इस पखवाड़े ‘तहलका’ की आवरण कथा एक ऐसी भयावह घटना पर है, जो उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले में घटी। इस घटना में 19 वर्षीय दलित युवती के साथ उच्च जाति के युवकों ने कथित तौर पर सामूहिक दुष्कर्म किया और उससे क्रूरता की तमाम हदें पार कर दीं, जिससे दो सप्ताह बाद उसकी दर्दनाक मौत हो गयी। इस घटना ने पूरे देश को आक्रोश से भर दिया। पुलिस ने जल्दबाज़ी में आधी रात को शव का परिजनों के बगैर दाह संस्कार कर डाला और पीडि़त परिवार को सुरक्षा के नाम पर घर में कैद कर दिया गया। इसे लेकर देश के हर संवेदनशील व्यक्ति ने सवाल उठाने शुरू कर दिये। अब मामले की जाँच सीबीआई को सौंप दी गयी है। निस्संदेह यह एक भयावह हत्या थी। हालाँकि युवती से दुष्कर्म को लेकर अलग-अलग जानकारियाँ सामने आयी हैं। लडक़ी पर 14 सितंबर को उसके गाँव के चार लोगों ने हमला किया था, यह बात पीडि़त युवती ने जीवित रहते दी, जिसमें उसने कहा कि उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ। उत्तर प्रदेश पुलिस ने हमले के 11 दिन बाद लिये गये नमूनों के आधार पर फॉरेंसिक रिपोर्ट का हवाला देते हुए दावा किया कि लडक़ी से दुष्कर्म नहीं हुआ।
विशेष जाँच दल (एसआईटी) ने मृतक दलित लडक़ी के परिजनों के आरोपों की सत्यता का पता लगाने के लिए नार्को-पॉलीग्राफ टेस्ट का प्रस्ताव दिया, जिससे पुलिस को व्यापक आलोचना झेलनी पड़ी। पीडि़त लडक़ी के दु:खी भाई ने ठीक ही कहा कि आरोपियों और पुलिसकर्मियों पर इस तरह का परीक्षण किया जाना चाहिए, न कि पीडि़त परिवार पर। भाई का आरोप है कि यह दुष्कर्म की घटना को दूसरा मोड़ देने की कोशिश है। पीडि़त के अस्पताल में भर्ती होने के 11 दिन बाद लिये गये नमूनों के आधार पर आयी फॉरेंसिक रिपोर्ट कि ‘दुष्कर्म नहीं हुआ’ से ही किसी अंतिम नतीजे पर पहुँच जाना मामले की जाँच को हास्यास्पद बनाने जैसा है। यह दावा भी तर्कसंगत नहीं लगता है कि यह वास्तव में साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाडऩे की साज़िश थी। पुलिस ने अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप के साथ-साथ प्राथमिकी दर्ज की है, जिसमें कहा गया है कि वास्तव में यह राज्य में जाति-आधारित दंगे छेडऩे और राज्य तथा राज्य सरकार की छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र था।
इसके बाद साज़िश और राजद्रोह के आरोपों के साथ कई मामलों का दर्ज किया जाना कहानी को बदलकर मोडऩे की व्यर्थ कोशिश दिखती है। सरकार ने आरोप लगाया कि एक साम्प्रदायिक संगठन के सदस्यों ने विरोध-प्रदर्शन के माध्यम से सरकार को उखाड़ फेंकने की साज़िश रची थी। लेकिन षड्यंत्र के इन आरोपों की पोल राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की नवीनतम रिपोर्ट भी खोलती है। ये आँकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि सन् 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के सबसे ज़्यादा मामले उत्तर प्रदेश में सामने आये हैं, जो कि देश के हर राज्य से कहीं अधिक हैं।
फिलहाल उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ लोगों की ज़बरदस्त नाराज़गी के बाद ही घटना की जाँच सीबीआई को सौंपी गयी है; भले ही दबाव के चलते प्रदेश सरकार को ही इसकी सिफारिश करनी पड़ी थी। सरकार को अपनी छवि को बहाल करने के लिए पीडि़त और उसके परिवार के प्रति दया दिखानी चाहिए और निष्पक्ष रूप से सच के साथ खड़ा होना चाहिए।
सरकार का ज़िम्मा पीडि़त परिवार को न्याय दिलाने का होना चाहिए, न कि उसे आरोपियों को बचाने की भूमिका में दिखना चाहिए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सीबीआई को जाँच सौंपने के फैसले से ही ज़ाहिर हो जाता है कि उनकी अपनी गठित की गयी एसआईटी से उसे इस गम्भीर मामले में सरकार की निष्पक्ष छवि दिखाने में मदद नहीं मिली है। ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश सरकार का अपनी ही पुलिस पर भरोसा नहीं है; लेकिन वह नहीं चाहती है कि कुछ निहित स्वार्थ जातीय संघर्ष और हिंसा भडक़ाने के अपने परोक्ष उद्देश्यों के लिए झूठ फैलाएँ।