माफ कीजिए यह सोशल सर्विस नहीं है
सजना है मुझे सजना के लिए… सौदागर फिल्म के इस गाने ने तो जीना मुहाल कर रखा है. नहीं-नहीं, वैसे गाना अच्छा है, हम भी अक्सर गुनगुनाते हैं लेकिन इसे सुनते-सुनते लोगों को ऐसा लगने लगा है जैसे हमारे सजने-संवरने का बस एक ही मकसद है- अपने सो कॉल्ड प्रियतम को रिझाना. अरे जनाब, और भी गम हैं जमाने में सजने-संवरने के सिवा! रवींद्र जैन साहब, आपने न जाने कौन-से जन्म की दुश्मनी निकाली है यह गीत लिखकर? आपको इसे लिखने की प्रेरणा कहां से मिली ये तो पता नहीं लेकिन यह जरूर बता दें कि हमारे बारे में यह धारणा एकदम गलत है. नो डाउट, हमें सजना-संवरना अच्छा लगता है लेकिन यह किसी दूसरे के लिए नहीं बल्कि हमारी अपनी खुशी के लिए होता है. आपके मन में यह सवाल नहीं आता कभी कि लड़के किसलिए सजते हैं? जी हां, हम भी ठीक उसी वजह से सजते-संवरते हैं यानी खुद अच्छा महसूस करने और अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए. हां, अगर कोई सजने-संवरने की तारीफ करे तो हमें अच्छा लगता है. लेकिन वह तो सबको अच्छा लगता है न, फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, बूढ़ा हो या जवान? तो भगवान के लिए आप लोग हमारे सजने को सोशल सर्विस समझना बंद कर दीजिए. वैसे तो को-एड संस्थान हमारे व्यक्तित्व के विकास में बहुत मायने रखते हैं लेकिन मुसीबतें यहां भी पीछा नहीं छोड़तीं. लड़कों को यह बात समझाना कितना मुश्किल है कि उनसे दो मिनट हंस कर बात कर लेने का यह मतलब नहीं है कि हम उनमें इंटरेस्टेड हैं या उनकी तरफ आकर्षित हैं. उनका भी कुसूर नहीं है, कुसूर तो हमारी सोसाइटी का है जो बचपन से ही लड़कों के जेहन में यह बात डाल देती है कि लड़की हंसी तो फंसी. अमां यार, हम भी तुम्हारी तरह इंसान ही हैं. कोई बात अच्छी लगती है तो हंस देते हैं, बुरी लगती है तो दुखी होते हैं या रोकर मन हल्का कर लेते हैं. आपको ऐसा क्यों लगता है कि हम फंसने के लिए तैयार बैठे हैं?
घोड़े पर आएगा बांका राजकुमार
बेड़ा गर्क हो इन हिंदी फिल्मों का जिन्होंने लोगों के मन में यह मुगालता डाल दिया है कि बचपन से ही हम घोड़े पर सवार होकर हमें लेने आने वाले राजकुमार के हसीं खयालों में खो जाती हैं. नहीं जी नहीं, दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं है. अव्वल तो हम पैदा होते ही शादी के सपने नहीं बुनने लगतीं, हमारे जिम्मे और भी तो काम हैं करने को. पता नहीं ऐसी कहावतें किस वक्त जन्मी होंगी. उस दौर में शायद लड़कियों के पास सज-संवर कर विवाह की प्रतीक्षा करने के अलावा दूसरा कोई काम होता ही नहीं होगा. लेकिन अब तो दूसरा वक्त है. हम ओलंपिक्स से लेकर स्पेस तक अपने झंडे गाड़ रहे हैं. ऐसे में यह बात कुछ आउटडेटेड-सी लगती है. इसलिए हे लड़कों, प्लीज, बन-ठन कर टशन में हमारे आगे-पीछे घूमना बंद करो, यार. एक और बात, हम चाहती हैं कि हमारा साथी बांका छबीला हो लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वह हर जगह हमारी कमर के इर्द-गिर्द हाथ डालकर हमें प्रोटेक्ट करता फिरे. कसम से बहुत इरिटेटिंग लगता है ऐसा बिहैवियर. अगर वह अपने अपोनेंट को ताकत से नहीं बल्कि अपने विट और ह्यूमर से हरा दे तो यह हमारे लिए ज्यादा खुशी की बात होगी.
न पैसे से प्यार न ही बातूनी हैं हम…
यह बात एकदम बकवास है कि हम लड़कियां बहुत कैलकुलेटिव होती हैं और उसी लड़के से शादी करना पसंद करती हैं जिसकी इनकम अच्छी-खासी हो. अगर मेरा होने वाला पति मुझसे ऐसा कुछ कहता है तो मेरा जवाब यही होगा कि देखो यार, मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि तुम कितना कमाते हो, या हमारी पहली डेट पर तुमने कितनी महंगी कमीज या घड़ी पहन रखी थी. एक बात साफ-साफ समझ लो यह जो तुम रोज-रोज मेरे सामने पैसे के किस्से उछालते रहते हो न कि यह प्रॉपर्टी इतने की है, वह गाड़ी या मोबाइल उतने का है. जब तुम रुपये-पैसे के आंकड़ों का जिक्र करते हो तो मेरे सिर पर वे कंकड़ की तरह बरसते हैं. मेरे लिए इतना काफी है कि हम दोनों वक्त अच्छा खाना खाएं, ठीकठाक कपड़े पहनें और एक-दूसरे के साथ थोड़ा क्वालिटी टाइम बिताएं. अगर हमारे बीच स्नेह नहीं होगा, एक-दूसरे को लेकर चिंता और फिक्र नहीं होगी, आपसी सम्मान नहीं होगा तो ये रुपये-पैसे भला किस काम आएंगे, पार्टनर?
मजाक में ही सही लेकिन बोलने के मामले में अक्सर महिलाओं की तुलना टेप रिकॉर्डर से कर दी जाती है. कहा जाता है कि वे एक बार बोलना शुरू कर देती हैं तो फिर बंद ही नहीं होतीं. लेकिन आपने कभी यह सोचा है कि हमें इतना अधिक बोलना क्यों पड़ता है? क्योंकि आप हमें सुनना ही नहीं चाहते. ईमानदारी से जरा दिल पर हाथ रखकर कहिए न आखिरी बार कब आपने हमारी बात को तवज्जो देकर सुना था और उस पर अपनी राय दी थी. नहीं, आपके पास उसके लिए वक्त नहीं है, आप दिन भर ऑफिस में या काम पर व्यस्त रहते हैं और लौटने पर अगर हम दिल की कोई भी बात शेयर करना चाहें तो आपके पास रेडीमेड जवाब होता है- यार, काम से थक कर आया हूं. दिमाग मत चाटो. अब आप ही बताइए, ऐसे में हमारे पास किसी तरह अपनी बात कहने के अलावा क्या दूसरा कोई चारा बचता है? नहीं.
न औरतों से दुश्मनी न शॉपिंग से प्रेम
अगर आपको भी लगता है कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है तो मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि प्लीज एकता कपूर के सीरियल देखना बंद कर दीजिए. दूसरी बात यह मानना बंद कीजिए कि तमाम महिलाएं शॉपिंग की दीवानी होती हैं. सच जानना हो तो टीवी सीरियलों की दुनिया से बाहर निकलकर उस समाज के बंद दरवाजों के पीछे झांकिए जहां कदम-कदम पर मर्दवादी ताले पड़े हुए हैं. आपको जाने कितनी औरतें चारदीवारी में बंद एक-दूसरे का सहारा बनती नजर आएंगी. ईर्ष्या, द्वेष और षड्यंत्र की जिस दुनिया की कल्पना हम महिलाओं के आपसी रिश्तों में करते हैं वह दुनिया महिला या पुरुष से इतर हर किसी के लिए एक-समान विद्यमान है. कृपया इसे औरतों के लिए सीमित न करें. और हां, शॉपिंग टाइम पास करने का जरिया हो सकता है लेकिन यह हमारी खुशियों की चाबी नहीं है. पुरुषों की तरह हमें भी नई जगहों पर जाना, एडवेंचरस कामों में हिस्सा लेना, जीवन में नए प्रयोग करना पसंद है, लेकिन पता नहीं कब और कैसे यह बात फैक्ट की तरह स्थापित हो गई कि हमें केवल शॉपिंग करना ही भाता है, वह दरअसल शौक नहीं हमारी मजबूरी है. आखिर कितने ऐसे पुरुष हैं जिनको यह पता होगा कि उनके घर में कौन-सी चीज घटी हुई है? किराने से लेकर पति के कपड़ों तक ज्यादातर चीजें खरीदने का जिम्मा जब वाइफ पर होगा तो यह उसका शौक हुआ या मजबूरी?
टॉप जॉब के लिए परफेक्ट हैं हम
यह मिथक पूरी तरह पुरुषों द्वारा अपने पक्ष में गढ़ा गया है कि महिलाएं नर्म स्वभाव और कम आक्रामकता के चलते किसी भी संस्थान में शीर्ष पद को नहीं संभाल सकतीं क्योंकि वहां तमाम तरह के साम, दाम, दंड, भेद और आक्रामकता की आवश्यकता होती है. यह कहने में भी गुरेज नहीं किया जाना चाहिए कि यह एक तरह से लैंगिक भेदभाव भरी टिप्पणी है. एक के बाद एक विभिन्न शोधों से यह बात सामने आ चुकी है कि महिलाएं शीर्ष पद संभालने के मामले में पुरुषों से कतई कमतर नहीं होतीं. बल्कि बचपन से ही घरेलू जिम्मेदारियां संभाल रही महिलाओं में प्रबंधन की क्षमता पुरुषों के मुकाबले अधिक होती है. नैसर्गिक रूप से मौजूद विनम्रता उनको अपने सहयोगियों और कर्मचारियों का भरोसा जीतने में मदद करती है और वे उनको साथ लेकर आगे बढ़ती हैं. प्राय: ऐसे उदाहरण दिए जाते हैं कि चूंकि महिलाओं को परिवार और करियर के दो मोर्चो पर जूझना पड़ता है इसलिए वे करियर को लेकर गंभीर नहीं होती हैं. लेकिन ऐसा हरगिज नहीं है. इस बात को एक दूसरे पहलू से देखें तो तस्वीर ज्यादा साफ नजर आती है. अगर कोई महिला पारिवारिक जिम्मेदारियां संभालते हुए भी अपने करियर को आगे बढ़ा रही है तो इससे साफ जाहिर होता है कि वे करियर को लेकर गंभीर होने के कारण ही दोहरी मेहनत कर रही हैं. इन औरतों की करियर को लेकर प्रतिबद्धता पर भला कैसे शक किया जा सकता है? क्या इंदिरा नूई, चंदा कोचर, किरण मजूमदार शॉ, मेग व्हिटमैन और ऐसे ही तमाम उदाहरण इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि महिलाएं करियर को बहुत सधे हुए तरीके से आगे बढ़ा सकती हैं.
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