ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टेरीज़ा मे ने जलियांवाला बाग नरसंहार को ब्रिटिश इतिहास की शर्मनाक घटना और धब्बा बताया। ब्रिटिश संसद में उन्होंने अफसोस जताया कि 100 साल पहले जो हुआ उसके कारण लोगों को एक त्रासदी झेलनी पड़ी। पर औपचारिक माफी की मांग पर ब्रिटिश सरकार वित्तीय कठिनाइयों का हवाला दे रही है।
टेरीज़ा ने कहा कि 1997 में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने जलियांवाला बाग जाने से पहले कहा था कि यह भारत के साथ हमारे अतीत के इतिहास की एक दुखद मिसाल है। इसके उत्तर में विपक्षी लेबर पार्टी के नेता जरमी कारबन ने मंाग की कि जिन्होंने इस नरसंहार में जान गंवाई उनसे माफी मांगी जानी चाहिए। पर विदेश मंत्री मार्क फील्ड ने हाउस ऑफ कॉमंस में बहस में हिस्सा लेते हुए कहा- हमें एक सीमा रेखा खींचनी चाहिए जो इतिहास का शर्मनाक हिस्सा है। उन्होंने कहा कि वह ब्रिटेन के औपनिवेशिक काल को लेकर थोड़े पुरातनपंथी हैं और किसी भी सरकार के लिए यह चिंता की बात हो सकती है कि वह माफी मांगे। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि माफी मांगने से वित्तीय मुश्किलें पेश आ सकती हैं।
फरवरी 2013 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड केमरून अमृतसर आए। उन्होंने जलियांवाला बाग में जाकर कहा था -‘ब्रिटेन साम्राज्य के इतिहास की यह सबसे शर्मनाक घटना है।’ उन्होंने यह भी कहा -‘जो कुछ हुआ हमें उसे भूलना नहीं चाहिए।’ लेकिन फिर भी उन्होंने 13 अप्रैल 1919 को हुए जघन्य नरसंहार के लिए ब्रिटिश सरकार की तरफ से माफी नहीं मांगी।
लेेकिन अब आ रही सूचनाओं के अनुसार इस हत्याकांड के 100 साल बाद अब ब्रिटिश सरकार ‘गहरा अफसोस’ व्यक्त करने वाली है। 100 साल के बाद अफसोस करने से क्या घाव भर पाएगा जो उस समय देश के शरीर पर हुआ, यह अभी स्पष्ट नहीं है। ब्रिटेन के एक मंत्री ने 19 फरवरी 2019 को हाउस ऑफ लार्डस में हुई बहस में कहा था कि ब्रिटिश सरकार औपचारिक माफी की मांग पर विचार कर रही है।
हाउस ऑफ लार्डस में ‘अमृतसर नरसंहार शताब्दी’ के नाम से चल रही चर्चा के दौरान वहां के एक मंत्री एनाबेल गोल्डी ने यह भी कहा था कि सरकार ने इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के 100 साल पूरे होने के मौके को यथोचित व सम्मानित तरीके से याद किए जाने की योजना बनाई है।
उन्होंने कहा कि जहां तक हम सब जानते हैं कि तत्कालीन सरकार ने लगातार इस नृशंसता की निंदा की थी, लेकिन किसी भी सरकार ने माफी नहीं मांगी। यही कारण है कि माफी मांगने के लिए इस साल 13 अप्रैल का दिन चुना गया। हालांकि सरकारी सूत्रों ने अभी इसकी पुष्टि तो नहीं की है पर कहा जा रहा है कि विदेश सचिव जेरेमी हंट इस दौरान भारत आ सकते हैं।
हंट ने सरकार को और इससे संबंधित समिति को इस सारी घटना का ब्योरा दिया और बताया कि माफी मांगने के लिए शताब्दी वर्ष सही समय है। गोल्डी ने भी हंट की तरफ से पिछले साल अक्तूबर में संसद की विदेश मामलों की समिति के सामने जलियांवाला बाग कांड को लेकर दिए गए मौखिक साक्ष्य का भी हवाला दिया था।
जलियांवाला बाग नरसंहार को लेकर ब्रिटेन के निचले सदन में हुई चर्चा भारतीय मूल के सांसदों राज लूंबा और मेघनाद देसाई ने शुरू की थी । इन दोनों ने कहा कि इस साल 13 अप्रैल को इस नरसंहार की शताब्दी पर अपनी गलतियों को सुधारने और औपचारिक माफी मांगने का सही समय है। इन दोनों सांसदों ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री को भी माफी मांगने के लिए पत्र लिखा। ये दोनों जलियांवाला बाग शताब्दी सालगिरह समिति के सदस्य हैं।
इस के बारे में लूंबा का कहना था कि सरकार के माफी मांगने से ब्रिटेन में रहने वाले लाखों दक्षिण एशियाई मूल के लोगों के साथ ही भारतीयों के बीच अच्छा असर जाएगा। बहस के दौरान देसाई ने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि किस तरह नरसंहार के समय की ब्रिटिश संसद जनरल डायर के अमृतसर में उठाए गए कदम की निंदा करने से चूक गई थी।
सदन में एक और सांसद लार्ड बिलिमोरिया ने भी ‘हत्या’ के लिए सरकार से औपचारिक माफी मांगने की अपील की। एक महिला जो कि अमृतसर में जन्मी है उन्होंने इस घटना को ब्रिटिश इतिहास पर काला धब्बा बताया।
दूसरी ओर ब्रिटेन के विदेश मंत्री मार्क फील्ड अभी भी माफी मांगने के लिए सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि ऐसे करने से कुछ वित्तीय कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं।
एक और नरसंहार
यह बात बहुत कम लोगों को पता होगी कि 13 अप्रैल 1919 की घटना से तीन दिन पूर्व एक और हत्याकांड अमृतसर में ही हुआ था। इस हत्याकांड का जि़क्र इतिहास की ज़्यादातर किताबों में नहीं मिलता। इस घटना में 25 नागरिकों को गोलियों से उड़ा दिया गया था। 10 अप्रैल 1919 को यह घटना जिस स्थान पर हुई उसे आज भंडारी का ब्रिज कहा जाता है।
इतने लोगों की हत्या करने के बाद अंग्रेज़ अफसर आर पलूमर ने कहा था,’मैंने उन्हें सबक सिखा दिया है।’ इस घटना के 100 साल बाद आज हम इसे भुला चुके हैं। इन 25 लोगों की याद में कोई स्मारक नहीं है। ये सभी लोग अपने नेताओं डाक्टर सतपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए एक रैली में शामिल होने जा रहे थे। जैसे ही इन्होंने यह पुल पार करने की कोशिश की उसी समय अंग्रेज़ अफसर के आदेश पर पुलिस ने इन पर गोलियों की बरसात कर दी।
2009 तक इन लोगों का कही जि़क्र तक नही था। इसका पता तब चला जब अमृतसर में स्वतंत्रता सेनानियों का रिकॉर्ड खंगाला गया। नगरपालिका के रिकॉर्ड से तब 11 नाम निकले। 1996 में डाक्टर बलराज सागर और डाक्टर गुरशरण सिंह की एक किताब छपी। यह किताब पंजाब राज्य विश्वविद्यालय टेक्सट बुक बोर्ड चंडीगढ़ ने छापी थी। इस किताब में उन 25 लोगों का जि़क्र है। ये 25 और दूसरे लोग अपने नेताओं की गिरफ्तारी के मुद्दे पर उपायुक्त अमृतसर से मिलने जा रहे थे। तत्कालीन उपायुक्त माइल्स इरविंन उस पुल पर आ गया जो उस समय ‘हाल ब्रिज’, लोहे वाला पुल, या उच्चा पुल के नाम से जाना जाता था। उपायुक्त ने भीड़ से तितर-बितर होने को कहा। भीड़ को अंग्रेज़ सैनिकों और अमृतसर पुलिस ने रोक रखा था। भीड़ जब नहंी डरी तो पुलिस ने गोली चला कर 25 लोगों को मार डाला।
किताब में दर्ज प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार पलूमर ने घायलों को अस्पताल भी नहीं ले जाने दिया। कई घायलों का इलाज डाक्टर मोहम्मद बशीर और सहायक सर्जन ईश्वरदास भाटिया ने घर पर किया। नगरपालिका के रजिस्ट्रर में केवल 11 नाम मिले। इनमें तीन मुस्लिम और बाकी हिंदू और सिख थे। एक पूर्व मंत्री दरबारी का कहना था कि पुलिस की गोलियों से 25 लोगों का मारा जाना मामूली बात नहीं है। पर ज़्यादातर लोग केवल जलियांवाला बाग के नरसंहारको जानते हैं। इन 25 लोगों का कहीं जि़क्र नहीं।
पंजाब में असंतोष
10 अप्रैल 1919 को पुल पर मारे गए 25 लोगों के बाद पंजाव के विभिन्न हिस्सों में असंतोष की एक लहर आ गई। जहां यह असंतोष सबसे ज़्यादा फैला था वे हिस्से अब पाकिस्तान में हैं। लाहौर में लोगों ने लाहौर गेट से लेकर अनारकली बाज़ार तक जुलूस निकाला और नारेबाजी की। पुलिस ने यहां भी गोली चलाई और नौ लोगों को हिरासत में लिया। उन पर उपद्रव फैलाने का आरोप लगाया गया। 12 अप्रैल को भी लोग इक_े हुए और हिंदू नेताओं ने बाबरी मस्जिद में भीड़ को संबोधित किया।
जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद तो लोगों का गुस्सा और भड़का, खासतौर पर गुजरांवाला में। इसके साथ ही विरोध की चिंगारी रावलपिंडी, गुजरात और लाहौर में फैल गई। डाक्टर गुरशरण सिंह और डाक्टर बलराज सागर की किताब के अनुसार पंजाब के विभिन्न जि़लों में हिंसक वारदातों की 13 घटनाएं हुई। एक महिला स्कालर के अनुसार गुजरांवाला में तो पुलिस ने बमों का इस्तेमाल भी किया। उन्होंने कहा कि यह कहना गलत होगा कि सभी लोग ‘रोलेट एक्ट’ के खिलाफ थे। ज़्यादातर लोगों को तो इस एक्ट की जानकारी तक नहीं थी। लोग तो पहले विश्व युद्ध के परिणामों से जूझ रहे थे। मुद्रास्फीति बहुत थी और लोगों के पास राशन खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे। बहुत नागरिकों के रिश्तेदार युद्ध पर गए पर लौटे नहीं। लोगों में असंतोष के कई कारण थे।
पाकिस्तान के एक लेखक व पत्रकार फैज़न नकवी का कहना है कि जलियांवाला बाग वहां स्कूल के पाठ्यक्रम का हिस्सा है। पर वहां भी बच्चों को उन घटनाओं के बारे में नहीं पता जो लाहौर, गुजरांवाला और दूसरे जि़लों में घटी। अब जो लोग गुजरांवाला, लाहौर, रावलपिंडी और गुजरात में रह रहे हैं उन्हें नहीं पता कि उनके बुजुर्गों ने आज़ादी के लिए कितने बलिदान दिए हैं।