तहलका संवाददाता हिमांशु शेखर ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राहुल के ‘जादुई प्रभाव’ के दावे की हकीकत की पड़ताल के लिए उन तीन गांवों की यात्रा की जहां राहुल गांधी अपनी पदयात्रा के दौरान रात में रुके थे. चूंकि राहुल ने सबसे ज्यादा वक्त इन्हीं गांवों में बिताया इसलिए उनका और उनकी पदयात्रा का स्वाभाविक तौर पर सबसे ज्यादा असर, यदि वह है तो, इन्हीं गांवों के लोगों पर दिखना चाहिए
5 जुलाई की सुबह बिना किसी पूर्व सूचना के कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ग्रेटर नोएडा से सटे भट्टा-पारसौल गांव पहुंचे और उन्होंने किसान संदेश यात्रा शुरू करने की घोषणा कर दी. इससे प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के साथ-साथ इलाके के किसान भी चौंक गए. जैसे-जैसे यह यात्रा आगे बढ़ी वैसे-वैसे दिल्ली से लेकर लखनऊ तक सियासत भी तेज होती गई. शाम होते-होते ऐसा माहौल बना जैसे राहुल की गिरफ्तारी हो जाएगी और यह यात्रा अधूरी रह जाएगी. लखनऊ से लेकर अलीगढ़ तक उत्तर प्रदेश प्रशासन के अधिकारियों ने जिस तरह से बयानबाजी शुरू की उससे 9 जुलाई को अलीगढ़ में प्रस्तावित किसान महापंचायत का आयोजन भी खटाई में पड़ता दिखा. पर न तो यात्रा थमी और न ही महापंचायत का आयोजन रुका.
चार दिन की अपनी किसान संदेश यात्रा में राहुल तकरीबन दो दर्जन गांवों में गए. उन्होंने अलग-अलग गांवों में तीन रातें भी स्थानीय लोगों के घरों में गुजारी. इस यात्रा के दौरान राहुल जहां भी गए वहां उन्होंने किसानों से हमदर्दी दिखाई और कंधे से कंधा मिलाकर उनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई मानकर लड़ने का वादा भी किया. नतीजा यह हुआ कि राहुल के रास्ते में पड़ने वाले हर गांव में उन्हें देखने वालों की भीड़ उमड़ी. लोगों ने उनसे तीखे सवाल-जवाब भी किए. राहुल इस पदयात्रा के जरिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को आधार देने का सपना संजोए हुए हैं. दूसरी तरफ इलाके के किसान हैं जो पूरी यात्रा के दौरान उनके साथ तो बने रहे लेकिन उन्हें आजमाने को लेकर अभी संशय में हैं.
अगर अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस इस इलाके में मजबूती से नहीं उभरती है तो खतरा राहुल के ‘जादुई प्रभाव’ की पोल खुलने का है, यह कांग्रेस के लिए नेतृत्व के संकट की स्थिति होगीहालांकि कांग्रेस के तमाम छोटे-बड़े नेता यह दावा करते हुए नहीं अघा रहे हैं कि अगले विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘राहुल का जादू’ ही चलेगा और लखनऊ के पंचम तल (मुख्यमंत्री कार्यालय) से एक बार फिर सूबे को चलाने का मौका कांग्रेस को मिलेगा. राहुल के साथ-साथ कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह विश्वास हो चला है कि सूबे की सत्ता में पहुंचने का रास्ता पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड से होकर गुजरता है. उनके विश्वास की वजह यह है कि राष्ट्रीय लोकदल के अजित सिंह के प्रभाव वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मायावती का कोई खास प्रभाव नहीं है और बुंदेलखंड फिलहाल राजनीतिक रिक्तता के दौर से गुजर रहा है. यही वजह है कि पहले कांग्रेसी रणनीतिकारों ने राहुल को बुंदेलखंड में उतारकर किसानों की आत्महत्या के मसले को हवा दी और अब वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जमीन के मुद्दे को सियासी एजेंडे में लाने की कवायद राहुल के जरिए कर रहे हैं. किसान संदेश यात्रा और किसान महापंचायत इसी कवायद के अहम हिस्से हैं.
रामपुर बांगड़ः जातिगत सियासत की जमीन
किसान संदेश यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने पहली रात इसी गांव में गुजारी. निर्माणाधीन यमुना एक्सप्रेसवे से महज एक किलोमीटर की दूरी पर 2,000 से ज्यादा की आबादी वाले इस गांव में टाटा सफारी जैसी महंगी गाड़ियां और अच्छे मकान तो दिखते हैं लेकिन बजबजाती नालियों के पानी में डूबी गलियां विकास के सरकारी दावे की हकीकत खुद-ब-खुद बयान करती हैं. गांव के निवासी गंगा प्रसाद कहते हैं, ‘राहुल जी को भी इसी गली से गुजरना पड़ा था.’
पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी राहुल गांधी के लिए किसी सियासी दलदल से कम नहीं है. अगर अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस इस इलाके में मजबूती से नहीं उभरती है तो खतरा राहुल के ‘जादुई प्रभाव’ की पोल खुलने का है. यह कांग्रेस के लिए यह नेतृत्व के संकट की स्थिति पैदा करेगा क्योंकि राहुल के सहारे कांग्रेसी लखनऊ से लेकर दिल्ली तक लंबी पारी खेलने की आस लगाए हुए हैं. यह पूछने पर कि क्या राहुल गांधी ने गलियों की इस बदहाली को दूर करने के लिए कोई वादा किया, गंगा प्रसाद बोल पड़ते हैं, ‘अब गलियों की स्थिति सुधारने में राहुल गांधी क्या करेंगे. यह सब काम तो राज्य सरकार का है.’ आसपास खड़े लोग भी गंगा प्रसाद का समर्थन करते हैं.
पर तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है. कई जातियों के लोगों का यह गांव मोटे तौर पर दो टोलों में बंटा हुआ है. एक टोला अगड़ी जातियों का है तो दूसरा पिछड़ी जातियों का. दोनों टोलों के लोगों की सियासी लाइन का फर्क भी साफ दिखता है. अगड़ी जातियों पर राहुल की खुमारी छाई हुई है तो पिछड़ी जातियां अब भी बहनजी को ही अपने उत्थान का जरिया मानती हैं. मजदूरी करके जीवन यापन करने वाले चेतराम कहते हैं, ‘राहुल गांधी से आखिर हम कैसे कोई उम्मीद लगाएं. 60 साल से तो देश में इनकी ही पार्टी राज करती रही है लेकिन हम गरीब अब भी बदहाल हैं. आज अगर किसानों पर गोलियां चल रही हैं तो यह भी कांग्रेस की गलत नीतियों का ही परिणाम है.’
राहुल भले ही मायावती के वोट बैंक में सेंध लगाने में नाकाम रहे हों लेकिन भाजपा को वोट देने वाली अगड़ी जातियों के वोट बैंक में सेंध लगाने में वे थोड़े कामयाब होते हुए दिख रहे हैंयह पूछे जाने पर कि विधानसभा चुनाव में किसे वोट देंगे, चेतराम सियासी अंदाज में कहते हैं, ‘हम तो उसे ही वोट देंगे जो विकास करेगा. बहनजी की वजह से हमारा विकास हुआ है, इसलिए हम तो उन्हीं का साथ देंगे.’ जमीन अधिग्रहण में मायावती सरकार की ज्यादती के मसले को सिरे से खारिज करते हुए शीशपाल कहते हैं, ‘सबको मुआवजा मिला है और यह जमीन बहनजी अपने लिए तो ले नहीं रही हैं. इस जमीन पर एक्सप्रेसवे बनना है और इससे अंततः क्षेत्र का विकास होगा और स्थानीय लोगों को फायदा मिलेगा.’ संकेत साफ है कि सियासी हो-हल्ले का आधार चाहे जो भी हो लेकिन वोट देने का आधार तो जाति ही है.
यमुना एक्सप्रेसवे में रामपुर बांगड़ गांव की 12.5 बीघा जमीन गई है. इसमें से अकेले कालीचरण शर्मा की नौ बीघा जमीन है. संभव है कि इसी वजह से राहुल गांधी ने रात गुजारने के लिए कालीचरण शर्मा के घर को ही चुना. गर्व भरे अंदाज में शर्मा कहते हैं, ‘हमारे घर भगवान आए थे.’ बगल में खड़ी उनकी पत्नी उषा देवी और उनकी दो बहुओं के चेहरे की खुशी कालीचरण शर्मा की इस बात की पुष्टि करती है. यह पूछे जाने पर कि क्या भगवान जमीन बचाने की आपकी मनोकामना पूरी करेंगे, शर्मा कुछ पल की चुप्पी के बाद कहते हैं, ‘राहुल के आने से हमारे मन में यह भरोसा पैदा हुआ कि अब राज्य सरकार हमसे जबरन जमीन नहीं लेगी. सड़क के लिए जमीन देने में हमें कोई दिक्कत नहीं है लेकिन टाउनशिप और दूसरे कामों के लिए हम जमीन नहीं देना चाहते.’ गंगा प्रसाद कहते हैं, ‘अगर राज्य सरकार ने हमसे जमीन लेने में जोर-जबर्दस्ती की तो यहां भट्टा-पारसौल से भी बुरा हाल होगा. हम लड़ेंगे और जरूरत पड़ी तो जान भी देंगे. अगर सरकार को जमीन चाहिए तो हमें हरियाणा की तरह 20 लाख रुपये प्रति बीघे की दर से मुआवजा मिले. अगर सरकार इतना मुआवजा नहीं दे सकती तो हमें खुद जमीन का सौदा करने दिया जाए.’ बताते चलें कि यमुना एक्सप्रेसवे के लिए ली गई जमीन के बदले इस गांव के किसानों को तकरीबन आठ लाख रुपये प्रति बीघा की दर से मुआवजा मिला है.
वोट देने के बारे में कालीचरण शर्मा कहते हैं, ‘हम तो कांग्रेस को इंदिरा गांधी के समय से ही वोट देते आए हैं और 2012 में भी कांग्रेस को ही वोट देंगे. हमारे गांव और पूरे इलाके के तकरीबन 80 फीसदी लोग आज कांग्रेस के पक्ष में हैं.’
उनके पड़ोसी रामगोपाल शर्मा भी इस दफा कांग्रेस को वोट देने का मन बना चुके हैं. उन्होंने पिछली दफा भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया था. यमुना एक्सप्रेसवे में उनकी 1.5 बीघा जमीन गई है. वे कहते हैं, ‘हम सब भाजपा को वोट देते थे लेकिन इस बार राहुल की पार्टी को वोट देंगे.’ वजह पूछे जाने पर वे कहते हैं, ‘राहुल ने नयी जमीन अधिग्रहण नीति तैयार करवाने की बात कही है. इसलिए हम कांग्रेस का हाथ मजबूत करना चाहते हैं.’
संकेत साफ है कि राहुल भाजपा को वोट देने वाली अगड़ी जातियों के वोट बैंक में सेंध लगाने में थोड़े कामयाब होते हुए दिख रहे हैं. यही वजह है कि अपने उम्र के आठवें दशक में पहुंच चुकी प्रेमवती राहुल गांधी पर पूरा भरोसा जताते हुए कहती हैं, ‘चाहे जो हो वोट तो कांग्रेस को ही देंगे.’ पर दुलारी की बात राहुल के लिए चेतावनी भी है. वे कहती हैं, ‘हम इस बार वोट तो कांग्रेस को देंगे लेकिन अगर हमारी समस्याएं नहीं दूर की गईं तो अगली बार उनकी सरकार हटा देंगे.’
सारौलः कांग्रेस का पुराना गढ
यात्रा के दूसरे दिन राहुल गांधी ने सारौल गांव के चौधरी हरेंद्र सिंह के यहां रात गुजारी. तकरीबन 14,000 की आबादी वाले इस गांव में कांग्रेस की जड़ें कितनी गहरी हैं इसका अंदाजा गांव के एक बुजुर्ग कर्मवीर सिंह की बातों से लगाया जा सकता है. जब इनसे यह पूछा जाता है कि राहुल के वादों पर आपको कितना यकीन है, वे उलटा सवाल करते हैं, ‘राहुल अकेला क्या करेगा? दिल्ली में 500 से ज्यादा सांसद बैठते हैं. राहुल उनमें से एक है. बेचारा कोशिश कर रहा है.’ अगले चुनाव में वोट देने के बारे में वे कहते हैं, ‘मैं तो जवाहरलाल नेहरू के समय से कांग्रेस को वोट देता रहा हूं. पर पिछले कई बार से हमने अजित सिंह को वोट दिया है. इस बार अगर कांग्रेस और अजित सिंह साथ आ गए तो हम निश्चित तौर पर इस गठबंधन को जिताएंगे.’
हरेंद्र सिंह की राय भी कुछ ऐसी ही है. वे कहते हैं, ‘हमारा गांव कांग्रेस का पुराना गढ़ रहा है. इसलिए हम तो कांग्रेस को ही वोट देंगे लेकिन अगर कांग्रेस को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जीतना है तो अजित सिंह के साथ हाथ मिलाना होगा.’ हालांकि, यमुना एक्सप्रेसवे में 14.5 बीघा जमीन देने वाले हरवीर सिंह राहुल गांधी की बातों पर बहुत ज्यादा यकीन करने को तैयार नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘नेताओं पर से भरोसा उठ गया है. हर बार नेता आते हैं और लंबे-चौड़े वादे करके जाते हैं. इनमें से ज्यादातर वादे खोखले ही साबित होते हैं. अगर राहुल चाहते हैं हम लोग कांग्रेस के पक्ष में वोट दें तो उन्हें संसद में ऐसी जमीन अधिग्रहण नीति पारित करवानी चाहिए जो किसानों के पक्ष में हो.’
इन लोगों की बातों से तीन सियासी संकेत मिल रहे हैं. पहली बात यह कि कांग्रेस का पुराना गढ़ होने और आगामी चुनाव में कांग्रेस को वोट देने में काफी फर्क है. राहुल की यात्रा के बावजूद आज भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग कांग्रेस या यों कहें कि राहुल गांधी से कहीं ज्यादा भरोसा अजित सिंह पर कर रहे हैं. दूसरी बात यह है कि जिस तरह की सियासत अभी चल रही है उसमें कोरे वादों के जरिए लोगों को बार-बार छला गया है. इसका परिणाम यह हुआ कि नेताओं पर से लोगों का भरोसा उठ गया है. यहीं से तीसरी बात यह निकलती है कि अगर राहुल गांधी को 2012 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का वोट चाहिए तो दिल्ली में उनकी पार्टी की सरकार को ऐसी जमीन अधिग्रहण नीति को अस्तित्व में लाना होगा जो किसानों के हितों की रक्षा करे. मतलब साफ है कि सिर्फ वादों पर यकीन करने को लोग तैयार नहीं हैं बल्कि अब उन्हें नतीजा चाहिए.
इस गांव की तकरीबन 500 बीघा जमीन यमुना एक्सप्रेसवे में गई है. तीन फसल (गेहूं, मूंग और धान) देने वाली जमीन के बदले यहां के किसानों को 3.28 लाख रुपये प्रति बीघे की दर से मुआवजा मिला है. स्वाभाविक है कि बेहद उपजाऊ जमीन के मुआवजे की इस दर से किसान असंतुष्ट रहेंगे. हरेंद्र सिंह की 20 बीघा जमीन इस परियोजना में गई है. वे कहते हैं, ‘गांव के ज्यादातर लोगों की गुजर-बसर किसानी के सहारे ही होती है. ऐसे में सरकार अगर हमसे जमीन लेती रही तो वह एक तरह से हमारी जिंदगी लेगी. हम अब जमीन नहीं देना चाहते.’ यह पूछने पर अगर विकास की खातिर सरकार के लिए जमीन लेना बेहद जरूरी हो जाए तब भी आप जमीन नहीं देंगे, वे कहते हैं, ‘ऐसी स्थिति में हमें मुआवजा उसी दर से मिले जिस दर से ग्रेटर नोएडा के किसानों को मिल रहा है.’
इस गांव के लोग जमीन अधिग्रहण के नाम पर मायावती सरकार के छल से भी काफी आहत हैं. इस गांव में जमीन अधिग्रहण से उपजे असंतोष को दबाने के लिए सरकारी अधिकारियों ने अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति का अनुसरण किया. यहां जब पूरा गांव एक होकर जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहा था तो अधिकारियों ने मुआवजे की तय दर 3.28 लाख रुपये प्रति बीघे के साथ एक लाख रुपये तक अतिरिक्त रकम देना शुरू किया. इस अतिरिक्त रकम का कहीं कोई लेखा-जोखा नहीं रखा गया.
मरोरगढ़ीः यहां मुद्दा बेरोजगारी है
दलितों के नाम पर सियासत करने वाली सूबे की मुख्यमंत्री मायावती को मात देने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे राहुल गांधी अपनी यात्रा के तीसरे दिन मरोरगढ़ी पहुंचे तो एक दलित रघुवीर बंजारा के यहां रात गुजारने का फैसला किया. हालांकि, इससे पहले की दो रातें जिन घरों में राहुल ने बिताई थीं वहां उन्होंने खाना भी खाया था लेकिन यहां उनका खाना बाहर से आया. रघुवीर कहते हैं, ‘उन्होंने हमारे घर में खाना नहीं खाया लेकिन हमारे घर रुके यही बहुत बड़ी बात है. ‘पर मायावती ने इस मसले पर आक्रामक रुख अपनाया और राहुल गांधी पर यह कहते हुए अगले दिन हमला किया कि उनका दलित प्रेम दिखावे से अधिक कुछ नहीं है.
पर हकीकत यह है कि राहुल ने भले ही दलित के घर खाना नहीं खाया हो लेकिन इस गांव के कुछ दलित इस बार कांग्रेस को वोट देने की बात कर रहे हैं. हालांकि, यहां भी एक अंतर स्पष्ट तौर पर दिखता है. 50 घरों के इस गांव की आबादी तकरीबन 250 है. इनमें से कुछ लोग काफी संपन्न हैं. इनके पास काफी जमीन है और यही लोग थोड़-बहुत कांग्रेस के पक्ष में हैं. दूसरी तरफ एक तबका ऐसा है जो इन लोगों के खेतों में मजदूरी करके पेट पालता है. यह वर्ग खुले तौर पर न तो राहुल का विरोध करता है और न ही मायावती का. संकेत साफ है कि दलितों के वोट बैंक में सेंध लगाने के राहुल के सपने को लंबा फासला तय करना है. अगर राहुल का जादू चला तभी कांग्रेस की तरफ दलितों के ‘क्रीमी लेयर’ का वोट जा सकता है.
मरोरगढ़ी में इसी तबके की नुमाइंदगी ब्रह्मजीत सिंह बंजारा करते हैं. गांव की कुल 150 बीघा जमीन यमुना एक्सप्रेसवे परियोजना में गई है और 3.08 लाख रुपये प्रति बीघे की दर से मुआवजा मिला है. इसमें से अकेले ब्रह्मजीत सिंह बंजारा की 90 बीघा जमीन है. वे कहते हैं, ‘हमें राहुल गांधी से काफी उम्मीदें हैं. जिस तरह से राहुल जी हमारे गांव में आए और हमारी जमीन की रक्षा करने की बात कही उससे साफ है अगले चुनाव में लोग कांग्रेस की ओर मुड़ेंगे.’ पर पास ही खड़े और मजदूरी करके जीवन यापन करने वाले श्रीपाल बंजारा असहमति जताते हुए कहते हैं, ‘हमें राहुल गांधी से कोई उम्मीद नहीं है. सभी नेता आते हैं और कई वादे करके जाते हैं. किसानों और मजदूरों का भला करने वाला कोई नहीं है. किसान जो अनाज उपजाता है उसे सिर्फ वही नहीं खाता बल्कि शहरों के लोग भी खाते हैं लेकिन हमारी चिंता करने वाला कोई नहीं है.’
दलितों के वोट बैंक में सेंध लगाने के राहुल के सपने और हकीकत के बीच लंबा फासला है. अगर राहुल का जादू चला तभी कांग्रेस की तरफ दलितों के ‘क्रीमी लेयर’ का वोट जा सकता हैवे कहते हैं, ‘हमने मेहनत-मजूरी करके बच्चों को पढ़ाया. पर किसी को रोजगार नहीं मिल रहा. हर जगह रिश्वत मांगी जाती है या फिर पहुंच वालों को नौकरी दे दी जाती है.’ गांव का एक नौजवान नेम सिंह कहता है, ‘हमने तो राहुल गांधी को यह बात बताई कि पिछले छह साल से कोशिश करने के बाद भी हमें रोजगार नहीं मिल रहा. इस पर उन्होंने कहा कि हम आपकी मदद करेंगे. देखते हैं वे क्या करते हैं.’ इस गांव की आजीविका का मुख्य आधार किसानी और पशुपालन है. गांव के ज्यादातर लोग इन्हीं कामों पर निर्भर हैं. गांव से बाहर जाकर पैसा कमाने वाले इक्का-दुक्का ही हैं. राम किशन कहते हैं, ‘अगर गांव की जमीन चली गई तो बेरोजगारी का संकट और गहरा जाएगा. ऐसे में नौजवानों के सामने चोरी-डकैती के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचेगा. आत्महत्या के मामलों में भी तेजी आएगी.’
इस गांव पर यमुना एक्सप्रेसवे परियोजना से दोहरी मार पड़ी है. एक तरफ तो जमीन गई और दूसरी तरफ इसमें काम करने वाले लोगों की मजदूरी हड़पी जा रही है. मेहनत-मजदूरी करके पेट पालने वाली गुड्डी कहती हैं, ‘मैंने तकरीबन 100 दिन एक्सप्रेसवे में मजदूरी की है. बीच-बीच में दो-चार दिन की मजदूरी मिल जाती है. पैसा मांगने पर ठेकेदार कहता है कि तुम काम ठीक से नहीं करते. अगर राहुल गांधी हमारी मजदूरी दिला दें तो हम उन्हें वोट दे देंगे.’ नेम सिंह भी यही कहानी दुहराते हैं, ‘मजदूरी मांगने पर एक बार तो हम लोगों का ठेकेदार के साथ झगड़ा भी हो गया था. पर प्रशासन उनके साथ है, इसलिए हमारी कहीं कोई सुनवाई नहीं है.’