संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे सभी भक्षक हैं। अर्थात् कोई भी प्राणी बिना भोजन के जीवित नहीं रह सकता। भले ही उसका भोजन कुछ भी हो। इसी के चलते अपने भोजन की व्यवस्था भी हर किसी को स्वयं करनी होती है। इसके लिए प्रकृति ने अपना विधान भी बना रखा है। देखने में आता है कि मनुष्य को छोड़कर बाक़ी सभी प्राणी प्रकृति के इसी विधान के अनुसार अपना जीवनयापन करते हैं। लेकिन मनुष्य हर क़दम पर अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति के विधान का उल्लंघन करता नज़र आता है। पाप और पुण्य की परिभाषाओं में उलझा सुख, समृद्धि, स्वर्ग और ईश प्राप्ति की कामना करने वाला मनुष्य ही है। अपनी इच्छापूर्ति के लिए दूसरों का अधिकार छीनकर, बेईमानी करके, अनर्थ करके सबसे ज़्यादा पाप करने वाला भी मनुष्य ही है।
धर्म कहते हैं कि दूसरों की कमायी खाना पाप है। हराम है। इसलिए दूसरों की मेहनत से कमाये हुए धन से पलने के बजाय अपनी मेहनत के कमाये धन से अपना और अपनों का पेट भरें और दूसरे अभावग्रस्त, असहाय प्राणियों को दान दें। लेकिन देखा जा सकता है कि अब बहुत-से लोग दूसरों की कमायी से अपनी सुख-सुविधाओं का इंतज़ाम करते हैं। यह भी देखा जाता है कि वही लोग सबसे ज़्यादा दूसरों की कमायी पर पलते हुए दिखते हैं, जो राजनीति से जुड़े हैं, अपने फ़ायदे के लिए दूसरी तरह की समाज सेवा से जुड़े हैं, जो धर्मों की ठेकेदारी करते हैं।
धर्मानुसार पत्नी को, नाबालिग़ रहने तक बच्चों को, सन्तान के जवान होने के बाद माँ-बाप को, यथोचित समय तक के लिए अतिथि को, बीमार को, मनोरोगी (पागल) को तथा अगर कोई कुछ करने योग्य न हो, तो उसको अर्थात् इन सबको ही पराश्रित रहने का अधिकार है। इन्हें आश्रित होने पर कोई पाप नहीं लगता। बाक़ी में अगर कोई कुछ पाने का अधिकार तभी पा सकता है, जब वह उसके बदले कुछ दे रहा हो। लेकिन अगर कोई बिना किसी परिश्रम के दूसरों के कमाये धन से अपना पेट भरता है, तो वह महापाप कर रहा होता है। शास्त्रों में ऐसे लोगों को परजीवी अर्थात् दूसरों का $खून चूसने वाला कहा गया है। ऐसे लोग मानव समाज के लिए घातक होते हैं, क्योंकि वे अपने हित साधने के लिए दूसरों को दु:ख पहुँचाते हैं। धर्म कहता है कि परजीवियों को समाज से तिरस्कृत कर देने में भी कोई पाप नहीं लगता। यह संसार के कल्याण के लिए, परिश्रमी और सज्जनों की सुरक्षा के लिए भी आवश्यक होता है।
इस प्रकार कह सकते हैं कि दूसरों के कमाये धन से अपना भरण-पोषण करने वालों को जीवित रहने का अधिकार नहीं है। अर्थात् संसार में जितने भी कामचोर और दूसरों का हिस्सा छीनने वाले लोग हैं, उन्हें जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है; भले ही वे नेता हों, धर्म के तथाकथित ठेकेदार हों, धर्म के नाम पर या व्यर्थ में ख़ुद को लाचार बताकर भीख माँगने वाले हों, समाजसेवा के नाम पर ठगी और लूट करने वाले हों अथवा आलसी हों। ऐसे लोगों से उसी तरह मेहनत करवायी जानी चाहिए, जिस प्रकार खेत में बैलों को जोता जाता है। इनमें भी जो अपने स्वार्थ तथा पालन के लिए अथवा धन की कामना से धर्म के नाम पर और शासन में आने पर लोगों को गुमराह करके उनसे ठगी करके, उन्हें लूटकर ख़ुद ऐशपरस्ती और अय्याशी में लगे रहते हैं, ऐसे लोगों को बैलों की तरह काम कराते हुए लगातार कोड़ों से भी मारते रहना चाहिए। क्योंकि मानव समाज के दु:ख का सबसे बड़ा कारण यही लोग हैं। यही लोग समाज के पतन के असली ज़िम्मेदार होते हैं।
एक राजा तभी राज्य करने के योग्य है, जब वह अपनी मेहनत की कमायी से अपना पेट भरे। वहीं एक धर्माचार्य भी तभी धर्म का उपदेश देने योग्य है, जब वह ख़ुद भी पूरी तरह से धर्म का आचरण करते हुए धर्म के मार्ग पर चलता हो। राजनीति में आकर सेवा की जगह घोटाले करके देश और देशवासियों को गुमराह करने वालों याद दिलाना होगा कि उन्हें सेवा के लिए सत्ता दी गयी है, किसी अय्याश की तरह भोग करने के लिए नहीं। तथाकथित धर्माचार्यों को भी यह याद दिलाना होगा कि धर्म त्याग, तपस्या, कल्याण और संन्यास की ओर ले जाता है, किसी को निकम्मा नहीं बनाता। लेकिन आजकल के तथाकथित धर्म के ठेकेदार और जनप्रतिनिधि निकम्मे, नाकारा, अयोग्य, लोगों को गुमराह करने वाले और धन लोलुप हैं। जबकि इसकी इजाज़त न तो राज-धर्म देता है और न ही कोई भी धर्म नहीं देता। इसका अर्थ यही हुआ कि जो लोग इस तरह सेवा और धर्म के क्षेत्र में आकर भी अपने स्वार्थ साध रहे हैं, वे निश्चित ही महापाप कर रहे हैं। सज्जनों का मत है कि पापी सम्मान देने के योग्य तो होते ही नहीं हैं, समाज में भी रहने योग्य नहीं होते हैं। लेकिन आजकल देखा जाता है कि ऐसे ही महापापियों को सबसे ज़्यादा सम्मान मिलता है और उनके आगे ही लोग नतमस्तक होते हैं। इसीलिए आज इंसान पतन की ओर जा रहा है।