पहचान के विवाद में भाजपा सरकारें

– कांवड़ यात्रा वाले मार्गों में स्थित दुकानों पर उनके मालिकों के नाम लिखने के निर्देश पर रोक

इंट्रो– उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार अपने कई विवादास्पद फ़ैसलों के चलते अक्सर चर्चा में रहती है। इस बार उत्तर प्रदेश के साथ-साथ उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश सरकारों ने भी कांवड़ यात्रियों के मार्गों में ढाबों, होटलों और खाद्य पदार्थ बेचने वालों की रेहड़ियों पर उनका नाम लिखने का आदेश देकर हंगामा खड़ा कर दिया। लेकिन देश के सर्वोच्च न्यायालय ने यात्रा मार्ग पर भोजनालयों और रेहड़ियों पर उनके मालिकों का नाम लिखने के राज्यों के इस प्रशासनिक विवादास्पद निर्देश पर रोक लगा दी है। प्रशासनों के इस निर्देश और सर्वोच्च न्यायालय की इस पर रोक से योगी सरकार समेत सभी भाजपा सरकारों की छवि ख़राब हुई है और विपक्ष को इससे सरकार पर निशाना साधने का मौक़ा मिल गया है। इस पूरे मामले को लेकर मुदित माथुर की रिपोर्ट :-

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कांवड़ियों की शान्तिपूर्ण तीर्थयात्रा सुनिश्चित करने के लिए यात्रा मार्ग के किनारे की दुकानों, ढाबों और रेहड़ियों के मालिकों को अपना नाम लिखने का निर्देश दिया जाना भारी पड़ गया है। हालाँकि यह निर्देश उत्तराखण्ड और मध्य प्रदेश में भी जारी किया गया। इस विवादास्पद निर्देश के बाद योगी आदित्यनाथ, पुष्कर सिंह धामी और मोहन यादव की सरकारों को जहाँ विपक्षी पार्टियों और आलोचकों ने घेर लिया है, तो वहीं दूसरी तरफ़ सर्वोच्च न्यायालय ने पहले 26 जुलाई तक इस निर्देश पर रोक लगाने के बाद अब और आगे बढ़ा दिया है। तीनों राज्यों की सरकारों के निर्देश पर स्थगन आदेश के बाद न्यायालय इस मामले पर अब अगली सुनवाई 05 अगस्त को करेगा। उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और मध्य प्रदेश सरकारों द्वारा जारी निर्देशों पर 26 जुलाई को सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फ़ैसला सुरक्षित रखते हुए एक और तारीख़ दे दी।

जस्टिस हृषिकेश रॉय और एसवीएन भट्टी की पीठ ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और मध्य प्रदेश सरकारों के निर्देशों के ख़िलाफ़ एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स के तहत टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा, प्रोफेसर अपूर्वन और स्तंभकार आकार पटेल द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायालय की कार्यवाही को आगे बढ़ाया। इस मामले में मोइत्रा की ओर से पेश वरिष्ठ वकील डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने रात 10:30 बजे जवाबी हलफ़नामा दायर किया। 25 जुलाई को और प्रत्युत्तर दाख़िल करने के लिए समय की आवश्यकता थी। यह कहते हुए कि जवाबी हलफ़नामा रिकॉर्ड पर नहीं आया है, पीठ ने मामले को स्थगित करने पर सहमति व्यक्त की। इसके उत्तर में उत्तर प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि कांवड़ यात्रा मार्ग पर दुकानों को मालिकों के नाम प्रदर्शित करने का उसका निर्देश यह सुनिश्चित करने के लिए था कि कांवड़ियों की धार्मिक भावनाएँ संयोग से भी आहत न हों और शान्ति बनी रहे। दुकानों और भोजनालयों के नाम बदले होने के कारण होने वाले भ्रम के सम्बन्ध में कांवड़ियों से प्राप्त शिकायतों के बाद यह निर्देश जारी किया गया था। सरकार ने कहा- ‘पिछली घटनाओं से पता चला है कि बेचे जाने वाले भोजन के प्रकार के बारे में ग़लतफ़हमी के कारण तनाव और गड़बड़ी हुई। ऐसी स्थितियों से बचने के लिए निर्देश एक सक्रिय उपाय है। राज्य सरकार ने कहा कि आदेश मांसाहारी भोजन की बिक्री पर प्रतिबंध को छोड़कर खाद्य विक्रेताओं के व्यापार या व्यवसाय पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाता है। दुकानदार हमेशा की तरह अपना व्यवसाय संचालित करने के लिए स्वतंत्र हैं। मालिकों के नाम लिखने का निर्देश केवल पारदर्शिता सुनिश्चित करने और किसी भी संभावित भ्रम को दूर रखने के लिए एक अतिरिक्त उपाय है। कांवड़ियों को परोसे जाने वाले भोजन से सम्बन्धित छोटे भ्रम भी उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने और दंगा भड़काने की सामर्थ्य रखते हैं; ख़ासकर मुज़फ़्फ़रनगर जैसे सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में।

उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा कि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि निर्देश धर्म, जाति या समुदाय के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता है। मालिकों के नाम और पहचान प्रदर्शित करने की आवश्यकता कांवड़ यात्रा मार्ग पर सभी खाद्य विक्रेताओं पर समान रूप से लागू होती है, भले ही उनकी धार्मिक या सामुदायिक संबद्धता कुछ भी हो। राज्य सरकार ने न्यायालय को बताया कि शान्तिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण तीर्थयात्रा सुनिश्चित करने के लिए निवारक उपाय करना अनिवार्य है।

उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि केंद्रीय क़ानून खाद्य और सुरक्षा मानक अधिनियम-2006 के तहत नियमों के तहत ढाबों सहित प्रत्येक खाद्य सामग्री विक्रेता मालिक को अपना नाम प्रदर्शित करना आवश्यक है। मालिकों के नाम प्रदर्शित करने के निर्देश पर रोक लगाने वाला न्यायालय द्वारा पारित अंतरिम आदेश इस केंद्रीय क़ानून के अनुरूप नहीं है, क्योंकि इसे याचिकाकर्ताओं द्वारा न्यायालय के संज्ञान में नहीं लाया गया। इस पर न्यायमूर्ति रॉय ने टिप्पणी की कि यदि ऐसा कोई क़ानून है, तो राज्य को इसे सभी क्षेत्रों में लागू करना चाहिए, केवल कुछ क्षेत्रों में ही नहीं। यह दिखाते हुए एक काउंटर दाख़िल करें कि इसे हर जगह लागू किया गया है।

राज्य सरकार के वकील रोहतगी ने मामले की शीघ्र सुनवाई की अपील करते हुए न्यायालय से कहा कि अगर इस मामले में शीघ्र सुनवाई नहीं की गयी, तो मामला निरर्थक हो जाएगा, क्योंकि कांवड़ यात्रा की अवधि दो सप्ताह में समाप्त हो जाएगी। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ताओं का कर्तव्य है कि वे ऐसे क़ानून के अस्तित्व के बारे में न्यायालय को सूचित करें। इसके जवाब में सिंघवी ने कहा कि चूँकि पिछले 60 वर्षों की कांवड़ यात्राओं के दौरान मालिकों के नाम प्रदर्शित करने का कोई आदेश नहीं था, इसलिए इस तरह के निर्देशों को लागू किये बिना इस वर्ष यात्रा की अनुमति देने में कोई नुक़सान नहीं है। याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता चंदर उदय सिंह और हुज़ैफ़ा अहमदी भी उपस्थित हुए। सिंघवी ने हलफ़नामे से निम्नलिखित बयान पढ़ा- ‘निर्देशों की अस्थायी प्रकृति यह सुनिश्चित करती है कि वे खाद्य विक्रेताओं पर कोई स्थायी भेदभाव या कठिनाई नहीं पैदा करते हैं। साथ ही कांवड़ियों की भावनाओं और उनकी धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं को बनाए रखना भी सुनिश्चित करते हैं। तो वे कहते हैं कि भेदभाव है। लेकिन यह स्थायी नहीं है।’

उत्तराखण्ड के उप महाधिवक्ता जतिंदर कुमार सेठी ने कहा कि क़ानून मालिकों के नाम प्रदर्शित करने को अनिवार्य बनाता है और अंतरिम आदेश समस्याएँ पैदा कर रहा है। यह क़ानूनी आदेश राज्य द्वारा सभी त्योहारों के दौरान पूरे देश में लागू किया जा रहा है। यदि कोई अपंजीकृत विक्रेता कांवड़ यात्रा मार्ग पर कोई शरारत करता है, तो इससे क़ानून-व्यवस्था की समस्या पैदा हो जाएगी। जब पीठ ने उनसे पूछा कि शरारत क्या हो सकती है? आपने एक अपंजीकृत विक्रेता का उदाहरण दिया, जो तीर्थयात्रियों को आम बेच रहा है, उससे क्या दिक़्क़त? पीठ ने कुछ कांवड़ तीर्थयात्रियों की संक्षिप्त दलीलें भी सुनीं, जिन्होंने सरकार के निर्देशों का समर्थन करने के लिए मामले में हस्तक्षेप किया था। हस्तक्षेपकर्ता ने कहा कि कांवड़ यात्री लहसुन और प्याज के बिना तैयार केवल शाकाहारी भोजन लेते हैं। उन्होंने कहा कि कुछ दुकानें भ्रामक नामों वाली हैं, जिससे यह ग़लत धारणा बनती है कि वे केवल शाकाहारी भोजन परोसते हैं, जिससे तीर्थयात्रियों को परेशानी होती है। उन्होंने कहा कि सरस्वती ढाबा, माँ दुर्गा ढाबा जैसे नामों से दुकानें हैं। हम मानते हैं कि यह शुद्ध शाकाहारी हैं। जब हम दुकान में प्रवेश करते हैं, तो मालिक और कर्मचारी अलग-अलग होते हैं और वहाँ मांसाहारी भोजन परोसा जाता है। यह हमारे रीति-रिवाज और उपयोग के ख़िलाफ़ है। इसी संदर्भ में मुज़फ़्फ़रनगर पुलिस ने स्वेच्छा से नाम लिखने की सलाह दी थी।

पीठ ने स्पष्ट किया कि उसने किसी को भी मालिकों और कर्मचारियों के नाम स्वेच्छा से प्रदर्शित करने से नहीं रोका है और रोक केवल किसी को ऐसा करने के लिए मजबूर करने के ख़िलाफ़ है। आदेश तय होने के बाद उत्तराखण्ड के डिप्टी एजी ने पीठ से यह स्पष्ट करने का आग्रह किया कि क्या राज्य मालिक के नाम प्रदर्शित करने की आवश्यकता वाले क़ानून के तहत कार्रवाई कर सकता है? हालाँकि पीठ ने कहा कि अंतरिम आदेश यथावत् रहेगा। मध्य प्रदेश राज्य की ओर से पेश वकील ने उस समाचार रिपोर्ट का खण्डन किया कि उज्जैन नगर निगम ने इसी तरह का निर्देश जारी किया है। सुनवाई की आख़िरी तारीख़ पर सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देशों के ख़िलाफ़ दायर तीन याचिकाओं पर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश और दिल्ली को नोटिस जारी किया। इसने विवादित निर्देशों पर भी रोक लगा दी, जिसमें कहा गया था कि दुकानों और भोजनालयों को उस तरह का भोजन प्रदर्शित करने की आवश्यकता हो सकती है, जो वे कांवड़ियों को बेच रहे थे। हालाँकि उन्हें प्रतिष्ठानों में तैनात मालिकों और कर्मचारियों के नाम / पहचान प्रदर्शित करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।

कांवड़ यात्रा एक वार्षिक तीर्थयात्रा है, जो शिव-भक्तों द्वारा की जाती है। इन्हें कांवड़िया या भोले के नाम से जाना जाता है, जिसके दौरान वे पवित्र गंगा नदी का जल लाने के लिए उत्तराखण्ड स्थित हरिद्वार, गौमुख और गंगोत्री और सुल्तानगंज, भागलपुर, बिहार में अजगैबीनाथ जैसे प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थलों की यात्रा करते हैं। 17 जुलाई, 2024 को मुज़फ़्फ़रनगर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने एक निर्देश जारी किया कि कांवड़ यात्रा मार्ग के सभी भोजनालयों, खाद्य पदार्थों बिक्री केंद्रों पर उनके मालिकों को अपना नाम लिखना आवश्यकता है। इस निर्देश को 19 जुलाई, 2024 को पूरे राज्य में विस्तारित किया गया था। कथित तौर पर निर्देश को उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के सभी ज़िलों में स$ख्ती से लागू किया गया। उक्त निर्देश के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष तीन याचिकाएँ दायर की गयीं। पहली याचिका एनजीओ-एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स (एपीसीआर) ने, दूसरी टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने और तीसरी जाने-माने राजनीतिक टिप्पणीकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षाविद् अपूर्वानंद झा और स्तंभकार आकार पटेल ने दायर की। याचिकाकर्ताओं का अन्य बातों के साथ-साथ तर्क है कि ये निर्देश धार्मिक विभाजन पैदा करने की धमकी देते हैं और भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14, 15, 17 और 19 के तहत गारंटीकृत नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। ये निर्देश भोजनालयों के मालिकों और श्रमिकों की निजता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। उन्हें ख़तरे में डालते हैं और उन्हें निशाना बनाते हैं। शुरुआत में याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने निर्देशों के पीछे तर्कसंगत साँठगाँठ पर सवाल उठाया। उन्होंने बताया कि स्थिति चिन्ताजनक है। क्योंकि जिन पुलिस अधिकारियों ने ये निर्देश जारी किये हैं, उन्होंने विभाजन पैदा करने का बीड़ा उठाया है।

डॉ. सिंघवी का दावा है कि ये निर्देश वस्तुत: मालिकों की पहचान करेंगे और उनका आर्थिक बहिष्कार करेंगे। उन्होंने तर्क दिया कि इससे अन्य राज्यों में डोमिनोज प्रभाव पैदा होगा। पीठ ने पूछा कि क्या ये एक प्रेस बयान में जारी किये गये आदेश या निर्देश थे? इस पर डॉ. सिंघवी ने स्पष्ट किया कि पहले निर्देश प्रेस बयानों के माध्यम से जारी किये गये थे। हालाँकि अधिकारी इसे स$ख्ती से लागू कर रहे हैं। डॉ. सिंघवी ने कहा कि ऐसा पहले कभी नहीं किया गया। इसका कोई वैधानिक समर्थन नहीं है। कोई भी क़ानून पुलिस आयुक्तों को ऐसा करने की शक्ति नहीं देता। निर्देश हर फेरी वालों, चाय की दुकानों के लिए हैं। कर्मचारियों और मालिकों के नाम देने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता है।

न्यायमूर्ति रॉय ने फिर पूछा कि क्या सरकार की ओर से कोई औपचारिक आदेश जारी किया गया है? डॉ. सिंघवी ने जवाब दिया कि यह एक छलावा वाला आदेश है। न्यायमूर्ति रॉय ने बताया कि कुछ निर्देश स्वैच्छिक प्रकृति के हैं। इस पर डॉ. सिंघवी ने कहा कि आपका आधिपत्य उल्लंघन करने वाले लोगों पर कठोर है और जब लोग बहुत चालाक और छद्मवेशी होते हैं, तो वे और अधिक कठोर होते हैं। पीठ ने पूछा कि क्या निर्देशों में जबरदस्ती का कोई तत्त्व है? डॉ. सिंघवी ने कहा कि इनमें से कुछ निर्देश अनुपालन न करने पर उल्लंघनकर्ताओं पर ज़ुर्माना लगाते हैं। उन्होंने आगे तर्क दिया कि ये निर्देश एक बड़ा मुद्दा उठाते हैं, जो यह है कि पहचान के आधार पर बहिष्कार होगा। हालाँकि जस्टिस भट्टी ने कहा कि इस मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की ज़रूरत नहीं है। उन्होंने संक्षेप में बताया कि इन निर्देशों के तीन आयाम हैं- सुरक्षा, मानक और धर्मनिरपेक्षता। डॉ. सिंघवी ने न्यायालय को बताया कि देश में दशकों से कांवड़ यात्रा का चलन है। न्यायालय को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई और बौद्ध आदि सभी धर्मों के लोग कांवड़ियों की मदद कर रहे हैं। शाकाहारी और मांसाहारी भोजन के मुद्दे पर डॉ. सिंघवी ने कहा कि मौज़ूदा क़ानून हैं, जो मांसाहारी भोजन परोसने पर स$ख्त हैं। बहुत सारे शुद्ध शाकाहारी रेस्तरां हैं, जो हिन्दुओं द्वारा चलाये जाते हैं; लेकिन उनके कर्मचारी मुस्लिम हैं। क्या मैं कह सकता हूँ कि मैं वहाँ जाकर खाना नहीं खाऊँगा? क्योंकि खाना किसी तरह उनके (मुस्लिम कर्मचारियों) द्वारा छुआ जाता है। न्यायमूर्ति भट्टी ने एक दिलचस्प कहानी साझा करते हुए कहा कि केरल में एक होटल हिन्दू चलाता है और दूसरा मुस्लिम चलाता है। लेकिन वह अक्सर किसी मुस्लिम के स्वामित्व वाले शाकाहारी होटल में जाते थे; क्योंकि वह अपने होटल में अंतरराष्ट्रीय मानकों की स्वच्छता बनाए रखते थे।

क्या निर्देश स्वैच्छिक हैं?

डॉ. सिंघवी ने बताया कि निर्देशों में ‘स्वेच्छा से’ कहा गया है। उन्होंने तर्क दिया कि इसमें तथ्य छुपाये गये हैं। क्योंकि यदि नामों का ख़ुलासा किया जाता है, तो व्यक्ति को आर्थिक बहिष्कार का सामना करना पड़ेगा। यदि नामों का ख़ुलासा नहीं किया गया, तो व्यक्ति को ज़ुर्माना देना होगा। डॉ. सिंघवी ने स्पष्ट किया कि हालाँकि ये स्वैच्छिक निर्देश हो सकते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि निर्देश सामान्य रूप से सभी ज़िलों में लागू होंगे। डॉ. सिंघवी ने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय के कई लोगों ने कथित तौर पर अपनी नौकरियाँ खो दी हैं। उन्होंने कहा कि क़ानून केवल कैलोरी और भोजन की प्रकृति प्रदर्शित करने का प्रावधान करता है। उन्होंने खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम-2006 के तहत खाद्य सुरक्षा मानक (लेबलिंग और प्रदर्शन) विनियम-2020 का उल्लेख किया और तर्क दिया कि क़ानून मालिकों को अपने भोजनालयों का नाम उनके नाम से रखने का निर्देश नहीं देता है। उन्होंने अदालत को बताया कि क़ानून खाद्य पदार्थों पर केवल दो शर्तें निर्धारित करता है, यानी खाद्य पदार्थों पर केवल कैलोरी और शाकाहारी या मांसाहारी लेबलिंग का उल्लेख किया जाना चाहिए। मुज़फ़्फ़रनगर में, जहाँ इस तरह का पहला निर्देश पुलिस की ओर से आया था; रोक से कोई ख़ास फ़$र्क नहीं पड़ा है। कुछ सड़क विक्रेताओं को छोड़कर लगभग सभी भोजनालयों के आगे विवरण के साथ नयी नेम प्लेट्स लगी हैं। भ्रम के बजाय सावधानी बरतते हुए कम-से-कम कुछ भोजनालय बंद हो गये हैं। इस पर उत्तर प्रदेश सरकार ने पारदर्शिता और धार्मिक भावनाओं के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निर्देश का बचाव किया।

50 वर्षीय वसीम अहमद, जिनकी दुकान में 2023 में दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं के एक समूह ने अशुद्ध भोजन परोसने के लिए एक हिंदू देवता के नाम का दुरुपयोग करने का आरोप लगाते हुए तोड़फोड़ की थी। पिछले साल तक वह हरिद्वार के बाईपास रोड पर हलचल भरा गणपति टूरिस्ट ढाबा चलाते थे। उनका सह-मालिक एक हिंदू था, इसलिए ऐसा नाम रखा। वह कहते हैं कि उनके यहाँ सभी कर्मचारी थे। नौ वर्षों तक उन्हें किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। अहमद ने इसके बाद अपना ढाबा दोबारा नहीं खोला है। उनका मानना ​​है कि मालिकों के नाम प्रदर्शित करने के नवीनतम पुलिस आदेश का कारण वही घटना है। फ़रमान अली ने अपनी शीरमाल की दुकान खुली रखी है। उन्हें उम्मीद है कि कांवड़िये उनके नाम पर ध्यान देंगे। फ़रमान अफ़सोस के साथ बताते हैं कि पिछले साल तक कांवड़िये विशेष रूप से मीठी रोटी की तलाश में उनकी दुकान पर भोजन करते थे, जिसे वह 17 वर्षों से चला रहे हैं। वे चिल्लाते- ऐ भोले! क्या बनायेहो (आपने क्या बनाया है)? हालाँकि बिक्री पहले की तुलना में घटकर 10वें हिस्से पर आ गयी है। पहले मैं कांवड़ यात्रा के दौरान एक दिन में लगभग सौ शीरमाल बेचता था; लेकिन अब यह घटकर केवल 10 रह गया है। पिछले साल तक मैं कांवड़ यात्रा के दौरान शाकाहारी भोजन और नाश्ता बेचने वाला एक भोजनालय भी चलाता था। लेकिन अब लड़ाई में उतरने की हिम्मत कौन करेगा?

हरिद्वार में 25 जुलाई की सुबह कांवड़ यात्रा मार्ग पर मस्जिदों और मज़ारों को बड़ी स$फेद चादरों से ढक दिया गया और शाम तक ज़िला प्रशासन ने उन्हें हटा दिया। पुलिस ने कहा कि जो हुआ वह ग़लती थी। हरिद्वार में यात्रा मार्ग शहर के ज्वालापुर क्षेत्र से होकर गुज़रता है, जहाँ मस्जिदें और मज़ारें स्थित हैं। जबकि प्रशासन ने दावा किया कि उन्होंने चादरें लगाने के लिए कोई आदेश जारी नहीं किया।

हरिद्वार ज़िले के प्रभारी मंत्री सतपाल महाराज ने कहा कि यह उपाय किसी भी आन्दोलन या अशान्ति को रोकने और कांवड़ यात्रा की सुचारू प्रगति सुनिश्चित करने के लिए किया गया था। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह पहली बार है, जब अधिकारियों द्वारा इस तरह का अनोखा उपाय अपनाया गया है।

इस क़दम के बारे में पूछे जाने पर सतपाल महाराज ने कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया है कि कोई आन्दोलन या उपद्रव न हो। इस बात का ध्यान रखा गया कि हमारी कांवड़ यात्रा सुचारू रूप से चलती रहे। जहाँ कोई निर्माण चल रहा है, वह भी ढका गया है। …हमने यहाँ किया है और देखेंगे कि हमें क्या प्रतिक्रिया मिलती है? हम उसका अध्ययन करेंगे। हालाँकि हरिद्वार के पुलिस अधीक्षक (शहर) स्वतंत्र कुमार ने मीडिया को बताया कि ज़िला प्रशासन या पुलिस की ओर से ऐसा करने का कोई आदेश नहीं था।