‘देख न! कितने दिनों से बीचोबीच में पड़ा हूं…’
‘भई अपनी-अपनी किस्मत है.’
‘मुझे हमेशा डर लगा रहता है…’
‘किस बात का?’
‘कोई लात न मार दे!’
‘डर मत यार!’
‘मुझसे पूछो, हर पल एक खटका सा लगा रहता है, अब पड़ी कि तब पड़ी!’
‘हूं… सब जानता हूं, तेरी ही तरह कभी बीचोबीच में मैं भी पड़ा हुआ था…’
‘मैं तो दिन-रात यही दुआ करता रहता हूं कि कोई हाथ मुझे उठा कर किनारे रख दे! कसम से मैं तो उस हाथ को चूम लूंगा.’
‘हा हा हा…’
‘तू हंस क्यों रहा है?’
‘तेरी मासूमियत पर!’
‘समझा नहीं…’
‘चूमने की छोड़! तुझे किनारे पर आना है न!’
‘नेकी और पूछ-पूछ!’
‘तो दुआ करना छोड़ दे!’
‘ये क्या उल्टी गंगा बहा रहा है..’
‘जो कह रहा हूं वो कर! यह मैं नहीं मेरा अनुभव बोल रहा.’
‘तू किनारे कैसे पहुंचा!’
अभी दूसरा पत्थर जवाब देता कि ठक! से एक आवाज हुई. सड़क के बीचोबीच पड़ा हुआ पत्थर लुढ़कता हुआ किनारे आ गया. अब एक इस पार तो दूसरा उस पार था.
‘गुरु, मैं तुम्हारे पैर छूना चाहता हूं…’
‘अक्ल पर पत्थर पड़ गया है क्या!’
‘नहीं सच में! मैंने तुम्हें आज से अपना गुरु माना लिया है!’
‘तो मेरे नहीं, उस पैर के पैर छूओ जिसने तुझे तेरी मंजिल तक पहुंचाया!’
‘पैर ने नहीं, ठोकर ने!’
‘ठोकर लगते ही अक्ल आ गई बच्चू!’
‘नहीं-नहीं, अक्ल ठिकाने लग गई…’
कथा (2)
‘तुम!’
‘तुम!’
‘देखता ही रहेगा कि गले मिलेगा!’
‘ऐसे माहौल में!’
‘ये तो रोज का ड्रामा है!’
‘तो आ जा!’
‘गले मिलकर अब दिल में ठंडक पहुंची.’
‘सोचा न था कभी ऐसे मिलेंगे!’
‘हां… और ऐसे माहौल में…’
‘अच्छा ये बता कहां था इतने दिनों तक!’
‘मैं… मैं एक मूर्ति में रह रहा था!’
‘अच्छा-अच्छा!’
‘और तू!’
‘मैं एक गुम्बद में था…’
कथा (3)
‘कहां तू कहां मैं!’
‘क्यों क्या हुआ!’
‘मैं शिवालय की शोभा बनूंगा! मुझ पर चंदन-रोली-बेलपत्र-दूध चढ़ाया जाएगा.’
‘हां तो!’
‘देख मेरा भाग्य!’
‘भाग्य! यह तो अवसर की बात है. तुझे अवसर मिला तो तू शिखर पर जा विराजा और मुझे अवसर नहीं दिया
गया तो मैं पद दलित रहा.’
‘मेरे मुंह मत लग म्लेछ!’
‘तू जितना इठला ले, मगर इस सच को झुठला नहीं पाएगा!’
‘कौन-सा सच!’
‘यही कि मूलत: हम दोनों पत्थर ही हैं.’