आखिर मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए। 15 साल से चला आ रहा भारतीय जनता पार्टी का शासन खत्म हो गया। करीब 13 साल शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री थे। कांग्रेस पूर्ण बहुमत तो नही प्राप्त कर पाई लेकिन बहुजन समाज पार्टी के दो, समाजवादी पार्टी और 14 निर्दलीयों के समर्थन से बहुमत तक पहुंच गई है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंागाना और मिजोरम विधानसभा के इन चुनावों को अगले साल जो 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल भी माना जा रहा था। इस लिहाज से यह चुनाव कांग्रेस के सफलतापूर्वक फाइनल में पहुंचने के द्योतक हैं। यह इस बात का भी पूर्वाभ्यास है कि किस तरह आम चुनावों के पश्चात े गठबंधन को सकता है।
मध्यप्रदेश के राजनीतिक हलकों में यह धारणा बनती जा रही थी कि अब यहां कांग्रेस अप्रासंगिक होती जा रही है और किसी अन्य राष्ट्रीय या आंचलिक राजनैतिक दल के उभरने की उम्मीद भी यहां नहीं है। वैसे भी मध्यप्रदेश परंपरागत रूप से दो दलों की प्रतिद्वंद्विता वाला राज्य ही रहा है। यह विचार भाजपा के मन में गहरे से बैठता जा रहा था, खासकर 2013 के चुनावी नतीजों के बाद जिसमें कांग्रेस 53 विधायकों तक सिमट गई थी। बची खुची कसर अरुण यादव जैसे प्रदेशाध्यक्षों ने पूरी कर दी। परंतु कमलनाथ के प्रदेशाध्यक्ष बनने, ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा चुनाव प्रचार अभियान संभालने और दिग्विजय सिंह का पृ्ष्ठभूमि में रहकर चुनावी गतिविधियों को संभालने से कांग्रेस में एकता बढ़ी और गुणात्मक बदलाव आया। परिस्थितियां आदर्श बन पाई हों ऐसा भी नहीं हुआ, परंतु लडख़ड़ाती कांग्रेस थोड़ा लगड़ाई और फिर उसने दौड़ लगाना शुरू कर दिया। यह दौड़ 230 धावकों की थी। अतएव यह अपेक्षा करना कि सभी एक ही साथ या तेजी से दौड़ पाएंगे उचित नहीं है। चुनाव परिणाम वाले दिन तमाम टीवी चैनलों पर बैठे अधिकांश विशेषज्ञों की दलील थी कि इस जीत में कांग्रेस का कोई योगदान नहीं है यह महज भाजपा की हार है। इनका यह भी कहना था कि, यह तो जनता का आक्रोश और विकल्पहीनता थी कि कांग्रेस को इतनी सफलता मिल गई। मुझे लगता है यह आकलन सिरे से गलत है। कांग्रेस ने अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाया और आपसी विवादों को कम से कम कुछ समयाविधि के लिए ही सही कालीन के नीचे दबाया, और हारी मानी जा चुकी बाजी को जीतने की ठानी। बात यहीं तक सीमिति नहीं थी। भारतीय जनता पार्टी आज भारत का सबसे धनवान राजनीतिक दल है और यह उसे अजेय होने का झूठा भरोसा भी दिला गया।
ऐसा भी नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी को अपनी हार की सुगबुगाहट नहीं लग पाई हो। सभी को तो नहीं पंरतु कुछ दूरदर्शियों की समझ में यह आने लगा था। परंतु उनमें से भी अधिकांश को एकमात्र रास्ता यही सूझा कि चुनाव में और अधिक धन का ‘निवेश’ करा जाए और ऐसा किया भी गया। ऐसा कहा जा रहा है कि भाजपा द्वारा मध्यप्रदेश के इन चुनावों में 3,000 हजार करोड़ का ‘निवेश’ किया गया है, खर्च नहीं। इसका अंदाजा चुनाव की घोषणा होने के बाद समाचार पत्रों और मीडिया के अन्य संसाधनों में छाए विज्ञापनों से सहज ही लगाया जा सकता है। मतदान के तीन दिन पहले से प्रदेश के प्रमुख समाचार पत्रों में छह पृष्ठ तक भाजपा के विज्ञापनों से अटे रहते थे और इसके सामने कांग्रेस का एकाध विज्ञापन होता था तीन से छह कालम का। इसके बावजूद इस तरह के परिणाम आने से यह भरोसा होता है कि राजनीतिक दल यदि चाहें तो धन का उपयोग कम करने में सफल हो सकते हैं। मजबूरी में ही सही पर कांग्रेस ने ऐसा कर दिखाया। हां अनेक उम्मीदवारों ने मनमाना खर्च भी किया है।
कांग्रेस ने इस बार किसान, किसानी व बेरोज़गारी को मुख्य मुद्दा बनाया था। इसके अलावा स्वास्थ्य, कुपोषण, महिला सुरक्षा व भ्रष्टाचार भी उनके मुद्दे रहे। गौरतलब है मध्यप्रदेश को पिछले तीन वर्षों से सर्वाधिक उत्पादन के लिए कृषि कर्मण पुरस्कार मिलता आ रहा है परंतु प्रदेश में किसानों की स्थिति दयनीय है। वे उग्र भी हो रहे हैं, मंदसौर गोलीकांड इसी का परिणाम हंै। कांग्रेस ने इस आक्रोश को अपना हथियार बना लिया। भावांतर जैसी योजनाओं की असफलता ने भी किसानों का मोह तोड़ा। इस तरह किसान एक वर्ग की तरह थोड़ा बहुत सोचने लगा,बजाए जातिगत संदर्भों के। इसमें वैसे देश-प्रदेश के जनसंगठनों का भी जबरदस्त योगदान रहा है। इस दौरान कांग्रेस को राहुल गांधी के व्यवहार में बेहद सकारात्मक आक्रामकता दिखाई दी। एक तरह से यह उनका एकदम नया अवतार था, जिसकी भाजपा समर्थित मीडिया भी अनदेखी नहीं कर पाया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के सामने दोहरी समस्या थी। एक तो उनके शासन के दौरान पनपी, ”एंटी इन्कमबेंसी’ थी और दूसरी नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा थोपी गई ”एंटी इन्कमबैंसी’ थी जो नोटबंदी, जीएसटी, पैट्रोल ड़ीजल की बढ़ती कीमतों और आसमान छूती बेरोजगारी के माध्यम से राज्य में हस्तांतरित हो गई थी। वहीं राज्य में व्यापम घोटाला, भावांतर योजना में भ्रष्टाचार व भेदभाव जैसे मामले भी थे। विस्थापन को लेकर बेरुखी, कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति आदि बातों ने स्थिति को बिगाड़ दिया। उस पर स्थिति यह थी कि शिवराज सिंह ने अपना पूरा कामकाज कुछ अफसरों पर छोड़ रखा था। वे या तो हफ्तों की यात्राएं करते रहते थे और यदि यात्राओं पर नहीं होते थे , तो दौरों पर रहते थे और हर रोज़ एक नई घोषणा करके स्वंय को प्रदेश के ”मामा’’ के रूप में स्वीकार्य करवाते रहते थे। उनके शासन के आखिरी पांच साल प्रशासन के लिए स्वर्णिम रहे हैं। किसी भी मामले में, खासकर शासकीय कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को लेकर कोई निर्णायक कदम उठाया ही नहीं गया। इसके सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। कांग्रेस को कुछ भी ढूढऩा नहीं पड़ा। सब कुछ खुले में बिखरा पड़ा था और उसने उसे समेट लिया।
भाजपा को यह भी उम्मीद थी कि शिवराज के जादू के अलावा नरेंद्र मोदी और अमित शाह भी तुरुप के इक्के के रूप में उसके पास है और इस बार योगी आदित्यनाथ भी इसमें जुड़ गए। पार्टी को लगा उत्तेजक व स्तरहीन भाषण ही जनता से वोट दिलवा देंगे लेकिन भूखे पेट न होय भजन गोपाला (गोपाला तो ठीक राममंदिर का मामला भी नहीं चला) योगी के अली और बजरंग बली भी ”फेल’’ हो गए। नरेंद्र मोदी और अमित शाह का राहुल गांधी को दोबारा ‘पप्पू’ साबित करने का प्रयास भी मंहगा पड़ा क्योंकि पप्पू उन्हें इतनी महीन चपत लगा गया कि पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई। इसके अलावा अनुसूचित जाति, जनजाति विधेयक को लेकर पहले दलित व आदिवासी और बाद में सवर्ण नाराज हो गए। यह अजीब बात है कि वंचित वर्ग की नाराजगी अंत तक गई नहीं। इसमें भी भाजपा को काफी नुकसान पहुंचा। त्रासदी यह है कि अधिकांश राजनीतिज्ञ सड़क, बिजली, पानी जैसी सेवाओं को ही सब कुछ मान लेते हैं। यह तो तानाशाह भी अपनी ‘प्रजा’ को देता है। राजनीतिज्ञ दल भूल जाते हैं कि प्रजा और जनता में फर्क है और जनता लोकतंत्र में कुछ और भी चाहती है। मध्यप्रदेश की जनता भी वही ‘कुछ और चाहती थी, परंतु भाजपा उसे समझ न सकी। कांग्रेस भी समझ पाएगी इसमें संदेह है।
मध्यप्रदेश छह हिस्सों में बटा है। मालवानिमाड़, ग्वालियर, चंबल, महाकौशल, मध्यभारत, विध्ंय व बुंदेलखंड। यह विभाजन राजनीतिक दृष्टिकोण से स्थितियों को समझने में सहायक है। मालवा-निमाड़ ऐसा क्षेत्र है जहां भाजपा की सर्वाधिक स्वीकार्यता रही है और यहीं से भाजपा के लिए सत्ता का द्वार खुलता है। इस क्षेत्र में कुल 66 विधानसभा सीटें है। 2013 में भाजपा के पास 56 व कांग्रेस के पास मात्र नौ विधायक थे। इस बार यहां कांग्रेस ने 35 सीटें जीती। तीन निर्दलीय भी जीते। भाजपा कुल 27 सीटें ही जीत पाई यानी उसने 29 सीटें खो दी। ग्वालियर, चंबल क्षेत्र जो कि ज्योतरादित्य सिंधिया की सक्रियता का क्षेत्र है में कुल 34 सीटें हैं। पिछली बार यहां भाजपा को 20 तो कांग्रेस को 12 स्थान व दो बीएसपी को मिले थे। इस बार यहां कांग्रेस को 27 सीटें मिली हैं। ऐसी ही स्थिति महाकौशल में रही। यह कमलनाथ का गढ़ है। इस क्षेत्र में कुल 38 विधानसभा सीटें हैं। यहां पर भी भाजपा को करीब 14 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है। मध्यप्रदेश में भोपाल व आसपास के क्षेत्र में 38 विधानसभा क्षेत्र है। यहां भी क्रांगेस को पिछली बार के मुकाबले सात सीट ज़्यादा मिलीं। यदि बुंदेलखंड की बात करें तो यहां कुल 26 सीटें हैं। यहां भी कांग्रेस को करीब छह सीटों का फायदा हुआ है। अनपेक्षित रूप से कांग्रेस का विध्ंय क्षेत्र में काफी ज़्यादा नुकसान हुआ है और यहां भाजपा ने खासी बढ़त ली है। पिछली विधानसभा में उसके पास कुल 30 में से 16 सीटें थी, इस बार 24 हो गई हैं और कांग्रेस की 12 से घट कर छह। वहीं बसपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई। कांग्रेस को पूर्ण बहुमत न मिल पाने के लिए यही क्षेत्र उत्तरदायी हैं। यहां पर कांग्रेस की स्थिति बिगडऩे की एक वजह है कि कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व किसी भी नए आदमी को प्रवेश ही नही करने देता। विश्लेषण को यदि और विस्तार दें तो समझ में आता है कि भाजपा का शहरी क्षत्रों पर अधिकार थोड़ा कम तो हुआ है, परंतु वह अभी भी मजबूत है। जीएसटी और नोटबंदी उसे ज़्यादा दरका नहीं पाए। संतोष की बात यही है कि आरएसएस व अन्य हिंदूवादी संगठनों और सिमी जैसे मुस्लिम अतिवादी संगठनों की उपस्थिति के बावजूद मध्यप्रदेश के चुनाव अधिकांशत सांप्रदायिकता से मुक्त रहे।
प्रश्न उठता है कि 15 वषों तक सत्ता से बाहर रहने के बाद अब सत्ता में आई कांग्रेस से क्या अपेक्षाएं की जा सकती हैं। वहीं उनमें ‘संभावनाएं ‘ भी टटोलनी होगी। कांग्रेस के पास अपनी नीतियों को लागू करने के लिए अधिकतम तीन महीने ही हैं क्योंकि इसके बाद लोकसभा आचार संहिता लागू हो जाएगी। परंतु यह समझ में आ रहा है कि यदि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को बेहतर प्रदर्शन करना है, राष्ट्रीय स्तर पर भी तो उसके पास यही समय है। राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण के 10 दिन के भीतर किसानों की कर्जमाफी का वादा किया है। बेरोज़गारी भत्ता भी शीध्र देने का कहा है। प्रदेश की जनता खासकर किसान व युवा इस नए शासन में अपने लिए तमाम संभावनाएं देख रहे हैं। अफसरशाही का यहां बोलबाला है। उच्च शिक्षा संस्थानों का स्तर गिरा है और भगवाकरण भी हुआ है। नए शासन के सामने सबसे बड़ी समस्या शासन-प्रशासन में आरएसएस के केडर की भागीदारी है और वे भी इसका हिस्सा ही बन चुके हैं। इनसे हर हालत में निपटना ही होगा। पूरा प्रशासन संविदा कर्मचारियों पर चल रहा है। इससे छुटकारा पाना ही होगा। मध्यप्रदेश की बाहरी सूरत कितनी भी सुनहरी हो, अंदर ही अंदर इसकी अर्थव्यवस्था खोखली हो चुकी है। इससे भी निपटना होगा। परंतु पहली प्राथमिकता होनी चाहिए प्रदेश के बच्चों व महिलओं को कुपोषण की यातना से बाहर निकालना। प्रदेश इस नए शासन में असीम संभावानएं तलाश रहा है। वह उम्मीद लगाए बैठा है कि कुछ बेहतर होगा। वह झिझकते हुए ही सही राहुल गांधी पर भरोसा जता चुका है। अब यह नए नेतृत्व पर है कि वह राहुल गांधी व मध्यपद्रेश की जनता की अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरता है। विनोबा भावे ने कहा है, ”नीचा आदर्श रखकर सफल होने की बजाए ऊँचा आदर्श रखकर असफल होना मानव के लिए अधिक शोभादायक है’’। क्या कांग्रेस राजनीति की गिरती साख को रोकने की कोशिश करेगी, यह एक यक्ष प्रश्न है।