अब लोग स्वयं को महत्त्वपूर्ण और उपयोगी दिखाने के लिए दिखावे का सहारा लेने लगे हैं। लोग हर उस जगह दिखावा करने के आदी हो चुके हैं, जहाँ से भी उन्हें किसी भी तरह का फ़ायदा मिल रहा होता है। आश्चर्य इस बात का होता है कि जो जितना अज्ञानी और अयोग्य होता है, वह उतना ही ज़्यादा दिखावा करता है। धर्म भी इससे अछूते नहीं रह गये हैं। बल्कि सच यह है कि आज के दौर में जितना दिखावा और ढोंग धर्मों में हो रहा है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं हो रहा है। इसी को आडम्बर, अन्धविश्वास और पाखण्ड कहते हैं। विडम्बना यह है कि इस आडम्बर, अन्धविश्वास और पाखण्ड में पड़े हुए लोग अपना विवेक, तर्क क्षमता और ग़लत चीज़ें को नकारना छोड़ देते हैं। विवेक और तर्क विहीन व्यक्ति प्रश्न नहीं कर सकता।
धर्म का डर दिखाकर ऐसे ही विवेकहीन तथा तर्कहीन लोगों पर पाखण्डी शासन करते हैं। हाल यह है कि ऐसे पाखण्यिों के विवेकहीन तथा तर्कहीन अनुयायियों की एक भीड़ है। इसीलिए आजकल के तथाकथित पाखण्डी स्वयं को धर्माचार्य कहलाने का दम्भ भरते हैं। उन्हें लगता है कि वे धर्म को चला रहे हैं और ईश्वर से जुड़े हुए हैं। जबकि यह एक मिथ्या भाव है, न तो वे किसी भी हाल में धर्म चला रहे हैं और न चलाने के योग्य हैं। न ईश्वर से जुड़े हैं और न उसके बारे में कुछ जानते हैं। ये लोग धर्माचार्य होने का ढोंग करते हैं। लेकिन सच तो यह है कि धर्म को चलाने के लिए किसी की ज़रूरत ही नहीं है, उसे तो स्वयं लोग अपने-अपने हिसाब से धारण कर लेते हैं। यह अलग बात है कि धर्म को एक स्वरूप में सभी लोग स्वीकार नहीं करते, जैसे परमात्मा को सब लोग एक स्वरूप में स्वीकार नहीं करते। यह भी सच है कि आज किसी भी कथित धर्म के लोग भी धर्म के रास्ते पर पूरी तरह नहीं हैं। क्योंकि या तो लोग धर्म से उतना ही वास्ता रखते हैं, जितना धर्म से उनका रिश्ता बताने के लिए पर्याप्त है। या फिर उतना, जितना त्योहार आदि तक उनके हिसाब से या समाज के हिसाब से आवश्यक है। या फिर उतना, जितने में उन्हें लगता है कि वे ईश्वर की प्रार्थना कर रहे हैं। परन्तु इन सबमें भी किसी एक कथित धर्म के लोग एकमत नहीं दिखते। वे अपने ही धर्म-ग्रन्थ द्वारा बताये रास्तों पर अलग-अलग तरीक़ों से चलते हैं। उनके प्रार्थना करने और त्योहार मनाने के तौर-तरीक़ों में भी समाज और क्षेत्र के हिसाब से अन्तर होता है।
दरअसल धर्म को समझने और उसका निर्वहन करने का लोगों का अपना-अपना नज़रिया होता है। परन्तु सवाल यह है कि वास्तविक धर्म क्या है? क्या मानवता ही सबसे बड़ा और वास्तविक धर्म है? या फिर धर्म-ग्रन्थों में बताये गये रास्ते ही वास्तविक धर्म हैं? अगर धर्म-ग्रन्थों में बताये गये रास्ते धर्म हैं, तो फिर किस धर्म-ग्रन्थ में बताया गया रास्ता वास्तविक धर्म है? अगर सभी धर्म-ग्रन्थों में बताये गये रास्ते वास्तविक धर्म हैं, तो फिर सबके नियम, पद्धतियाँ अलग-अलग किसलिए हैं? किसलिए लोग एक-दूसरे से बैर, द्वेष और ईश्र्या करते हैं? जिन लोगों में बैर, द्वेष और ईश्र्या का भाव भरा हो, वे और उन्हें धर्म के नाम पर गुमराह करने वाले तो वैसे भी धर्म के रास्ते से भटके हुए लोग हैं। फिर ऐसे लोगों को धर्म पर और उनके कथित धर्माचार्यों को धर्म का पथ-प्रदर्शक क्यों माना जाए?
तो क्या अब धर्म अधर्मियों के पाखण्ड का ज़रिया बन चुके हैं? कई धर्मों में देखा गया है कि धर्माचार्यों द्वारा बलात्कार किये गये हैं और यह सिलसिला लागतार जारी है। नफ़रतें फैलायी जा रही हैं। कट्टरता फैलायी जा रही है। ये तथाकथित धर्माचार्य अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कहीं राजनीतिक लोगों के हाथों का खिलौना बने हुए हैं, तो कहीं किसी धन्नासेठ की चौखट पर नाक रगड़ रहे हैं। कहीं ठगी के धन्धे में लगे हुए हैं, तो कहीं अय्याशी में। अर्थात् संसार से मोह-माया छोडक़र ईश्वर की शरण में जाने का दिखावा करके न तो संसार से इनका मोह छूटा है, न ऐश-ओ-आराम के साधन छूटे हैं और न ही दम्भ, प्रमाद, भोग-विलास, लालच, धृष्टता, कामुकता और क्रोध से ये मुक्त हो सके हैं। क्या ऐसे पाखण्डियों, दुराचारियों, अधर्मियों और नीचों को धर्माचार्य कहना उचित होगा? क्या इस तरह के पाखण्यिों का कोई धर्म है? क्या इन पर धर्म की कमान रहनी चाहिए? क्या ऐसे लोग ईश्वर के निकट हो सकते हैं? क्या इन्हें जीने का अधिकार है?
माता-पिता भटके हुए हों, तो सन्तान भटक सकती है या बर्बाद हो सकती है। गुरु भटका हुआ हो, तो उसके अनेक शिष्य भटककर बर्बाद हो सकते हैं; शासक भटका हुआ हो, तो देश मुसीबत में पड़ सकता है; लेकिन अगर धर्माचार्य भटके हुए हों, तो संसार सदियों तक भटकता है। और धर्म से भटका हुआ संसार सुख-सुखविधाएँ तो जुटा सकता है, परन्तु चैन, सुख और शान्ति से जी नहीं सकता। ऐसे संसार में अपराध, झगड़े, बिखण्डन और तनाव का डेरा सदैव रहता है। आज के हालात यही हैं। काश हालात सुधरें और लोग वास्तविक धर्म को समझें।