पिछले दिनों गुजरात की मच्छु नदी पर बना मोरबी का पुल टूटने से क़रीब 150 से ज़्यादा लोग मरे; लेकिन चंद रोज़ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया पर सियासी बयानबाज़ी के बाद सब कुछ वैसा ही हो गया, जैसा कि हर चुनावी दौर में होता आया है। यह कोई पहली बार नहीं है। आपको याद होगा कि आम चुनाव से पहले सन् 2019 में भी हुई थी, जिसको हम दर्दनाक पुलवामा हमले के रूप में जानते हैं। अगले दिन तमाम पक्ष-विपक्ष के नेताओं ने शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देखा अपनी रस्म अदायगी कर ली थी। इसी प्रकार सन् 2016 में विधानसभा चुनाव से पहले पश्चिम बंगाल के कोलकाता में ऐसी ही पुल टूटने की घटना हुई थी, जिसमें 150 से ज़्यादा लोग मरने की ख़बरें आयी थीं। कुछ दिन जाँच-पड़ताल और जाँच समिति बनाने की रस्म अदायगी और सियासी बयानबाज़ी के बाद सब कुछ ठंडा हो गया था और सब सियासतदान चुनाव प्रचार में मदहोश हो गये थे।
इससे पहले भी देश में सरकारों या सरकारों के चहेतों के कारण कई ऐसे हादसे हुए हैं, जिनमें इसी तरह की लीपापोती की गयी है। चाहे वो कांग्रेस के शासनकाल का भोपाल गैस कांड हो, चाहे चाहे उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के दौरान का बनारस पुल हादसा हो, या फिर चाहे जनता पार्टी सरकार के दौरान का मोरवी का ही सन् 1979 का डैम हादसा हो। डेढ़-दो दशक पहले तक नैतिकता यह थी कि ज़िम्मेदार मंत्री इस्तीफ़ा दे देते थे और प्रमुख दोषियों के ख़िलाफ़ भी मुक़दमे दर्ज होते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण देश का लाल बहादुर शास्त्री का रेल मंत्री से त्याग-पत्र देना है, जब एक रेल दुर्घटना के बाद उन्होंने उसकी ज़िम्मेदारी लेते हुए तत्काल अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। लेकिन आज के शासनकाल में न तो मंत्रियों के इस्तीफ़े होते हैं और न प्रमुख दोषियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई होती है। सवाल यह उठता है कि इस निरंकुशता की वजह आख़िर क्या है? क्या जनता सिर्फ़ वोट देने भर के लिए है। उसके बाद लोग जीएँ या मरें, इससे सरकार को क्या कोई मतलब नहीं? या फिर सत्ताधारी दल को यह लगता है कि आम जनता ऐसी घटनाओं को जल्दी भूल जाती है। अगर न भी भूले और विरोध भी करे, तो दोषियों का कुछ नहीं बिगड़ पाता। क्योंकि 15 से 20 साल अदालती कार्यवाही चलती रहती है और धीरे-धीरे मामला कुंद पड़ता चला जाता है।
गुजरात में मोरबी पुल टूटने की घटना पर विपक्ष लगातार सत्ताधारी दल के नेताओं पर आरोप लगा रहा है कि भाजपा के नेता लगातार गुजरात विधानसभा चुनाव में व्यस्त हैं। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री मोदी देश और प्रदेश को शोक-सम्बोधन करने के बाद फिर उसी तरह चुनाव प्रचार में लग गये, जबकि न सिर्फ़ बाक़ी राजनीतिक पार्टियों ने, बल्कि गुजरात में अनेक कलाकारों ने दीपावली के अवसर पर गुजराती नये साल बेस्तु बरस पर होने वाले अपने कार्यक्रम स्थगित कर दिये।
दरअसल, लोग भी कुछ दिन ऐसी चर्चाओं पर ध्यान देते हैं और फिर भूल जाते हैं। लेकिन वे ऐसी घटनाओं को किस तरह फूलें, जिन्होंने अपनों को ऐसे हादसों में खोया हो? सवाल यह भी है कि आख़िर चुनाव से ठीक पहले ही ऐसी घटनाएँ क्यों होती हैं? हालाँकि यह माजरा क्या है? इसे समझने और समझाने के लिए दावे तो नहीं किये जा सकते; लेकिन कुछ तथ्य और आँकड़े ज़रूर पेश किये जा सकते हैं। मोरबी हादसे के बाद विपक्ष बड़ा सवाल यह उठा रहा है कि आख़िर गुजरात सरकार ने एक घड़ी और बल्ब बनाने वाली कम्पनी को पुल के रख-रखाव का ठेका दे कैसे दिया? क्योंकि पुलिस ने अदालत में जो बयान दिया, उससे गुजरात सरकार की मंशा और रेवड़ी बाँटने की तस्वीर काफ़ी हद तक साफ़ होती नज़र आती है। कहा जा रहा है कि पुलिस ने अदालत में बयान दिया है कि पुल में जंग लगे हुए टूटे हुए ज्वाइंटर (जोड़ वाले छल्ले) थे। कुछ छल्ले बदले भी गये, तो उन्हें स्टील की जगह एल्युमीनियम का लगाया गया। तारें भी पुरानी ही थीं, जिन पर जंग लग गयी थी। पुल की मरम्मत के लिए कोई अनुभवी इंजीनियर नहीं लगाया गया, बल्कि मकान आदि बनाने वाले, बेल्डिंग करने वाले अनाड़ी कारीगरों से काम कराया गया था, जिन्होंने कभी भी पुल रिपेयर नहीं किया, किसी पुल के बनने में कोई योगदान नहीं दिया। इस प्रकार की चर्चा आम है।
ज़ाहिर है कि 143 साल पुराना पुल क़रीब तीन दशक से बन्द भी पड़ा था। बताते हैं कि इस पुल को मोरबी के राजा वाघजी रावजी ने बनवाया था, जिसका उद्घाटन उनके शासनकाल में ही सन् 1879 में किया गया था। अंग्रेजी शासन के दौरान बना क़रीब 765 फुट लम्बा और चार फुट चौड़ा यह पुल गुजरात टूरिज्म का बेजोड़ नमूना था। यह भी कहा जा रहा है कि इस पुल को विधानसभा चुनाव को देखते हुए आनन-फ़ानन में पुल की मरम्मत (रिपेयरिंग) की खानापूर्ति करते हुए सरकारी करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाकर यह सोचकर इसे खोला गया कि इसे चुनावों में गुजरात मॉडल की तरह पेश किया जाएगा। मरम्मत का काम जयमुख पटेल की कम्पनी मोरवी को दिया गया, जिस परमरम्मत में करोड़ों के गबन के आरोप लग रहे हैं।
ज़ाहिर है कि दीपावली के अवसर पर मनाये जाने वाले गुजराती नये साल बेस्तु बरस के मौक़े पर पुल देखने आयी भीड़ का फ़ायदा उठाकर 17-17 रुपये में टिकट बेचकर भी कम्पनी ने भारी मुनाफ़ा कमाया। इसके बावजूद न तो मोरवी कम्पनी के मालिक के ख़िलाफ़ एफआईआर हुई, न ठेका देने के लिए ज़िम्मेदार गुजरात सरकार और किसी ज़िम्मेदार मंत्री के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई की गयी। सत्ता के क़रीबी माने जाने वाले मोरवी कम्पनी के मालिक जयमुख पटेल के मरने वालों के प्रति कोई शोक भी न जताने की चर्चा भी गर्म रही। कथित आरोप तो यहाँ तक है कि जयमुख पटेल के सत्तासीन शीर्ष नेताओं से अच्छे रिश्ते हैं और इन्हीं नज़दीकियों के कारण जयमुख पटेल को पुल निर्माण और मरम्मत का अनुभव न होने के बावजूद इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी दे दी गयी। गुजरात के सत्ताधारी दल के स्थानीय नेताओं के अलावा शीर्ष नेतृत्व के नंबर-1 और नंबर-2 पर भी इस प्रकार के कई व्यापारियों से क़रीबी रिश्ते होने के आरोप विपक्ष द्वारा लगातार लगाये जाते रहे हैं। बहरहाल कुछ लोगों को इस हादसे के लिए ज़िम्मेदार मानकर गिरफ़्तार कर लिया गया है, जिसमें मोरवी कम्पनी के प्रबंधक समेत नौ लोग शामिल हैं। हैरत की बात यह है कि मोरवी कम्पनी के प्रबंधक दीपक पारेख ने अदालत में घटना पर अफ़सोस जताने के बजाय हादसे को भगवान की इच्छा बताया।
दरअसल सरकार बख़ूबी समझती है कि उसके मंत्रियों की ख़ामोशी और कुछ मीडिया संस्थानों का हर हाल में सरकार के पक्ष में बोलना ही उसका संबल है। सरकारी एजेंसियों की भूमिका पर विपक्ष की तरह सवाल नहीं उठाऊँगा, क्योंकि आज के तमाम किरदारों को आम लोग बख़ूबी समझते हैं और तमाम सोशल मीडिया, काफ़ी हद तक प्रिंट मीडिया और कुछ टीवी चैनल्स पर इस प्रकार की तमाम घटनाओं पर टिप्पणी करने वालों की भरमार है। लेकिन मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि किसी गबन या घोटाले या घपले का पता लगने के बावजूद अगर दोषियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं होती है, तो इसके पीछे सरकार और पूँजीपतियों की मिलीभगत की बू आती है। सरकार और पूँजीपतियों की मिलीभगत होना कोई नयी बात नहीं है। यह परम्परा तो आज़ादी के पहले अंग्रेजों के जमाने से लगातार चली आ रही है और आज भी बदस्तूर जारी है। ज़ाहिर है कि पूँजीपतियों की मिलीभगत के इस चक्रव्यूह में आम जनता हमेशा ही पिसती रही है। यह चक्रव्यूह इतना मज़बूत है कि अगर देश का कोई जागरूक नागरिक, बुद्धिजीवी या फिर कोई पत्रकार सवालों के बार से इसे भेदना चाहे भी, तो या तो उसे जवाब नहीं मिलते या फिर उसे ही सज़ा भुगतनी पड़ती है। ऐसी कई घटनाएँ मुझे अच्छी तरह याद हैं, जिनमें सरकार की ख़ामियों को दिखाने या सवाल करने वालों को जेल या मौत या पिटाई की सज़ा मिली है। यह सजाएँ घोषित आपातकाल में भी देश के जागरूक लोगों को मिलीं और अघोषित आपातकाल में भी मिलती रही हैं।
दरअसल पूँजी के ढेर पर बैठे पूँजीपति और नेता ऐशपरस्ती की इस मलाई को किसी दूसरे को नहीं काटने देना चाहते, ख़ासतौर पर आम जनता को तो इस मलाई से कोसों दूर रखा जाता है, जो इसकी असली हक़दार है। इसी वजह से कुछ पार्टियों को जनता को दी जाने वाली सुविधाएँ रास नहीं आ रही हैं। दूसरी बात किसी हादसे में दोषियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई न होने की वजह यह भी है कि आज देश की विधानसभाओं से लेकर संसद तक ज़्यादातर विधायक, सांसद और मंत्री या तो ख़ुद ठेकेदारी प्रथा को भी हथियाये हुए हैं या फिर अपने चहेतों को इसका फ़ायदा पहुँचाते हैं।
अगर केवल संसद की बात करें, तो उसके दोनों सदनों में बैठने वाले सांसद और मंत्रियों में से अधिकतर माफ़िया, उद्योगपति, पूँजीपति और दबंग पृष्ठभूमि से आते हैं। कई बार यह बात उठी है कि ज़्यादातर विधायक, सांसद और मंत्री आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। सोचने वाली बात है कि जब अपराधी ही सत्ता में होंगे, तो उन्हें सज़ा कौन देगा? लेकिन सवाल यह भी है कि जब सर्वोच्च न्यायालय भी संविधान की ताक़तों से लैस है और सर्वोपरि है, तो भी इन ताक़तवर दोषियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)