क्या कोई कार्टून इतना कहर ढा सकता है कि अखबार का समूचा संपादक मंडल जेल में डाल दिया जाए और मुद्रक से लेकर हॉकरों तक को न बख्शा जाए? जवाब है-हां. भोपाल से शाकिर अली खां के संपादन में निकलने वाले उर्दू साप्ताहिक सुबहे वतन में एक कार्टून छपने के बाद ऐसा ही हुआ. यह घटना कोई किंवदंती नहीं बल्कि ऐसी सच्चाई है जो जिसका प्रमाण भोपाल के माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय में रखी है. वाकया 1934 का है जब भोपाल कौंसिल के चुनाव में निजाम के उम्मीदवार को आवाम के उम्मीदवार ने हराया था. और उसके बाद एम इरफान ने ऐसा कार्टून बनाया जिसमें इकहरी हड्डी का एक आदमी मस्तमौला पहलवान को धोबी पछाड़ लगाते हुए दिखाया गया था.
यदि संग्रहालय किसी शहर की खिड़की है तो यकीन मानिए भोपाल का सप्रे संग्रहालय ऐसा दरवाजा है जिससे होकर आप एक सौ पचास वर्ष की भारतीय पत्रकारिता के ऐसे ही कई रोचक किस्सों के बीच टहलकदमी कर सकते हैं. कहने को भारत सरकार के दिल्ली सहित कई नामी शहरों में आलीशान अभिलेखागार हैं. लेकिन जहां तक समाचार पत्रों के संग्रहालय की बात है तो गैरसरकारी स्तर पर चलने वाला सप्रे संग्रहालय देश में अपनी तरह का एकमात्र संग्रहालय है. यहां भारत के पहले अखबार से लेकर अब तक की सभी मुख्य पत्र-पत्रिकाओं को पूरी शिद्दत के साथ फाइलों में दर्ज किया जाता है. संग्रहालय की 29 साल की इस अनथक यात्रा से जुड़ी एक अच्छी खबर यह है कि यहां बीस हजार पत्र-पत्रिकाओं की फाइलों सहित गजेटियरों, जांच प्रतिवेदनों, हस्तलिखित पांडुलिपियों और कई दस्तावेजों को मिलाकर अब तक 27 लाख पन्नों की संदर्भ सामग्री तैयार की जा चुकी है.
भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन से न्यू मार्केट की ओर जाने वाले लिंक नंबर-3 पर बना माधवराव सप्रे संग्रहालय बाहर से जितना साधारण दिखता है भीतर से उतना ही अनूठा है.
इसका एहसास संग्रहालय में प्रवेश करते ही तब होता है जब तमाम अखबारों के पीले पन्नों में से कहीं आपको ऐसी इबारत पढ़ने को मिल जाती है जिसके किस्से आपने अकादमिक संस्थानों में सुने थे या फिर जिनका जिक्र किसी किताब में मिला था. और फिर आप बीते काल खंडों में जाए बिना रह नहीं पाते. भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में जिस हिकीज गजट (1780 में प्रकाशित हुआ भारत का पहला अखबार) के बारे में हम सबने पढ़ा-सुना है उसे चाहें तो आप छूकर देख सकते हैं. इक्कीसवीं सदी के सेल्फ पर खड़े झांक सकते हैं कि हिंदी का पहला अखबार उदंत मार्तंड (1826) आखिर दिखता कैसा था. यहीं रखा है लंदन का सबसे पुराना अखबार स्फियर (1764) और इसी के साथ आपको मध्य प्रदेश का प्राचीन मालवा अखबार (1849) भी मिल जाएगा. अगली कड़ी में देहली उर्दू अखबार (1836), मराठी भाषा के प्रभाकर (1841) और पहले दैनिक अखबार सुधा वर्षण जैसे कई अखबारों को जब आप उनके पहले अंकों के साथ पलटेंगे तो जानेंगे कि लिथो प्रिंटिंग के जमाने में आखिर अखबार कैसे निकलता था. इसी खजाने में भारतेंदु हरिश्चंद्र की हरिशचंद्र पत्रिका, बालकृष्ण भट्ट की हिंदी प्रदीप के अलावा नागरी प्रचारणी सभा, सरस्वती स्वराज्य और कर्मवीर को पढ़ते हुए आप पाएंगे कि उन दिनों उनकी विषय-वस्तु और भाषा-शैली कैसी हुआ करती थी.
[box]‘यदि इस छत के नीचे पांच सौ साल का इतिहास आ गया है तो इसलिए कि कई परिवारों ने इसे बचाने के लिए हम पर भरोसा किया’[/box]
समाचार पत्रों के झरोखे में आजादी की लड़ाई (1857-1947) की ऐसी आंखों देखी झांकी भी नजर आती है जिसमें किसी जगह तात्या टोपे जैसे किसी आदमी के दिखाई पड़ने की अफवाह भी है तो भगत सिंह की फांसी की खबर भी. हालांकि इतिहास की कई बड़ी घटनाओं को हम इतनी दफा सुन चुके हैं कि उन्हें सुनकर रूखापन छा जाता है. मगर अब आप द्वितीय विश्वयुद्ध, देश विभाजन, भारत की आजादी, और गांधीजी की हत्या की तारीख वाली सुर्खियों के सामने आइए. यहां 15 अगस्त, 1947 को हिंदुस्तान की आजादी का जीवंत इतिहास पढ़कर कौन रोमांचित नहीं हो जाएगा. या ‘मां की छाती पर घोर वज्रघात’ (भारत अखबार) गांधीजी की हत्या के दिन बनी यह खबर आपके भीतर वह तड़प भरती है जो 30 जनवरी, 1948 को 35 करोड़ भारतीयों को हुई होगी. अखबार इतिहास को दर्ज करते हैं. मगर सप्रे संग्रहालय में समाचार-पत्रों का इतिहास दर्ज है और इसी के साथ मीडिया का विकासक्रम भी. आजकल अखबार में आठ कॉलम का चलन है.
एक जमाना था जब नौ कॉलम वाला लंबा-चौड़ा अखबार छपता था. 1905 में छपा नौ कॉलम वाला श्रीवेंकटेश्वर अखबार संग्रहालय में सुरक्षित रखा है. वहीं 1894 में छपा 74×54 सेंटीमीटर के आकार का टाइम्स ऑफ इंडिया (आज के अखबारों से लगभग दोगुना) भी आकर्षण का केंद्र है. दूसरी तरफ, 1884 में छपा पोस्टकार्ड साइज का मौजे नरबदा भी आप देख सकते हैं. मौजे नरबदा हुकूमत के दमन का शिकार होने वाला मप्र का पहला अखबार है. सदाकत अखबार के संपादक अब्दुल करीम को भोपाल रियासत के खिलाफ टिप्पणी करने के बाद रियासत से बाहर निकाला गया था. इसके बाद उन्होंने होशंगाबाद से मौजे नरबदा निकालना शुरू कर दिया. भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली आवाज कोलकाता के अंग्रेजी अखबार हिकीज गजट ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ उठाई थी. तब संपादक जेम्स आगस्टस हिकी को अपने इस दुस्साहस का अंजाम भारत छोड़ने के फरमान के तौर पर भुगतना पड़ा था. और इंग्लैंड पहुंचने से पहले ही उनकी मौत की खबर मिली थी. जाहिर है यहां रखे अखबार इस बात के गवाह हैं कि हमारी समकालीन समस्याएं नई नहीं हैं और न ही मीडिया के सामने चुनौतियां ही.
भले ही अखबार की जिंदगी को सुबह की चाय की चुस्कियों के साथ खत्म मान लिया जाए और अगले रोज वह रद्दी की टोकरी में नजर आए. यहां ऐसे ही रद्दी समझे जाने वाले कई टुकड़े अब इतिहास की धरोहर बन गए हैं. इन्हीं में नील आर्मस्ट्रांग के चंद्रमा पर पहुंचने के बाद जुलाई, 1969 के अखबार की एक कतरन का शीर्षक है- ‘मानव ने चांद पर कदम रखा.’ या 16 दिसंबर, 1971 के अखबार की सुर्खी ‘जनरल नियाजी ने लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा के सामने घुटने टेके’.
यह संयोग है कि जिस वर्ष भोपाल गैस कांड हुआ था उसी साल यानी 1984 में माधवराव सप्रे संग्रहालय भी वजूद में आया. यहां इस त्रासदी की खबरों से जुड़े कई पृष्ठ भी आप देख सकते हैं. उस समय के कई अखबारों के कार्यालयों में भी इस कांड पर प्रकाशित खबरों के पृष्ठ नहीं हैं लिहाजा कई पत्रकार इस हादसे से जुड़ी खबरों को देखने के लिए यहां आते रहते हैं. दरअसल संग्रहालय में हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं की कई पत्र-पत्रिकाओं की फाइलें अपने पहले अंक के साथ सहेजी जाती हैं. कुछेक अखबारों के तो ऐसे अंक भी हैं जो अब उनके प्रकाशकों के पास भी नहीं हैं. जैसे, मराठी भाषा के अखबार विदूषक और सकाल के कई दुर्लभ अंक महाराष्ट्र में भी नहीं मिलेंगे. 19 जून, 1984 को हिंदी के पत्रकार माधवराव सप्रे के नाम पर स्थापित इस अभिलेखागार की स्थापना के समय से इससे जुड़े वरिष्ठ पत्रकार संपादक विजयदत्त श्रीधर बताते हैं कि 1982-83 में मप्र पत्रकारिता के इतिहास पर किताब लिखने के लिए जब जगह-जगह जाना हुआ तो यह चिंता हुई कि जर्जर पृष्ठों में पड़ी बुजुर्गों की यह जायदाद कहीं नष्ट न हो जाए. इसके बाद श्रीधर ने पुराने अखबारों को घर-घर जाकर तलाशना शुरू किया. श्रीधर ने समाचार पत्रों के इतिहास को न केवल समेटा बल्कि लिखा भी है. और उन्होंने इतिहास के महत्वपूर्ण लेखों को एक किताब के तौर पर तीन खंडों (1780-1947) में शामिल किया है. श्रीधर के मुताबिक, ‘यदि इस छत के नीचे पांच सौ साल का इतिहास आ गया है तो इसलिए कि कई परिवारों ने इसे बचाने के लिए हम पर भरोसा किया.’ माखनलाल चतुर्वेदी और धर्मवीर भारती के परिवार के सदस्यों ने निजी पुस्तकालय ससम्मान सप्रे संग्रहालय को सौंप दिए. संग्रहालय ने भी दानदाताओं की सामग्री को उनके नाम के साथ प्रदर्शित करने में जरा भी संकोच नहीं किया. शायद यही वे खूबियां हैं जिनकी वजह से सप्रे संग्रहालय की रजत जयंती (2008) पर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसकी तारीफ की थी.
इतिहास के सूत्र
सुर्खियों में केवल समाचार भर नहीं होते. ये उस कालखंड की समाज-संस्कृति का जीवंत दृश्य भी होती हैं. इसी कड़ी में यहां महत्वपूर्ण साक्ष्यों के तौर पर माने जाने वाले अंग्रेजी और हिंदी के कई गजेटियर हैं. 1905 में अंग्रेजी का पहला गजेटियर बना था और उसके एक दशक बाद राय बहादुर हीरालाल ने हिंदी वालों के लिए छोटे-छोटे और जिलावार गजेटियर शुरू किए. उन्हें अनुप्रास अलंकार में नाम दिए गए. जैसे, नरसिंहपुर जिले के गजेटियर का नाम रखा- नरसिंह नयन. इसी तरह, जबलपुर ज्योति, होशंगाबाद हुंकार, सागर सरोज और रायपुर रश्मि आदि चलन में आए. इनमें आप अपने समय के सूखे और अकाल के ब्यौरे सहित कई प्रसंग खंगाल सकते हैं.
संग्रहालय का दूसरा बड़ा काम 1509 से 1925 तक की दुर्लभ पांडुलिपियों की खोज है. यहां मनुस्मृति से लेकर झांसी की रासो तक की हजारों पांडुलिपियां हैं. हाल ही में संग्रहालय को गोस्वामी तुलसीदास की श्री रामविवाह की हस्तलिखित पांडुलिपि मिली है. इसके अलावा हिंदी के ख्यातिनाम साहित्यकार सुमित्रानंदन पंत, सुभद्राकुमारी चौहान, हजारी प्रसाद द्विवेदी और भवानी प्रसाद मिश्र के पत्राचार संकलन संग्रहालय की नई उपलब्धि हैं. इन पत्रों में अपने समय के अहम मुद्दों पर चला विमर्श है. यही वजह है कि पटना से प्रकाशित होने वाले अखबार के प्रभात खबर के संपादक हरिवंश सप्रे संग्रहालय को शब्दों और विचारों की विपुल संपदा का रक्षक बताते हैं. वे कहते हैं, ‘हिंदी में ऐसी दूसरी संस्था नहीं. हिंदी इलाकों में संस्थाओं के क्षय का रोना चलता रहता है पर विपरीत परिस्थितियों में ऐतिहासिक महत्व की संस्था बनाना कोई यहां से सीखे.’ 25-30 साल का अरसा कुछ नहीं होता. मगर इतने कम समय में ही यह शोधार्थियों का नया ठिकाना बन गया है. सप्रे संग्रहालय में देश के कई विश्वविद्यालयों के हजारों शोधार्थियों ने शोध पूरे किए हैं. वहीं कई साहित्यकारों को जब कोई जरूरी दस्तावेज कहीं नहीं मिला तो उन्हें यहां आकर कामयाबी मिली. इन्हीं में अपनी मौत से ठीक पहले यहां आए कमलेश्वर भी हैं. वे हिंदी-उर्दू पर काम करने वाले थे और यहां आकर उन्हें उनके काम की किताब मिल गई. संग्रहालय में हिंदी के बाद सबसे बड़ा जखीरा उर्दू का दिखता है. यहां भोपाल सहित, लाहौर, हैदराबाद, लखनऊ, बरेली और दिल्ली के कई पुराने अखबार हैं.
[box]यहां मनुस्मृति सहित हजारों पांडुलिपियां हैं. हाल ही में संग्रहालय को गोस्वामी तुलसीदास की श्री रामविवाह की हस्तलिखित पांडुलिपि मिली है[/box]
देश के विभाजन से पहले भोपाल उर्दू का बड़ा गढ़ था और इसलिए पाकिस्तान के कौकब जमील जैसे मशहूर पत्रकार-लेखक अपने शोध के लिए भोपाल आते हैं. संग्रहालय की निदेशक मंगला अनुजा बताती हैं, ‘जब दुनिया भर की खाक छानकर कोई यहां आए और उन्हें उनके काम की सामग्री मिल जाए तो आत्मसंतुष्टि मिलती है.’ अनुजा विदेश के अनेक शोधार्थियों के लिए कई बार दुर्लभ सामग्री जुटा चुकी हैं. जापान की शोधार्थी हिसाए कोमात्सु का ही किस्सा लें. वे चार साल पहले दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से ‘हिंदी क्षेत्र में स्त्री का स्त्री विमर्श’ विषय पर शोध कर रही थीं. और उन्हें 1857 से 1947 के अखबारों की तलाश थी. कोमात्सु ने एक दिन कहीं सप्रे संग्रहालय से जुड़ी खबर पढ़ी और भोपाल आ गईं. तीन साल दिल्ली में भटकने के बाद आखिर उन्हें यहां अपने शोध के लिए जरूरी जानकारी का भंडार मिल गया.
इन दिनों यहां पहले दिन से आज तक उपयोग में लाए गए कैमरों और रेडियो को खोजने का काम चल रहा है. फिलहाल यदि आपको देखना है तो द्वितीय विश्वयुद्ध के जमाने में सेना के उपयोग के लिए लाया गया ट्रांसमीटर देख सकते हैं. आप चाहें तो यहां 1948 में बापू की हत्या का समाचार सुनाने वाले रेडियो की तस्वीर भी खींच सकते हैं. भारतीय पत्रकारिता की तकरीबन डेढ़ सौ साल की झलकियां देखकर जब आप फिर से संग्रहालय के प्रवेशद्वार पर आते हैं तो यहां रखी तोप आपको चौंकाती नहीं है. इस तोप के नीचे अकबर इलाहाबादी का सबसे ज्यादा दोहराया जाने वाला वह शेर लिखा है, ‘…जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो.’ इसे देखकर सहसा आप महसूस करते हैं कि प्रतीक के तौर पर ही सही भेलसा (विदिशा) से आई 17वीं सदी की तोप शायद पत्रकारिता के इतिहास की रक्षा के लिए ही यहां तैनात है.
पत्रकार और सूत्रधार
‘जाके पांव न फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई.’ मध्य प्रदेश में यह कहावत खूब कही-सुनी जाती है. और नरसिंहपुर जिले के बोहानी गांव से मीडिया की दुनिया के संवेदनशील रिपोर्टर, संपादक, पत्रकारिता के उम्दा लेखक तथा सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय की नींव डालने वाले विजयदत्त श्रीधर पर तो यह सटीक बैठती है. दरअसल अस्सी के दशक में मप्र की पत्रकारिता के इतिहास पर किताब लिखने के लिए जब श्रीधर को इधर से उधर भटकना पड़ा तो उन्हें लगा कि लेखकों के लिए संदर्भ सामग्री को एक छत पर लाना कितना जरूरी है. उन्हें यह एहसास भी हुआ कि समाचार पत्र-पत्रिकाएं केवल पत्रकारों और प्रकाशकों का ब्योरा ही नहीं देतीं बल्कि उनमें समसामयिक घटनाक्रम के साक्ष्य भी होते हैं और इसीलिए राष्ट्र की इस बौद्धिक धरोहर को बचाना चाहिए. मगर सामग्री संकलन का काम कोई आसान नहीं होता.
श्रीधर बताते हैं कि जब तक सामग्रीदाता को यह भरोसा न हो जाए कि आप उनकी अमानत को बचाकर रख पाएंगे तब तक कोई आपके हाथों कुछ सौंपता भी नहीं है. ऐसा कई बार हुआ कि किन्हीं ने पहले सामग्री देने के लिए हां कह दी और बाद में वहां से खाली हाथ ही लौटना पड़ा. लेकिन बुजुर्गों ने हमेशा समझाया कि जब झोली फैलाई है तो अहं को सिर नहीं उठाने देना. बकौल श्रीधर, ‘जबलपुर में सामग्री संकलन अभियान के अहम सहयोगी शंकर भाई ने हमारे लिए एक संबोधन गढ़ा- ‘कबाड़ी.’ जब कभी जबलपुर जाना होता, वे संदर्भ सामग्री देने वालों से कहते भोपाल से कबाड़ी आएं हैं, अपना कबाड़ खाली कर दो. जिस अदांज में शंकर भाई कबाड़ी कहते वह किसी बड़े सम्मान से कम नहीं था.’ दरअसल ऐसी सामग्री श्रीधर को हमेशा अपने कंधों पर ढोनी पड़ी है. ऐसी ही मशक्कत के चलते सबका उन पर भरोसा बढ़ता गया. वहीं सप्रे संग्रहालय ने अपने पहले पड़ाव से ‘मैं’ की जगह ‘हम’ को अपनाया और इसीलिए पहले प्रदेश और फिर देश भर में संग्रहालय का एक कुटुंब बन गया.