो हैं- मिताक्षरा और दायभाग। मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है; जबकि दायभाग जिमुतवाहन की कृति है। मिताक्षरा के अनुसार, पैतृक (पूर्वजों के) धन पर पुत्रादि का सामान्य स्वत्व उनके जन्म ही के साथ उत्पन्न हो जाता है, पर दायभाग पूर्वस्वामी के स्वत्वविनाश के उपरांत उत्तराधिकारियों के स्वत्व की उत्पत्ति मानता है।

नतीजे के तौर पर हिन्दुओं के बीच सम्पत्ति कानून भिन्न थे; जिन पर महिलाओं के साथ भेदभाव किया गया और इनमें पुरुषों के पक्ष में स्वामित्व के अधिकार दिये गये। मिताक्षरा कानून के तहत एक हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति पुरुष उत्तराधिकारियों की चार पीढिय़ों पर संयुक्त रूप से जीवित रहने से विकसित हुई। स्वामित्व जन्म से था न कि उत्तराधिकार से। उनके जन्म के समय पुरुष सदस्य ने सम्पत्ति का अधिकार हासिल कर लिया। बंगाल में स्वीकृत दायभाग ने संयुक्त स्वामित्व या को-पार्सनरी की धारणा को नहीं अपनाया।

चूँकि पहले महिलाएँ को-पार्सनरी (सम उत्तराधिकार) का हिस्सा नहीं थीं, इसलिए उनके पास संयुक्त स्वामित्व का सैद्धांतिक अधिकार भी नहीं था। इस तरह वे अपने हिस्से की माँग नहीं कर सकती थीं। सिर्फ पत्नियाँ ही इस तरह के लिंगभेद की शिकार नहीं थीं, बल्कि जब मालिकाना हक दिये जाने की बात आती, तो बेटियों को भी इसी तरह वंचित रखा जाता था। हिन्दू कानून के पूरे इतिहास में पहली बार सन् 1937 अधिनियम के आधार पर महिलाओं को सम्पत्ति रखने और निपटान के अधिकार को वैधानिक मान्यता मिली। यहाँ तक कि अगर महिलाओं को सम्पत्ति के स्वामित्व की अनुमति दी गयी थी, तो यह केवल एक जीवन हित था, जो उनकी मृत्यु पर उसे मूल स्रोत पर लौट जाता था। महिलाएँ दो प्रकार की सम्पत्ति की मालकिन हो सकती थीं-स्त्रीधन और और विमेंस एस्टेट। हालाँकि उसके नाम की यह सम्पत्ति हमेशा ही बेहद कम रही। उसके पास दावा करने का शायद माद्दा भी नहीं था, साथ ही उसे अपने अधिकारों के बारे में जानकारी भी नहीं थी।

स्त्रीधन को हिन्दू महिलाओं की सम्पूर्ण सम्पत्ति माना जाता है। इसके तहत उसके पास अपने विवाह और विधवापन के दौरान बेचने, उपहार, बन्धक, पट्टे या विनिमय करने जैसी शक्तियाँ थीं; लेकिन उसकी शादी होने पर उसकी शक्ति पर कुछ पाबंदिया लगा दी थीं। इसलिए महिलाओं ने इस पर पूर्ण नियंत्रण का आनन्द नहीं लिया। क्योंकि स्त्रीधन के कुछ मामलों में उनको अपने पति की सहमति लेनी ज़रूरी थी। हिन्दू महिलाओं को बेहद सीमित स्वामित्व दिया गया था, जिसने अपनी सम्पत्ति को महिलाओं की सम्पत्ति या विधवा की सम्पत्ति के रूप में जाना।

सन् 1937 के अधिनियम के आधार पर विधवा के पास निपटान की सीमित शक्ति थी, यानी वह कानूनी आवश्यकता को छोड़कर पति की मौत के बाद अलग नहीं कर सकती थी। उसकी मृत्यु पर यह महिलाओं की सम्पत्ति अन्तिम पूर्ण मालिक के वारिसों को वापस कर देती थी। सन् 1956 में लैंगिक असमानताओं का ज़िक्र किया गया और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-14 ने महिलाओं की सम्पत्ति की इस अवधारणा को खत्म कर दिया। लेकिन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 ने को-पार्सनर प्रणाली को बरकरार रखा, जिसके परिणामस्वरूप पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं के अधिकारों का हनन हुआ। महिलाओं को को-पार्सनर नहीं

माना गया। मिताक्षरा परिवारों की बेटियों को समान अधिकारों से वंचित रखा गया। कई लोगों ने इसे महिलाओं के सम्पत्ति अधिकारों से वंचित रखने के तौर पर देखा।

हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 में बेटियों के अधिकार

9 सितंबर, 2005 को 39 वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 में संशोधन किया गया। हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम-2005 के अनुसार, हर बेटी, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित; को पिता के हिन्दू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) का सदस्य माना जाता है और उसे उसकी एचयूएफ सम्पत्ति की कर्ता के रूप में भी नियुक्त किया जा सकता है। सन् 2005 का संशोधन अब बेटियों को उन्हीं अधिकारों, कर्तव्यों, देनदारियों को प्रदान करता है, जो उनके जन्म के आधार पर अभी बेटों तक सीमित था। अब परिवार की महिलाएँ भी को-पार्सनर हैं। संशोधन अधिनियम-2005 ने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा-4 (2) को हटा दिया और पुरुषों के समान कृषि भूमि में महिलाओं के उत्तराधिकार का मार्ग प्रशस्त किया। संशोधन ने भेदभावपूर्ण राज्य-स्तरीय अन्य कानूनों को खत्म कर दिया है और कई महिलाओं को लाभान्वित किया है, जो अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। इस प्रकार हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम-2005 ने मिताक्षरा को-पार्सनरी में बेटियों के अधिकारों से सम्बन्धित एक बहुत ही प्रासंगिक मामले को सम्बोधित किया है। इसमें हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा-6 में संशोधन करके एक बेटी के अधिकार को बढ़ाया है। संशोधित धारा-6 में सम्पत्ति में बेटियों को भी समान हक दिया गया है। हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम-2005 के लागू होने के साथ ही धारा-6 (1) मिताक्षरा कानून द्वारा शासित एक संयुक्त परिवार में एक बेटी, बेटे की तरह ही जन्म से ही को-पार्सनर बन जाएगी। बेटी के पास समान भी सम्पत्ति पर बेटे की ही तरह अधिकार होंगे, जिनको उसके अधीन किया जाएगा।

एक पुत्र के रूप में को-पार्सनर सम्पत्ति में बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार होगा और हिन्दू मिताक्षरा को-पार्सनर के किसी भी सन्दर्भ को बेटी के सन्दर्भ में शामिल किये जाने के तौर पर समझा जाएगा। लेकिन संशोधन के ज़रिये एक बेटी को दिये गये लाभों का फायदा केवल तभी मिल सकता है, जब उसके पिता का निधन 9 सितंबर, 2005 के बाद हुआ हो और बेटी केवल सह-हिस्सेदार बनने के योग्य हो सकती है साथ ही पिता और पुत्री दोनों के 9 सितंबर, 2005 तक जीवित होने की शर्त थी। इसके साथ ही अधिनियम की धारा-23 में महिला वारिस को संयुक्त परिवार के पूर्ण आवास में हिस्सेदार माना गया है; जब तक कि पुरुष उत्तराधिकारी अपने सम्बन्धित शेयरों को विभाजित करने का विकल्प नहीं चुनते हैं। संशोधन अधिनियम में इसे छोड़ दिया गया था। 174वें विधि आयोग की रिपोर्ट ने भी हिन्दू उत्तराधिकार कानून में इस तरह के सुधार की सिफारिश की गयी थी। कानूनी व्यवस्था में लैंगिक भेद को दूर करते हुए अधिनियम में संशोधन करके यह सुनिश्चित किया कि मिताक्षरा कानून द्वारा शासित संयुक्त हिन्दू परिवार में एक को-पार्सनर की बेटी जन्म से ही बराबर की हिस्सेदार बन जाएगी, जिस तरह से बेटा को-पार्सनर प्रॉपर्टी में अधिकार रखता है। बेटी को भी बेटे जितना ही हिस्सा प्रदान किया जाए।

कैसे सामने आया मामला?

सन् 2005 के कानून में जब महिलाओं को समान अधिकार दिये गये थे, इसे बावजूद कई मामलों में सवाल उठाये गये थे कि क्या कानून पूरी तरह से लागू होता है और महिलाओं के अधिकार पिता के जीवित रहते हुए क्या होते हैं या विरासत में इनको क्या मिलता है? इस तरह कई सवाल सामने आये थे। ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की विभिन्न पीठों ने इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी फैसले देकर मुद्दे को और जटिल बना दिया था। विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी शीर्ष अदालत के विभिन्न विचारों को बाध्यकारी मिवर्षों के रूप में पालन किया था। प्रकाश वी. फूलवती (2015) मामले में न्यायमूर्ति ए.के. गोयल की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि 2005 के संशोधन का लाभ केवल 9 सितंबर, 2005 (कानून में संशोधन लागू होने की तिथि सेे) को जीवित को-पार्सनर की बेटियों को दिया जा सकता है। फरवरी, 2018 में सन् 2015 के फैसले के विपरीत न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी की अध्यक्षता वाली खण्डपीठ ने कहा कि सन् 2001 में मृत्यु हो चुकी एक पिता की हिस्सेदारी भी 2005 के कानून के अनुसार सम्पत्ति के विभाजन के दौरान उनकी बेटियाँ को-पार्सनर के रूप में होंगी। उसी साल अप्रैल में जस्टिस आर.के. अग्रवाल की अध्यक्षता वाली एक अन्य पीठ ने सन् 2015 में लिये गये फैसले की स्थिति को ही दोहराया।

अब एक कदम और आगे

समान अधिकार को लेकर अदालतों की अलग-अलग पीठ द्वारा परस्पर विरोधी फैसलों के मामले में सुप्रीम कोर्ट में तीन सदस्यों की पीठ के समक्ष लाया गया। इसमें वर्तमान पीठ ने सन् 2015 और अप्रैल, 2018 के फैसले को पलटते हुए मामले का निपटारा कर दिया। इसमें कहा गया कि 2005 के कानून का मकसद ही था कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा-6 में निहित भेदभाव को दूर करके बेटियों को समान अधिकार प्रदान किये जाएँ। हिन्दू मिताक्षरा को-पार्सनरी सम्बन्धी सम्पत्ति में बेटों की तरह ही अधिकार दिये गये। 11 अगस्त, 2020 को लैंगिक मतभेद को मिटाने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया कि बेटियों को पैतृक सम्पत्ति पर समान अधिकार होगा।

कोर्ट ने कहा कि बेटा तभी तक बेटा रहता है, जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती; लेकिन बेटी ताउम्र बेटी रहती है। हिन्दू उत्तराधिकार कानून-1956 की धारा-6 का प्रावधान संशोधन से पहले या बाद में पैदा हुई बेटी को बेटे की तरह ही समान अधिकार और दायित्व प्रदान करता है। पीठ ने कहा कि 9 सितंबर, 2005 से पहले जन्मी बेटियाँ धारा-6 (1) के प्रावधान के तहत 20 दिसंबर, 2004 से पहले बेची या बँटवारा की गयी सम्पत्तियों में हिस्सा माँग सकती हैं। चूँकि को-पार्सनरी (समान हक) का अधिकार जन्म से ही है; लिहाज़ा यह आवश्यक नहीं है कि 9 सितंबर, 2005 को कानून के अमल में आने से पहले पिता जीवित ही होना चाहिए।

(लेखिका नेशनल यूनिवॢसटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ की डीन तथा एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)