कोरोना के दौरान पत्रकारिता पर दोहरी मार दिखी है। एक, नैतिकता की और दूसरी, कोरोना वायरस की चपेट में आने की। दोनों को ही गम्भीर कहा जाना उचित होगा। लेकिन कई चैनलों और अखबारों में केंद्र और राज्य सरकारों या कुछ दल विशेष के हिसाब से रिपोॄटग होती दिखी है। वहीं कुछ चैनलों-अखबारों ने तब्लीगी जमात के लोगों के कोरोना वायरस से मरने और संक्रमित होने की गिनती करते हुए उनका अलग ही वर्ग बना दिया। समाज में वैमनस्य फैलाने का कारोबार भी मीडिया के एक वर्ग में पिछले कुछ साल से खूब फला-फूला है।
ज़मीन पर रिपोॄटग कर रहे पत्रकारों की सेहत पर वैसा ही विपरीत असर होता दिख रहा है, जैसा डाक्टरों और चिकित्साकॢमयों की सेहत पर। मुम्बई में तो एक साथ 53 पत्रकार कोरोना से संक्रमित पाये गये। इसके बाद देश के कुछ और हिस्सों में सरकारों ने पत्रकारों का कोरोना टेस्ट करवाने का फैसला किया।
यह तब है, जब पत्रकारों की आॢथक और सामजिक सुरक्षा का कोई मज़बूत तंत्र है नहीं और वे अकेले ही अपनी जंग लड़ रहे हैं। यही नहीं, बड़ी संख्या में पत्रकारों की नौकरियाँ जाने की खबर परेशान करने वाली है। नौकरी जाने के खिलाफ कई मामलों में पत्रकारों ने अदालतों की भी शरण ली है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना वायरस और लॉकडाउन ने मीडिया इंडस्ट्री पर ज़बरदस्त प्रहार किया है और प्रिंट इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ है। हालाँकि कई संस्थान ऐसे भी हैं, जहाँ पत्रकारों की नौकरी से कोई खेल नहीं किया गया है।
दूसरा पहलू पत्रकारिता में नैतिकता का है। कोरोना और लॉकडाउन की खबरों में भी खूब खेल होता दिख रहा है। कई चैनल और अखबार गैर-भाजपा सरकारों वाले राज्यों को ज़्यादा टारगेट करते दिखे हैं। वहाँ कोरोना के मामलों की संख्या और घटनाओं को लेकर रिपोट्र्स भेदभाव वाली रही हैं। एक और मामला कोरोना की महामारी के बीच तबलीगी जमात और मरकज़ का बना है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मरकज़ से कुछ गलतियाँ हुईं। लेकिन इस मामले में सरकार की एजेंसियों से जो चूक हुई, उसे दो-चार पत्रकारों के अलावा खबरों में किसी ने उठाना ज़रूरी नहीं समझा।
बहुत से टीवी चैनल और अखबार आज तबलीगी जमात से जुड़े कोरोना के मामलों की अलग श्रेणी में बता रहे हैं। ये चैनल और अखबार मौत और संक्रमण की संख्या के मामले में विदेशियों को अलग वर्ग में दिखाएँ, तो समझ में आता है; लेकिन देश के ही नागरिकों पर दोषी होने का ठप्पा लगाकर इन्हें अलग वर्ग में दिखाना क्या पत्रकारिता के नियमों के खिलाफ नहीं?
चंडीगढ़ में जनसत्ता से एक साल पहले ही जुड़ी युवा पत्रकार तमन्ना अख्तर कहती हैं कि देश में अब पत्रकार बहुत दबाव में काम करने लगे हैं। सच लिखने पर उनकी नौकरी चली जा रही है। देश को आज जब साम्प्रदायिक ताकतों से लडऩे के लिए मज़बूत पत्रकारिता की ज़रूरत है। लेकिन दुर्भाग्य से पत्रकार या तो सत्ता के साथ बैठे दिख रहे हैं या जो विरोध कर रहे हैं, उन्हें ठिकाने लगा दिया जा रहा है।
वह कहती हैं कि एक पत्रकार होने के नाते मुझे मौलिक अधिकारों में कहने का जो अधिकार मिला है, वह राजनीतिक दबाव का शिकार हो गया है। इससे पत्रकारिता अपनी महत्ता और ताकत खो रही है। बहुत से ऐसे लोग इस प्रोफेशन में हैं, जो सच सामने लाने की जगह फेक न्यूज फैला रहे हैं। यदि कोई सच में भारत के मूल सिद्धांतों का पालन करे, तो वह मुख्य धारा के मीडिया की जगह स्वतंत्र मीडिया को ज्वाइन करना चाहेगा। इसका कारण मुख्यधारा के मीडिया का एक तरफा होना है, जिसका एक कारण राजनीतिक दबाव और मीडिया को प्रचारतंत्र के रूप में इस्तेमाल करने में बढ़ती दिलचस्पियॉँ हैं।
तबलीगी जमात के मामले में कई तरह की नकारात्मक खबरें आयीं, जिन्हें मीडिया के एक वर्ग को खूब प्रचार मिला। पुलिसकर्मी पर थूकने वाली खबर झूठ निकली। वह एक पुरानी खबर है, जो मुम्बई की है। इसी तरह कोरोना फैलाने के लिए खाने के बर्तन जूठे करने की खबर भी झूठी निकली। वह वीडियो बोरा समुदाय की है, जो खाने के बाद जूठन चाटते हैं। उनके धर्मगुरु कहते हैं कि अनाज का एक भी दाना बर्बाद नहीं करना चाहिए। खैर, जैसे ही ये झूठी खबरें मीडिया में चलीं, नफरत ब्रिगेड ने सोशल मीडिया में भी खूब ज़हर फैलाया।
उत्तर प्रदेश के मेरठ, सहारनपुर, देहरादून आदि की घटनाओं का सच भी सामने आ गया। इनमें थूकने, काटने, नॉनवेज के लिए जमातियों के खाना फेंकने, एक-एक जमाती के 25-25 रोटी खाने जैसी आश्चर्यजनक खबरें थीं; जो वास्तव में जाँच के बाद गलत निकलीं। लेकिन मीडिया के एक वर्ग ने इन्हें बिना जाँचे-परखे खूब चलाया और नफरत फैलायी।
पत्रकारिता में अनैतिकता का एक और मामला मीडिया में कोरोना के संक्रमितों और मरने वालों की संख्या बताने में दिखा। मीडिया के एक वर्ग ने तबलीगी जमात से जुड़े लोगों का अलग ही वर्ग बना दिया। यह वैसा ही था, जैसे अपराध की किसी खबर में यह कहा जाये कि हिन्दू चोर या मुस्लिम चोर ने घर में सेंध लगायी। इस तरह मीडिया के इस वर्ग ने उन लोगों की राजनीति साधने की कोशिश की, जो कोरोना जैसी महामारी को भी हिन्दू-मुस्लिम में बाँट देना चाह रहे थे।
वैसे गलतियाँ तबलीगी जमात के कारकूनों से भी हुईं। नियमों का पालन न करने से लेकर पत्रकारों को धमकाने तक के मामले सामने आये। इसके बाद न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) को कहना पड़ा कि भारत में कोविड-19 के मामलों को बढ़ाने वाले तबलीगी जमात की रिपोॄटग करने पर पत्रकारों को धमकियाँ और गालियाँ दी जा रही हैं। ऐसे धाॢमक प्रचारकों और उपदेशकों को न्यूज चैनलों/पत्रकारों को धमकी देने और आक्षेप करने से बाज़ आना चाहिए।
निष्पक्ष पत्रकारों पर खतरे
पत्रकार होते हुए भी चरणचाटु बन गये लोगों की भीड़ में अब कुछ ही अनोखे बचे हैं। वे सत्ता की छोटी, लेकिन हानिकारक चट्टानों से रोज़ भिड़ते हैं; सच लिखते हैं। लेकिन इनमें कई ऐसे हैं, जिनके पास अगले दिन अखबार में छपी रिपोर्ट देखने के लिए अखबार खरीदने भर के पैसे भी नहीं होते हैं।
यदि पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारों पर हमलों की घटनाओं का अध्ययन करें, तो हम देखेंगे कि निचले स्तर पर पत्रकार इसके ज़्यादा शिकार हुए हैं। इन पत्रकारों को स्थानीय ठेकेदारों, सियासी लोगों और गुण्डों ने मारा-पीटा और सताया यहाँ तक कि जान से भी मार दिया है। कहीं-कहीं सरकारी तंत्र ने भी इन्हें खूब सताया है। संसाधनों की कमी के अलावा ये पत्रकार आॢथक रूप से मज़बूत नहीं होते और बहुत दबावों का सामना उन्हें करना पड़ता है।
द ट्रिब्यून के जम्मू-कश्मीर में वरिष्ठ पत्रकार रहे एस.पी. शर्मा कहते हैं कि अब पत्रकारिता मिशन नहीं रह गया। रोज़गार के बढ़ते दबाव ने पत्रकारिता को भी एक आम नौकरी की तरह बना दिया है। वे कहते हैं- ‘इसका कारण आॢथक असुरक्षा का दबाव भी है और शारीरिक असुरक्षा का भी। जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में काम करते हुए तो वैसे भी चुनौतियाँ बहुत ज़्यादा हो जाती हैं। इसके अलावा राजनीति का दबाव अब पत्रकारिता को खत्म कर रहा है।’
यह भी एक सच्चाई है कि हमारा देश तेज़ी से पत्रकारों के लिए असुरक्षित बनता जा रहा है। लेकिन साथ ही यह भी सही है की पत्रकारिता में अब बहुत अवगुण आ गये हैं और पीत पत्रकारिता असली वाली पत्रकारिता पर हावी हो गयी है। महिला पत्रकारों के लिए भी अब मुश्किल दौर है। राजनीति में जमे लोग समाज के अपराधियों को संरक्षण देते हैं और जो पत्रकार उनकी नकाब उतारने के जुर्रत करता है, उसे कोई-न-कोई रास्ता दिखा दिया जाता है। या तो मालिकों से मिलकर उसे निकलवा दिया जाता है या फिर दूसरी तरह से उससे निबट लिया जाता है। हालाँकि, कुछ मीडिया संस्थान इसके अपवाद भी हैं।
द इंडियन एक्सप्रेस में जम्मू में काम कर चुकीं अनुजा खुशु कहती हैं- ‘महिलाओं के लिए तो स्थितियाँ और भी भयावह हुई हैं। ऐसा पहले भी था, लेकिन अब स्थिति बहुत खराब हो चुकी है। सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ भद्दी टिप्पणियाँ होती हैं और कार्यस्थल पर भी बहुत से दबाव वे झेलती हैं।’
हाल में सोशल मीडिया पर पत्रकारों के खिलाफ तमाम तरह के दुष्प्रचार का चलन बढ़ा है। इसके पीछे कोई ईमानदार लोगों की टोली नहीं है, बल्कि राजनीति के ही लोग हैं। वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने हाल ही में कहा था- ‘पत्रकारिता बहुत जोखिम और चुनौतियों वाला पेशा हो गया है। लेकिन पत्रकारों को निष्पक्ष रहना चाहिए और किसी भी रूप से चरमपंथियों और उनकी विचारधारा का समर्थन नहीं करना चाहिए। दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों और संस्थानों में मीडिया के प्रति दुर्भावना को बढ़ावा देने का चलन बढ़ा है, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा है।’
कुल मिलाकर देखा जाए, तो शायद यही कारण हैं कि पहले पत्रकारिता में आने की जो दिलचस्पी युवाओं में दिखती थी, पिछले दो दशकों में इसमें काफी कमी आयी है। हाल के वर्षों में पत्रकारिता पढ़ा रहे संस्थानों को अपेक्षाकृत कम छात्र मिल रहे हैं। अपना नाम न छपने की शर्त पर दिल्ली के एक निजी कॉलेज में पत्रकारिता विभाग के प्रमुख ने कहा- ‘राजनीति में गुण्डागर्दी का बोलबाला हो गया है। टीवी के चलन से शोहरत और पैसे के लिए युवा पत्रकारिता में आने लगे थे। लेकिन पिछले दो-तीन साल में इस क्षेत्र से उनकी रुचि घटी है।’
भटकाव के रास्ते पर पत्रकारिता
देश में पत्रकारिता के बदलते रंग पर बहुत से सवाल हाल के वर्षों में उठने शुरू हुए हैं। कभी समाज की पीड़ा को अपनी पीड़ा बना लेने का जूनून अब पत्रकारिता में खत्म हो गया है। यह नये ज़माने की पत्रकारिता है। व्यवस्था से टक्कर लेने का दौर गुज़र गया। अब व्यवस्था से मित्रता की पत्रकारिता है। पत्रकारिता के लिए यह खौफ और चाटुकारिता का दौर है। इसमें ईमानदार पत्रकार परेशानी झेलने के साथ-साथ खौफ का दंश झेल रहे हैं और चाटुकार आनन्दमय जीवन जी रहे हैं।
देश में दर्जनों ऐसे पत्रकार हुए हैं, जिन्होंने पत्रकारिता को बेज़ुबानों की ज़ुबान बनाया और सत्ता की खूँखार तोपों के सामने बेखौफ खड़े रहे। सभी पत्रकार ऐसा नहीं कर पाते। हाल के वर्षों में यह साबित हुआ है कि अब सत्ता का खौफ के अलावा सुखमय जीवन की इच्छा इस पेशे में उतरे अधिकतर लोगों पर हावी हो चुकी है। लेकिन सत्ता की गलत नीतियों का प्रतिकार सबके बस की बात भी नहीं। इमरजेंसी में भी हुआ था। इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका इसका उदाहरण हैं। इंदिरा गाँधी से मित्रता होते हुए भी इमरजेंसी का जैसा विरोध एक अखबार का मालिक के नाते गोयनका ने किया था, पत्रकारिता जगत में वैसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं।
जाने-माने पत्रकार रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी, दीपक दुआ, अभिसार शर्मा तो पत्रकारिता के बदलते स्वरूप के खिलाफ बहुत मुखर रहे हैं। रवीश कुमार टीवी में पत्रकारों के चरित्र के चीखने-चिलाने वाले व्यक्तियों के रूप में बदल जाने से वे बहुत आहत दिखते हैं। वह कहते हैं- ‘अब सरोकार की पत्रकारिता नहीं रही। इस देश में दर्जनों गम्भीर मुद्दे हैं। नौकरियों की समस्या है। किसानों की दिक्कतें हैं। भ्रष्टाचार है और भी बहुत कुछ है। लेकिन पत्रकार क्या कर रहे हैं? वे हिन्दू-मुस्लिमवाद में फँस गये हैं। वे भारत-पाकिस्तान की जंग करवा रहे हैं। वे वह काम कर रहे हैं, जो राजनीतिक दल उनसे करवाना चाहते हैं।’
घटनाएँ और हालत देखकर लगता है कि देश की जड़ से जुड़ी पत्रकारिता का प्राइम टाइम गुज़र चुका है। व्यवस्था में दुष्ट आत्माओं को चुभन देने वाले पत्रकार अब बिरले ही बचे हैं और जो बचे हैं, वे भी सत्ता और ताकत की दुष्ट आत्माओं का कोप झेल रहे हैं। शब्दों के कटाक्ष से व्यवस्था पर हथोड़े जैसी चोट करना अब दुर्लभ हो गया है।
एक ज़माना था, जब पत्रकारिता दबी-कुचली आवाज़ों को जोश देने और उठाने का बहुत मज़बूत औज़ार था। तब पत्रकार व्यवस्था की कैंची के शिकार बेज़ुबानों की भी आवाज़ थे।
हालाँकि, आज जब सवाल कर सकने की हिम्मत रखने वाली पत्रकारिता मुश्किल काल में घिरी है, तब कुछ पत्रकार भी हैं, जिन्होंने अपनी और बेज़ुबानों की आवाज़ बनाये रखने की मज़बूत हिम्मत दिखायी है। लेकिन चिन्ता की बात यह भी है कि व्यवस्था से टक्कर लेने वाली पत्रकारिता का दौर संक्रमणकाल से गुज़र रहा है। सत्ता की खूँखार तोपों के सामने बेखौफ खड़े रहने की हिम्मत अब अधिकतर पत्रकार नहीं कर पाते।
इसका सबसे खराब नतीजा यह भी निकला है कि भारत में पत्रकार और पत्रकारिता समाज की नज़रों में कमतर होते जा रहे हैं। अब अधिकतर पत्रकार आम जनता से जुड़े पत्रकार नहीं रहे और उनका काम सत्ता के कदमों में बैठने का हो गया है। अब पत्रकारिता की हालत देखकर आमजन यह महसूस नहीं करता है कि कोई चैनल या अखबार अब उनकी आवाज़ बन सकता है।
आज पत्रकारिता के नाम पर शोर मचाते पत्रकार ही टीवी चैनलों पर दिखते हैं। अखबारों की हालत भी कुछ बहुत बेहतर नहीं। इनमें बहुत से राजनीतिक दलों की ढाल या उनकी आवाज़ बन गये हैं। जनता से तो मानो इन्हें कोई सरोकार ही नहीं रहा। इनकी खबरों का हर पहलू राजनीति से जुड़ा होता है। पत्रकारिता के इस भीषण शोर में असली पत्रकारिता की मुखर आवाज़ शान्त है। मानो यह आवाज़, जिससे सत्ताएँ खौफ खाती थीं; कहीं शून्य में विलीन हो गयी है।
सत्ता की निष्ठुर चट्टानों से भिड़कर गलत को गलत कहने की जुर्रत करने वाले पत्रकार अब बहुत ही बिरले रह गये हैं। खासकर बड़े शहरों में ऐसे पत्रकारों का अभाव है। उनसे तो छोटे शहरों, कस्बों में पत्रकारिता कर रहे पत्रकार फिर भी बेहतर हैं। लेकिन ये पत्रकार बिल्कुल निचले स्तर पर खड़े हैं, जो आमजन की आवाज़ तो हैं, पर अँधेरी गलियों में पड़े हैं।