हर मायने में हम एक गहरे संकट की स्थिति से घिरे हुए हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जंगल जल रहे हैं। नदियाँ सूख रही हैं। महासागरों का पानी तेज़ाब में बदल रहा है। बारिश अप्रत्याशित होती जा रही है। बढ़ते हुए शहरों में तपते हुए द्वीप बन रहे हैं। जनहित के नाम पर समुदायों को बेदखल किया जा रहा है, और हिफाज़त के नाम पर जंगली जीवन और जैव-विविधता का सत्यानाश हो रहा है। इस सबके बीच दुनिया पर हुक्म चलाते कॉरपोरेट वर्ग का धरती को तहस-नहस करने का अभियान जारी है और लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए तानाशाह उदारपंथी लोकतंत्र की सभी संस्थाओं से खिलौने की तरह खेल रहे हैं। प्रकृति और समुदाय के साथ सीधे टकराव पर टिकी हुई मौज़ूदा राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था ने हमें भोजन, ऊर्जा, घर, पर्यावरण, आर्थिकी का मिला-जुला संकट थमा दिया है, जिसके चलते लोगों में इस बात को लेकर घबराहट का होना वाजिब है कि इंसान के अस्तित्व पर खतरा तेज़ी से बढ़ रहा है।
शहर इस बदलाव के केंद्र में हैं। दुनिया में शहरी आबादी तेज़ी से बढ़ रही है; लेकिन ये शहरीकरण टिकाऊ नहीं है। शहर की योजना बनाने वाले यथार्थ से अलग-थलग एक ही दिशा में सोचते हुए सिर्फ आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने की योजना बनाते हैं। आर्थिक वृद्धि मुनाफा बढऩे और कुछ लोगों के हाथों में ज़्यादा-से-ज़्यादा पूँजी इकट्ठी होने का पर्याय है। इसके लिए शासक वर्ग को ज़्यादा-से-ज़्यादा संसाधनों पर एकाधिकार चाहिए। इसलिए शहर ऊपर, नीचे, बाहर; सब तरफ बढ़ रहे हैं। सामान, ऊर्जा, और सूचना का प्रवाह अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर आज जितना नहीं कभी नहीं था। इसके चलते जो प्रक्रियाएँ लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित करती हैं और जिस वृहद् तंत्र के वे हिस्सा हैं, लोगों की समझ और सामाजिक जीवन से परे हो गये हैं। ये बदलाव धन संचय की पूँजीवादी प्रक्रिया के तहत आया है और साथ ही इस बदलाव से धन संचय और तेज़ हुआ है। धन संचय की वर्तमान प्रक्रियाओं में से सबसे अहम है- वित्तीयकरण और निजीकरण; जिसके ज़रिये सामान्य जीवन के हर पक्ष पर कॉर्पोरेट को नियंत्रण मिल जाता है। हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हर हिस्सा हमारी निगरानी से इतना दूर हो गया है कि वो असलियत से अलग हो गया है। जीवन के स्वाभाविक स्वरूप और उसको सहारा देने वाली सामाजिक-पारिस्थितिक प्रक्रियाओं से दूर होते शहर और शहर के जीवन की नीरसता से घिरा इंसान पूँजीवादी आधुनिकता की जादुई बनावट में अपना बयान पा रहा है।
दुनिया की खाद्य व्यवस्था आज के समय में कॉर्पोरेट द्वारा नियंत्रित और बेहद वित्तीयकृत (सरल मायने में यथार्थ से दूर) है और चंद लोगों के दाँव खेलने से यह तय हो सकता है कि बाकी लोग भोजन पाते हैं या नहीं, और जो पाते हैं वो किन दामों पर? शहर में खाने की आपूर्ति में दूर गाँवों और दूसरे देशों में होने वाली उपज का हिस्सा बढ़ रहा है; क्योंकि शहर और उसके आसपास की ज़मीन तो रियल एस्टेट और मुनाफाखोरी के बाकी उपक्रमों में खपायी जा रही है। तरक्की के नाम पर न सिर्फ शहर का पानी, हवा और रहने की जगह आदि को दूषित किया जा रहा है, बल्कि शहर में जो खाना आता है, उसका भी पर्यावरण पर बहुत बड़ा असर पड़ता है। दिल्ली जैसे शहर में हज़ारों टन कचरा लैंडफिल (जो अब कचरे के पहाड़ में तब्दील हो चुके हैं) पर रोज़ जमा हो रहा है और शहरी पर्यावरण को हद से ज़्यादा नुकसान पहुँचा रहा है। लेकिन अगर सिर्फ आस-पास ही नज़र घुमा के देख लें, तो पता चल जाएगा कि इस प्रक्रिया की रोज़मर्रा के सामाजिक जीवन में कोई जगह नहीं दिखती। जैसा हम सोचते हैं और जो हम करते हैं, वो उसी तंत्र द्वारा तय हो रहा है, जिसके हिसाब से हमें अपनी ज़िन्दगी को किसी-न-किसी हद तक ढालना ही पड़ रहा है। बल्कि एक वर्ग इस तंत्र के हिसाब से सिर्फ खुद को ढालने के साथ-साथ इसको अपने फायदे के लिए मज़बूत भी कर रहा है। मसलन, शहर और आस-पास के इलाके में भू-उपयोग में बदलाव करके सरकारें उदारीकरण के एजेंट की तरह काम करती हैं और खेती-लायक ज़मीन को वैश्विक स्तर पर खरीद-फरोख्त के लिए उपलब्ध करा देती हैं। इस नीतिगत बदलाव से पारम्परिक रूप से खेती पर निर्भर रहने वाले समुदाय में भी ज़मीन के उपयोग में रुचि घटी है और ज़मीन के दाम से मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति मज़बूत हुई है। यह सब इस बात की बानगी है कि संकट कितना गहराया हुआ है। लेकिन इससे भी बुरी बात ये है कि संकट से उबारने के जो उपाय, जैसे कि बड़े पैमाने पर सौर प्लांट या जैवडीजल के लिए खेती आदि, योजनाओं में लाये भी जा रहे हैं; उनके पीछे असल में ज़मीन को सस्ते में हड़पने और वित्तीकरण को बढ़ाने की ही दृष्टि है और इनका मकसद यह सुनिश्चित करना है कि बड़े उद्योगपतियों के मुनाफे पर कोई आँच न आने पाये; भले ही संकट और भीषण हो जाए।
इस तरह के गहरे संकट के बीच ज़रूरी है कि हम सम्भावनाओं के नये आयाम बनाएँ। संकट को जड़ से हटाने के लिए शहरों को प्रकृति के साथ अपने सम्बन्ध को एक नये सिरे से संगठित करना होगा। शहर और आस-पास हर स्तर पर हो रही खेती में इस अतिशय ग्लोबल, वित्त-केंद्रित, यथार्थ से दूर होते जाते वैश्विक खाद्य तंत्र का एक बुनियादी विकल्प बनने की सम्भावना है। इससे खाद्य शृंखला छोटी रहती है और खाद्य, ऊर्जा, और कचरा के शहरी तंत्र आपस में एक-दूसरे से नज़दीकी से जुड़े रहते हैं। इस तरह न सिर्फ शहर का पर्यावरणीय दुष्प्रभाव कम होता है, बल्कि इससे लोग अपने जीवन और अपने भोजन पर नियंत्रण वापस ला पाते हैं। भोजन किस तरह से उगाया जा रहा है? उसमें पोषक तत्त्व कितने हैं? यह जाँचकर और भोजन और स्थानीय पर्यावरण से ज़हरीले रसायन को हटाकर शहरी आबादी अपने भोजन की सुरक्षा और गुणवत्ता पर अपना सीधा अधिकार जमा सकती है। फसल में ज़हरीले तत्त्वों को कम करने से भोजन का प्रदूषण और खेत से पेट तक की दूरी के घटने से पर्यावरण का प्रदूषण कम किया जा सकता है, जिसका नागरिक स्वास्थ्य के लिहाज़ से बड़ा महत्त्व है। इसके अलावा शहरी खेती करने वालों के लिए राशन के खर्च के कम होने से उनकी प्रभावी आमदनी बढ़ जाती है। इसलिए अगर ऐसे प्रयासों का नगर पालिका और शहर क्षेत्र के स्तर पर समन्वय किया जाए, तो शहरी क्षेत्र अपने भोजन, जल, ज़मीन, ऊर्जा, रोज़गार और ज्ञान को लेकर अधिक आत्मनिर्भर हो सकेगा। शहरों में मोहल्ला स्तर पर इसके बहुत-से छिपे हुए प्रभाव हो सकते हैं। अगर क्षेत्रीय स्तर पर सामुदायिक खेती की जाए और उसके उत्पादों (और लोगों के घरों में उगाये हुए उत्पादों) को वितरित करने के लिए स्थानीय बाज़ार लगाया जाए, तो लोगों के बीच आपस में सम्बन्ध और शहरी सामुदायिकता की भावना बढ़ेगी। शहरी खेती शहर के तनावग्रस्त माहौल से पार पाने और मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने में मदद कर सकती है और शहर भर की सेहत में योगदान कर सकती है।
यहाँ स्पष्ट करते चलें कि शहरी खेती से हमारा मतलब काफी व्यापक परिवेशों में प्रयोग की जा रही विविध पद्धतियों से है, जो अपने उद्देश्य, प्रक्रियाओं और फीडबैक चक्र के मामले में काफी अलहदा हो सकती हैं। इसमें शहरों और आस-पास खेतों में, घरों की छतों पर और आँगन/उद्यान वगैरह में की जा रही खेती के साथ-साथ मुर्गीपालन, डेयरी, पशुधन, रेशम, जल खेती (नदी, तालाब या अन्य जल निकायों में पौधे और जन्तुओं का उत्पादन) सहित आजीविका के अन्य स्वरूप शामिल हैं। शहरी कृषि के पारिस्थितिकी तंत्र में न केवल खेती के विभिन्न प्रकार शामिल हैं, बल्कि कचरे का पुनर्चक्रण (रीसाइक्लिंग) और मिट्टी की देखभाल के लिए कचरे से बनी खाद का इस्तेमाल भी शामिल है। इसके अलावा शहर के जल संसाधनों, चरागाह और अन्य सामूहिक संसाधनों का टिकाऊ उपयोग, माल परिवहन तंत्र, खेत में अक्षय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग भी शहरी खेती के मुद्दे हैं। इसी तरह भूमि सम्बन्धों और संसाधन आवंटन में इंसाफ और उस पर इतिहासपरक दृष्टि शहरी खेती की चर्चा का केंद्रीय मुद्दा है।
शहरी खेती की अर्थ-व्यवस्था के आकार और कुल पैदावार के बारे में ठोस जानकारी का अभाव है। लेकिन उपलब्ध शोध के अनुसार, अनुमान लगाएँ तो शहर में खेती की ज़मीन और खेती की उपज से शहर की खाद्य आपूर्ति- दोनों का मौज़ूद आकार भी काफी महत्त्वपूर्ण है। फिर भी शहरीकरण की मौज़ूदा प्रक्रियाओं के बीच घिरा होने से शहरी किसान और खेतिहर समुदाय अदृश्य और भयभीत है। कुछ नये शोध कार्यों से हाल ही में ये बात पुष्ट हुई है कि शहरीकरण के मौज़ूदा वैश्विक स्वरूप और शहरी खेती की स्थानीय प्रथाओं के बीच का सैद्धांतिक सम्बन्ध एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका आदि के सभी गरीब देशों में लगभग एक जैसा है; जिसकी अभिव्यक्ति भूमि अधिकार की गैर-मौज़ूदगी, खेती का अवैध घोषित होना, आवास और अन्य बुनियादी अधिकारों की नज़रंदाज़ी और वित्त-केंद्रित शहरीकरण द्वारा किसान की आजीविका निगले जाने के रूप में होती है। एक विश्वव्यापी अनुमान के अनुसार, लगभग 20-30 फीसदी शहरी निवासी कृषि-खाद्य क्षेत्र में पहले से ही शामिल हैं। उतना ही दिलचस्प तथ्य यह है कि महिलाएँ वैश्विक शहरी कृषि समुदाय का लगभग दो-तिहाई हिस्सा हैं, और अधिकांश भौगोलिक क्षेत्रों में शहरी किसान ज़्यादातर महिलाएँ हैं। साथ ही यह खाद्य सुरक्षा का सबसे सस्ता स्रोत है और शहरी गरीबों के लिए गरिमापूर्ण और सार्थक आजीविका के कुछ चुनिन्दा विकल्पों में से एक है। कई जगहों पर शहरी कृषि ने खेत से पेट तक भोजन की दूरी और कोल्ड स्टोरेज में ऊर्जा के उपयोग को कम करके शहरी ग्रीनहाउस उत्सर्जन को कम करने की क्षमता दिखायी है। यही नहीं, छत पर खेती का एक फायदा यह भी दिखा है कि इमारतों में एयर कंडीशनिंग की आवश्यकता कम हुई है और इस तरह से हीट आइलैंड प्रभाव पर कुछ काबू पाया गया है। शोध में ये भी पता चला है कि भारत में छत पर खेती अन्य प्रकार के शहरी भूमि उपयोग की तुलना में उच्च जैव विविधता दिखा सकती है। इस तरह के स्पष्ट लाभ के कारण इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दुनिया भर के शहर अपनी योजनाओं में शहरी खेती को शामिल कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, जापान में टोक्यो की शहर में इमारतों की छत के 20 फीसदी से अधिक (और बड़ी इमारतों की छत के 30 फीसदी से अधिक) हिस्से पर पेड़-पौधे उगाना अनिवार्य है। यह भी गौरतलब है कि एशिया के उत्तर-पूर्वी इलाके के शहरों (उदाहरण के लिए, हनोई) और अफ्रीका के शहरों (उदाहरण के लिए, नैरोबी और कंपाला) ने शहरी कृषि की नीतियाँ सफलता से विकसित की हैं। पेट्रोलियम आपूर्ति निरस्त होने और सोवियत संघ के कमज़ोर होकर विघटित हो जाने के बाद बदलते अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक रिश्तों से क्यूबा पर घोर खाद्य संकट आ गया था; जिसके जवाब में वहाँ नागरिकों में सरकार की मदद से शहरी खेती पर केंद्रित खाद्य सुरक्षा को कायम किया। दुर्भाग्य है कि गरीब देशों के लोगों और सरकारों के इन प्रयासों की हमारे नीतिकारों ने न कोई समीक्षा की, न ही योजना बनाने वालों का इस तरफ ध्यान गया।
दु:खद यह भी है कि व्यवस्थागत समर्थन के अभाव में और शहरी नीति निर्माताओं की अनिच्छा के कारण, शहरी कृषि आज अवैध है और यह ऐसी प्रवृत्ति है, जो वैश्विक दक्षिण के सभी शहरों में व्याप्त है। शहरी खेती के ये क्षेत्र, चाहे वह शहरी गाँवों के खेतों में हों या छत / आँगन के बगीचों में; ये सभी एक नुकसानदेह शहरीकरण के रेगिस्तान के बीच नखलिस्तान सरीखे हैं, जहाँ शहरी जीवन प्रकृति के साथ नज़दीक के सम्बन्धों से बँधा और गढ़ा हुआ है। अब समय आ गया है कि शहरी खेती का समुदाय का एक बड़े पैमाने पर संगठित हो और साथ मिलकर हमारे बंजर होते शहरों में इस नखलिस्तान के फैलाव के तरीके तलाश करे।
(लेखक शहरी सामाजिक योजना के विशेषज्ञ हैं और जन-संसाधन केंद्र, दिल्ली से जुड़े हैं।)