प्रेस और आवधिक पंजीकरण विधेयक-2019 का मसौदा तैयार किया गया है, इसमें पीआरबी अधिनियम 1867 में सुधार की ज़रूरत बतायी गयी है। इसके साथ ही कहा गया है इससे किसी पर ‘नियंत्रण’ किया जाएगा। ये बातें दिल्ली पे्रस के प्रमुख परेश नाथ ने बिल के मसौदे के सम्बन्ध में कहीं।
सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने प्रेस और आवधिक पंजीकरण विधेयक-2019 का मसौदा नवंबर में जारी किया था और इसमें कहा गया कि यह पंजीकरण के लिए है न कि नियंत्रण (रेगुलेशन) के लिए, क्यों कि नियंत्रण के कई मायने निकलते हैं। मसलन, बोलने की आज़ादी को नियंत्रित करना या दबाना हो सकता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी देश के जीवंत और लम्बे समय से चल रही पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशकों के मूल में रहा है।
दिल्ली प्रेस के प्रमुख परेश नाथ ने यह भी बताया कि विधेयक में बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी को नियंत्रित नहीं करता है; लेकिन 2009, 2011 और 2013 में लोगों के लिए ज़रूरी विषय पर बिल में सुधार की बात कही गयी थी, पर 14वीं लोकसभा के कार्यकाल के बाद उनको हटा दिया गया। परेश नाथ ने कहा कि बिल में 1867 के पीआरबी अधिनियम की प्रस्तावना और परिचय में ही स्पष्ट है कि मौज़ूदा अधिनियम का उद्देश्य भारत में मुद्रित कार्य का लेखा-लोखा रखना साथ ही उसे संरक्षण प्रदान करना था, पर इसमें ऐसी भावना का अभाव दिख रहा था। उन्होंने कहा कि मसौदे के कुछ प्रावधानों ने प्रकाशकों को बेचैन कर दिया है।
परेश नाथ ने बताया कि मसौदे के नोट सूचना मंत्रालय को भेजे गये हैं, जिसमें कहा गया है कि देश के नागरिक चाहते हैं कि प्रेस को वैधता देने के लिए एक कानून बनाया जाए और ऐसा मंच दिया जाए, जिससे समाचार पत्र के मालिकों को उनके अधिकारों को संविधान के तहत ही प्रदान किये जाएँ। उन्होंने कहा कि प्रस्तावित अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है कि इसमें पंजीकरण का ज़िक्र है न कि नियंत्रित करने का; क्योंकि इसका मतलब यह भी हो जाता है कि आप लोगों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पाबंदी चाहते हैं।
अखबारों के बारे में भ्रम की स्थिति को लेकर उन्होंने कहा कि बिल के मसौदे में समाचार पत्र के लिए कई तरह की शर्तों का ज़िक्र किया गया है, जिससे यह उलझन भी बढ़ जाती है कि इससे अखबार पढऩे वालों के कहीं अधिकार तो नहीं छिन जाएँगे।
नये विधेयक में शब्दावली को भ्रमित करने के मामले में परेश नाथ ने कहा कि भाग चार में पंजीकरण के लिए आवधिक (पीरियोडिकल) शब्द का इस्तेमाल किया गया है। धारा-6 में शीर्षक केवल ‘आवधिक’ के बारे में है। हम बिल में इन विसंगतियों को मानते हुए अखबार के लिए थोपी जा रहीं शर्तें वैसी ही रखी जाएँ जैसे कि डाकघर अधिनियम, रेलवे अधिनियम, प्रेस काउंसिल एक्स आदि के लिए रखी गयी हैं। प्रेस काउंसिल एक्ट में किसी भी तरह के बदलाव का मतलब होगा कि हर जगह मुकदमेबाज़ी का सामना करना। इसलिए पुराने ‘न्यजपेपर’ शब्द से बचें, ताकि इस तरह की दिक्कत का सामना न करना पड़े।
परेश नाथ ने कहा कि प्रेस और आवधिक पंजीकरण विधेयक-2019 के मसौदा प्रिंटिंग प्रेस वालों के लिए भारी साबित हो सकता हैं। ‘बिल की धारा-3 में सभी प्रिंटिंग प्रेस के लिए यह अनिवार्य है कि वे रिटर्न दािखल करें।’ यह एक पेंडोरा बॉक्स की तरह है, जिससे हर प्रिंटिंग प्रेस को काम करने वाले को अपने हर एक काम की जानकारी रजिट्रार को देनी होगी। प्रेस रजिस्ट्रार जनरल का दफ्तर रुकावट का कार्य करेगा। अभी इस बारे में विस्तृत विवरण नहीं मिला है, इसलिए इस पर कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। उन्होंने बिल पर आशंका जताते हएु कहा कि इससे बड़ी संख्या में स्वतंत्र प्रिंटिंग प्रेस कई चीज़ों का प्रकाशन बन्द कर देंगी, जिनके दायरे में अखबार, प्रकाशन या पत्रिका या सामान्य अथवा आवधिक और पुस्तकें भी होंगी।
परेश नाथ जिन्होंने 1940 में अंग्रेजी साहित्यिक पत्रिका कारवाँ शुरू की थी, उन्होंने विधेयक के ज़रिये थोपी जाने वाली शर्तों पर सवाल उठाये। उन्होंने कहा- ‘हमें लगता है कि गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम 1967 के तहत दोषी पाया गया व्यक्ति अगर सज़ा काटकर जेल से बाहर आ जाए, तो उसे एक बार फिर अखबार शुरू करने की इजाज़त मिलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि किसी भी कानून के तहत हिरासत में लिए जाने पर भी अपराधी के भी अपने कई मौलिक अधिकार होते हैं। नाथ ने कहा कि पीआरबी अधिनियम 1867 में ऐसा कोर्ई प्रावधान नहीं था; इसके बावजूद अंग्रेज स्वतंत्रता सेनानियों के द्वारा अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में निकाले जाने वाले अखबारों के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर थे।
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि ‘आज़ाद भारत में दोषी पाये जाने पर जीवन भर के लिए पाबंदी लगाये जाने की आवश्यकता नहीं है। इतना ही नहीं, उसे रिहाई के बाद भी अपनी राय जनता के सामने पेश करने का कोर्ई अधिकार नहीं होगा। हम यह भी सोचते हैं कि यदि एक कॉरपोरेट निकाय जहाँ विदेशियों की बड़ी हिस्सेदारी है, जिनको स्वयं प्रकाशित करने और ‘प्रकाशन’ करने की अनुमति है, तो विदेशी को भी एक समाचार पत्र लाने की अनुमति दी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि यह भी कहा जाता है कि विदेशियों के लिए संविधान के तहत कोर्ई ‘मौलिक अधिकार’ नहीं होगा; लेकिन यह वैधानिक अधिकार विदेशियों के स्वामित्व वाले कॉरपोरेट को दिया जा सकता है।
हिन्दी की कई पत्रिकाओं का प्रकाशन करने वाली दिल्ली प्रेस के मालिक परेश नाथ ने कहा किबिल में समाचार पत्रों के पंजीकरण में कई तरह की खामियाँ हैं। धारा-6 (1) में कहा गया है कि आज के समय में ज़रूरी नहीं है कि भारत में ही समाचार पत्र की छपाई हो। प्रिंङ्क्षटग की अच्छी क्वालिटी अब सब जगह उपलब्ध है, और केवल भारत में समाचार पत्र छापने के लिए (प्रकाशन की आवृत्ति के साथ) बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने बिल के मसौदे के बारे में कहा कि जब बेंगलूरु में अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया के ग्राहकों के लिए कॉल सेंटर स्थापित किया जा सकता है, तो कोई कारण नहीं बनता कि भारत से बाहर कोई अखबार छपे और यहाँ पर प्रकाशक के लिए उसे भारत पहुँचाने में कोई दिक्कत हो।
विधेयक की धारा-6 (2) अपने वर्तमान रूप में अस्पष्ट है साथ ही नियमों को बनाने के दौरान रजिस्ट्रार कार्यालय को बहुत-सी विधायी शक्तियाँ प्रदान करता है। प्रावधान बहुत अस्पष्ट हैं और यदि इसे पारित कर दिया जाता है, तो यह भ्रम पैदा करेगा; क्योंकि कुछ भी निश्चित नहीं होगा और यह बहुत अधिक रजिस्ट्रार के विवेक और उनके कार्यालय पर निर्भर करेगा कि क्या सही और क्या गलत है? उन्होंने कहा कि इसमें शुल्क निर्धारित किये जाने का भी ज़िक्र नहीं किया गया है।