दुर्दांत अपराधी विकास दुबे का कानपुर के पास ही शुक्रवार सुबह उज्जैन के महाकाल मंदिर से लाकर एनकाउंटर किया जाना, साबित करता है कि अपने सड़े हुए पुलिसिया सिस्टम को भी न्यायतंत्र पर भरोसा नहीं। यह लोकतंत्र के लिए बेहद घातक साबित होने वाला है।
पुलिस-अपराधी नेक्सस नई बात नहीं है। ऐसा भी नहीं कि एक विकास दुबे को टपकाने से बाकी के विकास दुबे सहम गए हों। वो आज भी घर में बैठकर मुस्करा रहे होंगे, और पुलिसिया व न्याय के खोखले हो चुके तंत्र का मखौल उड़ा रहे होंगे। आखिर इतनी हिम्मत इनको सरकारी पनाह से ही तो मिलती है!
कानपुर के बिकरू में सीओ समेत आठ पुलिस वालों की बेरहमी से हत्या किया जाना और फिर हफ्ते भर फरार रहना भी हज़ारों सवाल खड़े करता है। विकास ने माना था कि सीओ से खुन्नस थी, क्योंकि वो उसकी आपराधिक गतिविधियों से वाकिफ था और एक्शन लेने चाहता था। सीओ दुबे के एक पैर से लंगड़ाने की बात कह चुका था। 2 जुलाई को हत्याकांड में सबसे बेरहमी से कत्ल विकास दुबे और उसके गुर्गों ने डीएसपी देवेंद्र मिश्रा का ही किया था। सिर में कई गोलियां दागने के बाद, उसका एक पैर कुल्हाड़ी से काट डाला था। कुछ मुखबिर किस्म के बुजदिल चौबेपुर थाने के खादीधारी तब भी पहले ही मैदान छोड़कर भाग गए थे। मतलब हर तंत्र में छेद ही छेद हैं।
इससे पहले ही दुबे का बाप पुलिस को कोर्ट में देख लेने की ‘धमकी’ दे चुका था, जो तंत्र की पोल खोलने के लिए काफी थी। आखिर लोगों का हमारी अदालतों और जजों पर भरोसा क्यों कम हो रहा, इस पर गंभीर चिंतन की ज़रूरत है। अदालतों में बैठे जजों को भी अपना आकलन करना होगा, वर्ना सड़क पर ही न्याय मिलने लगेगा तो फिर अदालतों, सरकारों और संसद का क्या काम?