पश्चिम बंगाल में हिंसा से ग्रस्त त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव 2024 से पहले राज्य की जनता के मूड का संकेत देंगे। इन चुनावों में चार कोणीय मुक़ाबला है, जिसमें सत्तारूढ़ टीएमसी को भाजपा, कांग्रेस और वाम दलों की चुनौती है। पार्टी के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ख़ुद मैदान में उतरी हैं, जबकि अन्य दलों के भी राज्य स्तरीय नेता प्रचार कर रहे हैं। चुनाव पूर्व हिंसा और इस मामले के सर्वोच्च अदालत तक जाने के कारण यह चुनाव काफ़ी अहम हो गये हैं।
जिस तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने 42 में से 18 सीटें (2014 में सिर्फ़ दो सीटें) जीत ली थीं, उससे लगा था कि पार्टी राज्य में बड़ी ताक़त बनकर उभर गयी है। हालाँकि इसके दो साल बाद ( 2021) में हुए विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की टीएमसी ने 294 में से 213 सीटें जीतकर भाजपा की मुहिम को धीमा कर दिया। उस चुनाव में भाजपा भले 77 सीटें जीत गयी; लेकिन इस दौरान उसके कई बड़े नेता टीएमसी में शामिल हो गये। अब पंचायत चुनाव में इन दोनों ही नहीं कांग्रेस-वामदलों की भी परीक्षा होगी। ममता बनर्जी ने पिछले दो साल में जनता से जुड़ी कई योजनाएँ लागू की हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि उनकी राज्य पर गहरी पकड़ है। हालाँकि भाजपा ने भी पिछले तीन साल में राज्य में अपना आधार बनाने की कोशिश की है। यहाँ तक कि ममता के क़रीबी नेता सुबेन्दु अधिकारी को उनसे तोड़ लिया। लेकिन भाजपा ने विधानसभा चुनाव के बाद अपना आधार बहुत ज़्यादा बढ़ा लिया हो, ऐसा नहीं लगता। अधिकारी उसके लिए उतने बेहतर रणनीतिकार साबित नहीं हुए हैं।
पंचायत के यह चुनाव 8 जुलाई को होने हैं, जबकि नतीजे 11 जुलाई को आएँगे। हालाँकि वहाँ टीएमसी के क़रीब 12 फ़ीसदी उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिये गये हैं। टीएमसी की यह संख्या पिछले चुनाव (34 फ़ीसदी) के मुक़ाबले भले कम है; लेकिन अन्य दलों के निर्विरोध जीते उम्मीदवारों के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा है। निर्विरोध चुने जाने वालों में 63 भाजपा, 40 कांग्रेस और 36 माकपा के हैं। पंचायत की त्रिस्तरीय ढाँचे में बंगाल में कुल 73,887 सीटें हैं, जिनमें से 9,013 निर्विरोध चुन लिये गये हैं, जिनमें से अकेले टीएमसी के ही 8,874 उम्मीदवार हैं। इस बार बीरभूम, मुर्शिदाबाद, बांकुड़ा और दक्षिण 24-परगना ज़िलों में काफ़ी हिंसा हुई है। भाजपा, कांग्रेस और माकपा आरोप लगा चुके हैं कि उनके उम्मीदवारों को कई जगह पर्चा भरने से ही रोक दिया गया। हालाँकि टीएमसी का कहना है कि यह उनके उम्मीदवारों के निर्विरोध नहीं चुने जाने की निराशा है।
हाल में जद(यू) नेता केसी त्यागी ने जब यह दावा किया कि पश्चिम बंगाल में अगले लोकसभा चुनाव के लिए टीएमसी और कांग्रेस का समझौता तय है। सवाल है कि क्या इसका असर पंचायत चुनाव में भी दिखेगा? यदि ऐसा हुआ, तो भाजपा को इससे सबसे ज़्यादा दिक़्क़त होगी। हाल में एक विधानसभा उपचुनाव में जिस तरह कांग्रेस ने जीत हासिल की थी (बाद में यह विधायक टीएमसी में शामिल हो गया) उससे यह संकेत मिले थे कि कांग्रेस मुस्लिम, दलित और पिछड़े वोट बैंक को फिर हासिल कर रही है। यह भाजपा ही नहीं टीएमसी जैसे दलों के लिए भी चिन्ता का सबब है। जबसे विपक्षी एकता की बैठकें चल रही हैं, ममता बनर्जी ने कांग्रेस पर हमले कमोवेश बंद कर दिये हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और माकपा राज्य में शून्य पर रहे थे, जिससे दोनों की ख़ासी फ़ज़ीहत हुई थी। अब कांग्रेस ने उस स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश की है; लेकिन यह कोशिश फ़िलहाल राज्य स्तर के नेताओं तक ही सीमित है। राहुल गाँधी या प्रियंका गाँधी ने अभी बंगाल का रुख़ नहीं किया है। यदि कहीं टीएमसी-कांग्रेस में सच में समझौता हो गया, तो बंगाल में कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी जैसे नेताओं के लिए कठिन समय होगा, जो टीएमसी से किसी भी तरह के समझौते के सख़्त ख़िलाफ़ हैं।