हम झारखंड के सुंदरपहाड़ी इलाके के पहाड़ों पर हैं. चेबो नाम के एक गांव में, जिस तक उजले भारत की कोई चमक अब तक नहीं पहुंची है, हां, शोषण जरूर उन तक लगातार पहुंचता है. सरकार भी पहुंची है तो इस तरह कि 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन ही स्कूल, स्कूल लगते हैं. चिकित्सा वहां कंडोम के विज्ञापनों जितनी पहुंची है और मलेरिया, कालाजार और टीबी से हर साल लोग उसी रफ्तार से मरते जा रहे हैं. किसी ‘यादव ट्रांसपोर्ट’ की एक मिनी बस है, जो गोड्डा जिले के इन गांवों को जिला मुख्यालय से जोड़ती है. बस क्या है, एक महीन-सा तार है, जिसका एक तरफ का किराया 50 रुपए है और बस, ड्राइवर की तबीयत या उसका मूड खराब हो तो आदमी इतनी आसानी से अपने जिला मुख्यालय से और इस तरह हम सबकी दुनिया से कट जाता है, जैसे बात करते-करते कोई फोन कट गया हो.
आप शायद वहां फोन या तकनीक के पहुंचने को लेकर उत्सुक हों, लेकिन हम आपको उस रास्ते के बारे में बताते हैं, जिससे पहाड़िया समुदाय के इन 100 से भी ज्यादा गांवों में सरकारी चावल पहुंचता है. हम झारखंड के चार जिलों गोड्डा, साहेबगंज, दुमका और पाकुड़ के पहाड़ों की बात कर रहे हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 1,30,000 है. पहाड़ियों की एक प्रमुख उपजाति सौरिया के नाम पर इस इलाके को सौरिया देश भी कहते हैं. झारखंड से बाहर बिहार के मुंगेर और पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम, मध्य प्रदेश में भी पहाड़िया छिटपुट तौर पर मिलते हैं. सब जगह इनकी हालत वही है.
इस इलाके के सब गांवों की तरह ही चेबो के लोग भी महीने में एक बार 30 से 35 किलोमीटर की दूरी तय करके मुफ्त मिलने वाले 35 किलो चावल के लिए पहाड़ से नीचे उतरते हैं. एक रोज पहले सब एक साथ शाम को समूह में चल देते हैं, रात को वहां पहुंचते हैं. अगले दिन शाम तक चावल मिलता है. वह भी नाप-तोल कर नहीं, बल्कि एक टीन के डब्बे में भरकर दे दिया जाता है. जब हम और आप ट्रैफिक की वजह से हो रही कुछ मिनटों की देरी के लिए अपने हॉर्नों की तरह चिल्ला रहे होते हैं, तब वे हजारों लोग महीने के तीन दिन राशन का वह चावल पाने में खर्च करते हैं जिसे ‘फिक्रमंद’ सरकार उन्हें देना चाहती है.
नौवीं तक पढ़े, चेबो के 24-25 साल के चंद्रमा यहीं हमें पहाड़िया समुदाय के वर्तमान और अतीत के बारे में बताना शुरू करते हैं. अपनी रोजमर्रा की चुनौतियों के बारे में, उस कठिन जीवन के बारे में जिसके अस्तित्व तक का हममें से बहुतों को पता नहीं.
‘आपने इतिहास तो पढ़ा-सुना ही होगा कि हम इस देश ही नहीं, धरती के सबसे पुराने बाशिंदे हैं. आदिवासी भी हमसे बाद के हैं. सरकार हमें आदिम जनजाति कहती है लेकिन असल मे हम ‘जुगवासी’ हैं. हमारे पुरखे बड़े लड़ाके रहे हैं. उन्होंने लगातार मुगलों के आधिपत्य को खारिज किया और अंग्रेज उनसे कभी पार नहीं पा सके. इतिहास में गौरवान्वित 1857 की लड़ाई या उसके पहले का संथाल आदिवासी विद्रोह तो बहुत बाद की बातें हैं, उसके बहुत पहले हमारे समुदाय ने सामूहिक विद्रोह किया था, जिसे ‘पहाड़िया विद्रोह’ का नाम देकर इतिहास के कोने में समेट कर रख भर दिया गया है. हमारे ही पुरखा लड़ाके योद्धा जबरा पहाडि़या उर्फ तिलकामांझी थे, जिनके नाम पर भागलपुर में विश्वविद्यालय है.’
‘जुगवासी’ हमारे लिए एक नया शब्द है, लेकिन यह हम सोचें, उससे पहले ही चन्द्रमा हमें फिर से अपनी बातों में खींच लेते हैं.
‘रही बात भूगोल की तो उसका अंदाजा तो आपको यहां आने में हो ही गया होगा. इसलिए हम इतिहास-भूगोल के बजाय सीधे वर्तमान पर बातें करेंगे.’
इसके बाद चंद्रमा जो बताते हैं वह झारखंड के इस इलाके के विकास का परदा खोलता जाता है और पहाड़ों के उस घुप्प अंधेरे को हमें दिये से दिखाता जाता है.
‘ हमारे समुदाय का न तो नीचे जमीन पर रहने वालों से कोई मुकाबला है, न उनकी किसी भी किस्म की तरक्की से जलन जैसा भाव है, लेकिन बुरा तब लगता है जब लोग हमारे समुदाय के सीधेपन को बेवकूफी समझते हैं. अब देखिए न, सड़क बनाकर पहाड़ों पर पहुंचकर सबमें अपने-अपने नामों का पत्थर लगवाने की होड़ मची हुई है. यह तमाशा ही तो है!’
पहाड़िया समुदाय की आबादी बढ़ रही है या घट रही है, इसे लेकर दृश्य कुछ साफ नहीं है. ‘प्रदान’ संस्था से जुड़े रहे और पहाड़िया समुदाय के बीच काम करने वाले सौमिक कहते हैं कि अब आबादी में बढ़ोतरी हो रही है. दूसरी ओर यदि नमूने के तौर पर सारठ नामक एक प्रखंड के आंकड़ों को देखें तो पिछले एक दशक में यहां से 101 पहाड़िया परिवार कहां चले गए, यह किसी को मालूम नहीं है.
वैसे हम पहाडि़या समुदाय के इतिहास के लड़ाकेपन की बात करे बिना भी अगर वर्तमान में ही इनके जुझारूपन, जीवट और मुश्किलों के बावजूद इनके चेहरे के संतोष को देखें तो ये दुनिया के उन चंद समुदायों में मिलेंगे जिनकी इच्छाएं बड़ी नहीं हैं. जिन्हें छला जाता है, लेकिन तब भी कोई उनका भोलापन नहीं छीन पाता. मासूम-सी डेसी इसकी मिसाल है, जो अपने गांव में एक पेड़ के नीचे कुछ बच्चों को हिंदी में नाम लिखना सिखा रही है. वह पहाड़ के नीचे मैदानी इलाके में स्थित कस्तूरबा आवासीय विद्यालय में नौवीं कक्षा में पढ़ती है.
डेसी हमसे अपनी पसंदीदा फिल्मों, पसंदीदा हीरो-हीरोइन के बारे में बातें करती है. वह कहती है कि वह जब पहाड़ से नीचे उतरकर स्कूल में पढ़ने गई और वहीं रहने लगी तो उसने जाना कि उसके इलाके के लोग कितने मेहनती हैं. वह अस्पताल की इमारत को दिखाते हुए कहती है, ‘देखिए, इस अस्पताल का एक ही बड़ा इस्तेमाल है. इसकी छत पर जो बारिश में पानी जमा होता है, उसे बांस की नली से हम नीचे गिराकर एक जगह जमा करते हैं. फिर उस पानी का इस्तेमाल करते हैं. हमारे पास पानी के विकल्प कम हैं न! पीने के लिए कोसों दूरी तय कर झरने से लाते हैं लेकिन दूसरे घरेलू काम के लिए काफी मुश्किल होती है. गर्मी में तो हमारा नहाना-धोना बंद रहता है.’
डेसी हमें पहाडि़यों की ढलान पर उठ रहे धुएं को दिखाते हुए कहती है, ‘खेतों की सफाई कर आग लगा दी गई है और अब हम खेती करेंगे. मक्के की, अरहर की, बरबट्टी की. और भी बहुत चीजों की.’
डेसी अभी बच्ची है, इसलिए जिन खेतों को वह खुशी से हमें दिखा रही है उनके पीछे का दुख शायद अभी नहीं जानती. वह नहीं जानती कि उस खेती से पहाडि़या समुदाय को असल में क्या हासिल होता है और इस खेती के नाम पर बीच के लोग उनके साथ कैसे खेल खेलते हैं. यह खेल उस इलाके में वर्षों से पत्रकारिता कर रहे पत्रकार साथी पल्लव हमें समझाते हैं. ‘यहां पहाड़ पर गांवों में कहीं कोई दुकान नहीं दिख रही. अब आप ही सोचिए कि इनके जीवन की जरूरतें कैसे पूरी होती होंगी? ‘पल्लव बताते हैं कि यहां के लोग साप्ताहिक हाटों में जाने के लिए पहाड़ से नीचे उतरते हैं, अपने अनाज, लकडि़यों, फलों आदि को लेकर जाते हैं और वहां औने-पौने दाम में इनके सामान को खरीदने के लिए तैयार बैठे साहूकार इसके बदले इन्हें जरूरी सामान मुहैया करा देते हैं.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. इन पहाड़ों पर साहूकारों के आदमी घोड़ा या खच्चर लेकर साल में कई दफा चक्कर मारते हैं. खासकर तब, जब फसलों की बुवाई का समय आता है. तब अगस्त-सितंबर में साहूकारों के घोड़ों की टाप पहाड़ों पर ज्यादा सुनाई पड़ती है. घोड़े-खच्चर तरह-तरह के बोरों से लदे हुए होते हैं और साहूकार कुछ हजार रुपये अपने टोंटी में रखकर आते हैं. पहाडि़या लोगों को खेती के लिए कर्ज देते हैं, और उसके बदले चार माह में तीन से चार गुना वसूल लेते हैं. इस तरह बरबट्टी, अरहर या मक्के की खेती से होने वाली जिस कमाई पर पहाड़ी समुदाय के लोगों का हक होना था उसका एक बड़ा हिस्सा साहूकारों के पास चला जाता है. इसमें सबसे बड़ा खेल बरबट्टी की खेती में होता है, क्योंकि उसकी मांग दिल्ली-मुंबई समेत सब महानगरों में ज्यादा है, जिसे वहां चवली या रेशमी लोबिया नाम से जाना जाता है. संथाल परगना के छोटे-बड़े शहरों में कई ऐसे सेठ हैं, जो बरबट्टी की खेती से ही अपना साम्राज्य खड़ा कर चुके हैं.’
जबकि निश्छल पहाडि़या समुदाय का इन फसलों की खेती से कितना आत्मीय रिश्ता है, इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि केवल हर नई फसल की खुशी के उत्सव ही इस समुदाय के त्योहार हैं. आम पूजा, मक्का पूजा, बरबट्टी पूजा. खेती से इनकी इस मोहब्बत को, इस रिश्ते को पहाड़ के नीचे रहने वाले प्रशासनिक और व्यापारी वर्ग के लोग अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए अपने फायदे के लिए इनका दोहन करते रहते हैं और इन्हें हर साल फिर उन्हीं खेतों में झोंकते रहते हैं. इन शहरियों की बदौलत उनकी जरूरतें भी ठीक से पूरी नहीं हो पाती. गांव के लोग बताते हैं, ‘प्रशासनवाले वैसे तो हमारी सुध लेने कभी नहीं आते लेकिन जब खेती की बारी आती है तो आते हैं और हमारे लोगों को जेल में डालने की धमकी देने लगते हैं कि खेती के लिए हमने पहाड़ के जंगल को काटा और जलाया है जबकि सच्चाई यह होती है कि हम सिर्फ झाड़ियों को साफ कर उसमें खेती करते हैं. आप ही बताइए, हमारा पहाड़, हमारी जिंदगी पहाड़ पर, हम क्यों बर्बाद करेंगे इसे?’
चंद्रमा कहते हैं, ‘हम लोगों को दूसरे तरीके से भी छला जाता. कई बार ऐसा भी हुआ है कि नीचे वाले लोग हाट-बाजार में हमारी लड़कियों की ताक में बैठे रहते हैं. प्रेम का डोरा डालते हैं. हमारा समाज प्रेम को स्वतंत्रता देता है और बहुत हद तक लड़कियों को मनचाहा वर ढूंढ़ने की आजादी भी, सो कुछ शातिर इसका फायदा उठाकर यहां की लड़कियों से शादी कर चुके हैं जबकि उनमें कई पहले से शादीशुदा और बाल-बच्चेदार भी होते हैं. इसके पीछे उनका बड़ा मकसद पहाड़ की खेती से लाभ उठाना होता है. वे ऐसा कर हमारे बीच आने लगते हैं और फिर साहूकारों से मुक्ति दिलाने के नाम पर खेती में पूंजी लगाते हैं. लेकिन बाद में वे किसी बड़े साहूकार से भी ज्यादा क्रूरता से हमारी संपत्ति हड़पते हैं और हमारी बेटियों-बहनों को छोड़ कर वापस चले जाते हैं.’
महीने में एक बार ये लोग 30 से 35 किलोमीटर की दूरी तय करके मुफ्त मिलने वाले 35 किलो चावल के लिए पहाड़ से नीचे उतरते हैं
चंद्रमा रुआंसे-से हो गए हैं. वे आगे कहते हैं, ‘हम लोग तो राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण नहीं माने जाते. वोट डालते हैं तो भी नीचे वाले कहते हैं कि हम दगाबाजी करते हैं. आदिवासी नेताओं को पसंद नहीं करते.’ चंद्रमा बताते हैं, ‘पीढि़यों से संथालों से हमारे समुदाय का बैर इस आधार पर जरूर रहा है कि अंग्रेजों की शह पर वे हमारे राजपाट वाले इलाके में हमें उजाड़ने आए, उजाड़कर यहीं बस भी गए और हमारे ही इलाके का नाम उनके नाम पर संथाल परगना भी हो गया. हम यहां के राजा थे, अब रंक बन गए हैं. पुरखों ने कभी गुलामी नहीं स्वीकारी, लेकिन हम गुलाम जैसी जिंदगी गुजार रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद पीढि़यों से हमारे सबसे करीब भी तो संथाली ही रहते हैं. हम किसी भी हाल में उनका साथ छोड़कर बाहरी लोगों के पक्ष में कैसे जा सकते हैं?’
उदास चेबो और चंद्रमा से विदा लेकर हम पहाड़ से नीचे उतर आते हैं. नीचे हमारी बात अविभाजित बिहार में मंत्री रहे कृष्णानंद झा से होती है, जो इस इलाके में तीन दशक से सक्रिय रहे संथाल-पहाडि़या सेवा मंडल से जुड़े रहे हैं. अब वह मंडल आपसी विवाद की वजह से ठप है. झा कहते हैं, ‘पहाडि़या समुदाय के लिए सरकार की ढेरों योजनाएं हैं. उन योजनाओं में से 50 प्रतिशत भी जमीन पर उतर जाए तो बहुत कुछ बदल जाए.’
दुमका में हमारी मुलाकात ‘पूर्वी भारत में पहाडि़या’ नामक शोध पुस्तक लिखने वाले अनूप कुमार बाजपेयी से होती है. बाजपेयी कहते हैं, ‘इस इलाके में बीमारियों की वजह से जन्म से ज्यादा मौतें हुई हैं. सरकार इन लोगों को धरातल पर बसाने की निरर्थक कोशिश तो करती रहती है, लेकिन सदियों से पहाड़ों पर शांति से रहने वाले ये लोग मैदानों में नहीं रह सकते.’
सरकारी योजनाओं की सफलता-विफलता की कहानी और लोग भी सुनाते हैं. मूल रूप से मध्य प्रदेश की रहने वाली, लेकिन कई सालों से सुंदरपहाड़ी में रहकर पहाडि़या-संथालों के साथ काम करने वाली प्रज्ञा वाजपेयी कहती हैं, ‘स्वास्थ्य का यह हाल है कि पिछले साल इस प्रखंड में 3,150 बच्चों का जन्म हुआ, जिनमें से 23 बच्चे और मां प्रसव प्रक्रिया में ही मर गए. यह सब यहां की नियति जैसा है.’
‘नियति’ ऐसा शब्द है जिसके सहारे हम जाने कब से अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाते आए हैं, मासूम और मेहनती पहाड़िया समुदाय के पसीने को मैदानी सेठों के एयरकंडीशनरों से बहते देखते आए हैं, उनकी कितनी पीढ़ियों को बेसिरपैर की सरकारी योजनाओं की फाइलों के नीचे दबाते आए हैं. अब यह हमें और हमारी सरकारों को देखना है कि हमें ‘नियति’ शब्द ज्यादा प्यारा है या धरती के सबसे पुराने योद्धा.