खराब फिल्म के साइड इफेक्ट्स कई सारे होते हैं. वक्त का जाया होना आखिर में आता है. उससे पहले आपके लिए फरहान अख्तर साधारण हो जाते हैं. हिंदी फिल्मों की हीरोइन होने के लिए वर्णित नियमों के विरोध में खड़ी विद्या बालन तारीफ के काबिल नहीं लगती. यह भी समझ नहीं आता कि अब जो वे कर रही हैं वह विरोध है या किसी भी तरह से खुद को न बदलने की हठ. इसके बाद इस औसत फिल्म के सामने आपको छह-आठ साल पुरानी एक फिल्म ज्यादा याद आने लगती है जिसे आप पूरी तरह भूल चुके हैं, जो खुद भी कुछ खास नहीं थी, लेकिन इस फिल्म को देखते हुए जब भी वो याद आती है, और उसके थोड़े-छोटे हिस्से, तो वे पर्दे पर चलने वाले दृश्यों से ज्यादा हंसाते है. आधिकारिक तौर पर आज वाली फिल्म उस फिल्म का सीक्वल है, लेकिन कहानी तो छोड़िए हास्य के स्तर पर भी यह फिल्म ‘प्यार के साइड इफेक्ट्स’ जैसी नहीं है. इस फिल्म के साइड इफेक्ट्स की तुलना असल जिंदगी में लोकल सफेद शक्कर को सिर्फ पीसकर बनने वाले बूरे से बने लड्डू से की जा सकती है. कितना भी घी डाल लो, बेसन चक्की जाकर पिसवालो, सफेद पिसी शक्कर के लोकल बूरे के बने लड्डू और खांड के बूरे के बने लड्डू कभी एक नहीं होते!
फिल्म कुछ जगह हंसाती जरूर है. अच्छे से. फरहान के खड़े चेहरे से उपजे संवादों से. लेकिन फरहान अख्तर राहुल बोस नहीं है. उनका हास्य कहीं उखड़ा है कहीं सुस्त है. उनमें उस स्तर की स्वाभाविकता और अप्रत्याशित होने की कला नहीं है जिससे हास्य ज्यादा रोचक बनता है. हालांकि वे कहीं-कहीं अच्छे हैं और जहां अच्छे हैं, और उनके पास अच्छे संवाद हैं, मजा आता है. लेकिन जहां इन सब की कमी है और विद्या साधारण हैं, वहां फिल्म रुक कर खड़ी हो जाती है. और वो कई बार रुकती है, खड़ी होती है. फिल्म के पास कोई खास साइड किरदार भी नहीं है, मजेदार वीर दास को छोड़कर, जो कहानी को थोड़ा अगल-बगल करें. सभी मुख्य किरदारों के जीवन की धुरी, एक बार फिर वीर दास को छोड़कर, शादी और बच्चे हैं. शादी और बच्चों के मामले में भी फिल्म का नजरिया जरूरत से ज्यादा मर्दों वाला है. उसे महिलाओं को स्टीरियोटाइप कर शिकायती पत्नी बनाकर ही हास्य उत्पन्न करने की विधा का ज्ञान है. उसे पत्नी के नजरिए से कहानी कहने में दिलचस्पी नहीं है. और वैसे तो एक शोध के अनुसार ऑस्कर के लिए नामित इस साल की ज्यादातर इंग्लिश फिल्मों में हीरोइनों को हीरो की तुलना में औसतन बेहद कम स्क्रीन स्पेस मिला है, उतना कम जितना हमारी फिल्मों में महिला किरदारों को हमेशा से मिलता रहा है और इसलिए उस पर हर बार कुछ कहना बात का वजन कम करना ज्यादा है, लेकिन फिर भी शादी और बच्चों पर निर्भर एक फिल्म को अपनी हीरोइन के नजरिए को नजरअंदाज नहीं करना था. कम से कम उस नजर का हास्य ही तलाश लेना था.
फिल्म इंटरवल से पहले वाले भाग में औसत से बेहतर है. दूसरे भाग में वो कामेडी और फलसफे को मिलाने की नाकाम कोशिश में विद्या को एक बार फिर से घनचक्कर बनाती है. फिल्म के पास कहने के लिए भी एक ही बात है जिसके आस-पास उसे आग जला कर नाचना है. और उसकी आग पीली नहीं है. इसलिए धधकती नहीं है. रोचक नहीं है.