कहा जाता है कि अंतर्विरोधों की कितनी ही जटिलताएँ हों, समय सब पर मरहम लगा देता है। कभी-कभी निशान भर जाते हैं, लेकिन सतह के नीचे घाव हरे रहते हैं, खासकर जब आघात पीढिय़ों तक चले। भारतीय इतिहास में कुछ घटनाएँ विभाजन से भी ज़्यादा दर्दनाक रही हैं।
नैतिक और राजनीतिक मामले के अलावा भारत के सभ्यतावादी दर्शन पर उस क्रूर हमले के िखलाफ एक व्यावहारिक तर्क यह था कि विभाजन के लिए कोई तर्कसंगत भूगोल नहीं था। देश भर में लगभग हर गाँव, छोटे शहर या शहरी समूह में मिलीजुली आबादी थी, विशेष कर पाकिस्तान, पंजाब और बंगाल के उन दो प्रांतों में जो आबादी को बड़े पैमाने पर समेटे थे। सन् 1916 की शुरुआत में भी, जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने कभी बहुत चर्चित, लेकिन अब भुला दिये गये लखनऊ समझौते की घोषणा की, के फार्मूले ने पंजाब में आधी सीटें और बंगाल में 40 फीसदी सीटें मुस्लिमों को दीं। यह उनकी वास्तविक संख्या से थोड़ा अधिक था। दूसरे शब्दों में, पंजाब में मुसलमानों के पास कोई बड़ा बहुमत नहीं था, जबकि बंगाल में तो वे आधे से भी कम थे।
जब मोहम्मद अली जिन्ना, जो एक आस्तिक के बजाय एक राजनीतिक मुस्लिम ज़्यादा थे, ने अपने जीवन के पहले भाग के सिद्धांतों को छोड़, वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो के साथ मिलकर एकता के िखलाफ एक विचित्र-सी मुहिम शुरू की, तब प्रतिशत नहीं बदला था। यह 1946 के चुनावों में यह फिर से साबित हो गया, जब मुस्लिम सीटों के बहुतायात के बावजूद लीग बंगाल और पंजाब में बहुमत हासिल नहीं कर सकी। लेकिन आँकड़े सच का केवल एक भाग ही बताते हैं। इस बात का कोई आँकड़ा नहीं है कि लोग उन वास्तविक इलाकों में किस तरह फैले थे, जहाँ वे रहते थे। वास्तव में बहुध्रुवीय गठजोड़ भारतीय मूल्यों से उत्पन्न समन्वयता और सौहार्द का जीवित प्रमाण था। बार-बार समझदार लोग, जिनमें ब्रिटिश, जिनमें पंजाब के गवर्नर ग्लेन्सी भी थे; ने बार-बार चेतावनी दी कि विभाजन रक्तरंजित और गृहयुद्ध को खुला निमंत्रण होगा। लेकिन जिन्ना, जिन्होंने 16 अगस्त, 1946 से एक जिहाद शुरू कर दिया था और डायरेक्ट एक्शन जो कलकत्ता हत्याओं की भयावहता का गवाह था; के बाद गृह युद्ध चाहते थे। इस ज्वालामुखी का लावा नोआखली और फिर बिहार तक फैल गया। हज़ारों लोगों का नरसंहार किया गया। कोई भी सुरक्षित नहीं था। जनवरी, 1947 में मुस्लिम लीग ने पंजाब में इसे हवा दी और संघवादी सरकार को खत्म करने की माँग की, जिसने एक दशक तक यह साबित किया था कि पंजाब और भारत साझेदारी से शासित किये जा सकते हैं।
जब भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पंजाब के दंगा प्रभावित क्षेत्रों को देखा, तो वे उस भयावहता के बारे में विश्वास नहीं कर सके, जिसके बारे में उन्हें जानकारी दी गयी। विवरण जो मानवता में किसी के भी विश्वास को हिला सकते हैं, अभिलेखागार के बिना संचित खातों में दर्ज किये जाते हैं और पॉवर पेपर्स के हस्तांतरण में प्रकाशित होते हैं। अगस्त 1947 के पहले सप्ताह में गाँधीजी ने पंजाब का दौरा किया और टूटे दिल के साथ कहा- ‘क्या बर्बरता है? क्या श्रेष्ठता!’ शरणार्थी शिविर में गाँधीजी ने अपनी युवा आश्रित डॉ. सुशीला नायर, जो उनके सचिव प्यारेलाल की बहन थीं, को शरणार्थी शिविर में छोड़ दिया, ताकि यदि भारत लाये जाने से पहले शरणार्थियों पर दोबारा हमला किया जाता, तो वह सबसे पहले अपनी जान देतीं। गाँधीवादी होने की यही परिभाषा है।
ज़ाहिर है कि विभाजन के इन पीडि़तों के लिए भारत एकमात्र आश्रय था। पाकिस्तान आंदोलन में विश्वास करने वाले कई भारतीय मुसलमान अपने सपनों की भूमि पर चले गये। हालाँकि जल्दी ही उनका मोहभंग हो गया। लेकिन वह एक अलग कहानी है। वास्तविकता यह है कि अधिकांश भारतीय मुसलमान अपनी मातृभूमि में बने रहे। भारत और पाकिस्तान के बीच 8 अप्रैल, 1950 को छ: दिन तक चले विचार विमर्श के बाद के बाद, नेहरू-लियाकत संधि के रूप में पहला समझौता हुआ, जिसमें दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की बात कही गयी थी।
अगले दशकों में जो हुआ, वह चौंकाने वाले आँकड़े से पता चलता है। जबकि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग 25 फीसदी से घटकर दो फीसदी से कम रह गयी है, इस दौर में ही भारत में मुसलमानों की आबादी बढ़ी है। धर्मतंत्र और जनतंत्र में यही अंतर है। ऐसा नहीं था कि विभाजन के लिए ज़िाम्मेदार लोगों को विरोधाभासों और नतीजों का पता नहीं था। एमसी चागला, जिन्होंने बॉम्बे में जिन्ना के कक्ष में अपना कानूनी करियर शुरू किया और श्रीमती इंदिरा गाँधी की सरकार में विदेश मंत्री बने, ने दिसंबर में अपनी आत्मकथा ‘रोज़िाज’ में बताया कि उन्होंने एक बार जिन्ना से पूछा कि अगर पाकिस्तान बनाया गया, तो यूपी और बिहार में भारतीय मुसलमानों का भाग्य क्या होगा, जिन्ना ने जवाब दिया कि उन्हें इसकी परवाह नहीं है।
दरअसल, जिन्ना को बंगालियों की भी परवाह नहीं थी। पूर्वी पाकिस्तान की अपनी एकमात्र यात्रा में उन्होंने ढाका में अपने सुनने वालों को चकित करते हुए कहा कि उन्हें बंगाली के बारे में भूलना होगा और यदि वे उर्दू को भाषा के रूप में नहीं अपनाते हैं, तो उन्हें गद्दार माना जाएगा। वीरता भरे मुक्ति युद्ध में, शेख मुजीब उर रहमान की अगुवाई में पूर्वी बंगालियों ने 1971 में पश्चिमी पाकिस्तान के लोकतांत्रिक अधिपत्य को समाप्त कर दिया और अपने देश को एक ऐसे भाषाई लोकाचार के साथ फिर से खड़ा कर दिया, जिसकी रूह में लोकतंत्र था। सन् 1975 में शेख मुजीब की हत्या से यह प्रक्रिया बाधित हो गयी थी; लेकिन जिन सकारात्मक सामाजिक ताकतों को उन्होंने अपने जीवनकाल में मज़बूत किया था, वे बहुत शक्तिशाली थीं और वे स्थितियों को पटरी पर लेन में सफल रहीं। उनकी विरासत को उनकी बेटी शेख हसीना ने आगे बढ़ाया है।
विभाजन एक क्रूर प्रक्रिया थी और इसे एक शरणार्थी से बेहतर कौन जान सकता था? उनका नाम डॉ. मनमोहन सिंह था। सन् 1947 में गाँधीजी ने पश्चिम पंजाब में डॉ. सिंह के जन्मस्थल के आसपास के एक शरणार्थी शिविर का दौरा किया था। यही कारण है कि डॉ. सिंह ने 2003 में राज्यसभा में माँग की कि शरणार्थियों को नागरिकता दी जाए। तत्कालीन गृह मंत्री एल.के. आडवाणी, जो खुद एक शरणार्थी थे, भी उनकी इस दलील में कोई अस्पष्टता नहीं देखते।
भाग्य ने 2004 में डॉ. सिंह को प्रधान मंत्री बना दिया और एक दशक तक उन्होंने यह जिम्मेवारी निभायी। डॉ. सिंह ने खुद उस माँग को पूरा करने के लिए कुछ नहीं किया, जो खुद उनकी माँग थी। लेकिन उनकी उत्तराधिकारी सरकार ने इसके बारे में कुछ किया है।
अफवाहों और भ्रामक राजनीतिक बयानबाज़ी के बीच, यह बार-बार स्पष्ट किया जाना चाहिए कि हाल में पारित नागरिकता संशोधन विधेयक किसी भी धर्म या वर्ग के भारतीय के अधिकारों को नहीं छीनता है। जैसा कि डॉ. सिंह समझते हैं कि विभाजन का एक परिणाम हमारे इतिहास में दर्दनाक घटना के पीडि़तों की नागरिकता को खत्म करना है। बस इतना ही। यह भारतीय मुसलमानों के किसी भी अधिकार को नहीं छीनता है, न ही अब और न ही भविष्य में। पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के बिना पूर्ण हो सकता है, लेकिन भारत केवल अपने सभी भारतीय मुस्लिम नागरिकों के साथ ही सम्पूर्ण भारत होगा।
(एम.जे. अकबर प्रख्यात पत्रकार और लेखक हैं।)
नागरिकता : सरकारी शीर्षासन
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नये नागरिकता कानून ने हमारे नेताओं को अधर में लटका दिया है। पड़ोसी मुस्लिम देशों के मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता दें या न दें? इस सवाल ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को यह कहने के लिए मजबूर कर दिया है कि भारत सरकार अब ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ (एनआरसी) बनाएगी ही नहीं। ऐसा कहकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने भारत सरकार और भाजपा, दोनों को ही शीर्षासन करवा दिया है। उन्होंने कहा है कि सरकार तो सिर्फ ‘राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर’ ही बना रही है, जो अटलजी की भाजपा सरकार और डॉ. मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार के दौरान भी बनता रहा है।
जनसंख्या रजिस्टर और नागरिक रजिस्टर में फर्क यह है कि पहले में जो भी भारत में छ: महीने से रहता है, वह अपना नाम लिखा सकता है; लेकिन दूसरे में हर व्यक्ति के बारे में सप्रमाण विस्तृत जानकारी माँगी जाएगी और यदि उसकी जाँच में कोई कमी पायी गयी, तो उसे नागरिकता नहीं दी जाएगी। उसे घुसपैठिया करार दिया जाएगा। मोदी और शाह देश में फैले जन-आंदोलन से इतना घबरा गये हैं कि दोनों ने कह दिया है कि हम नागरिकता रजिस्टर बना ही नहीं रहे, जबकि भाजपा के 2019 के घोषणा-पत्र में उक्त रजिस्टर बनाने का साफ-साफ वादा किया गया है। अमित शाह ने 20 नवंबर, 2019 में राज्यसभा में कहा था कि सरकार राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने के लिए कृत्-संकल्प है। मेरी राय में यह देशहितकारी काम है। राष्ट्रवादी कर्तव्य है।
इसे ज़रूर किया जाना चाहिए; लेकिन मोदी और शाह शीर्षासन की मुद्रा में क्यों आ गये हैं? क्योंकि इन्होंने शरणार्थी-कानून बनाने में भूलकर दी। मुसलमान शरणार्थियों को अपनी सूची में नहीं जोड़ा। मोदी और शाह की इस छोटी-सी भूल की बड़ी-सी सज़ा अब देश को भुगतनी पड़ेगी। अब भारत, जो पहले से जनसंख्या-विस्फोट का सामना कर रहा है, दक्षिण एशिया का विराट अनाथालय बन जाएगा। सिर्फ अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, भारत अब सभी पड़ोसी देशों के शरणार्थियों, घुसपैठियों, दलालों और जासूसों का अड्डा बन सकता है।