पंडित रवि शंकर के देहांत के साथ भारत ने विदेशों में अपना एक सांस्कृतिक राजदूत खो दिया है. यह तथ्य महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है कि उनके कारण ही भारतीय शास्त्रीय संगीत को पहले पहल विदेशों में मान्यता मिलना आरंभ हुई थी, जो आज भी जारी है. इस लिहाज से देखा जाए तो भारत की सांस्कृतिक ख्याति को पश्चिम में व्यापक तौर पर स्वीकार्य बनाने में पंडित रविशंकर का नाम अग्रणी है.
मैहर घराने के अप्रतिम गुरु उस्ताद अलाउद्दीन खां के योग्य शिष्य के रूप में पंडित रवि शंकर ने एक ऐसी परंपरा की लीक रची जिसकी सबसे बड़ी सफलता आगे जाकर यह साबित हुई कि पारंपरिक कलाओं में शिखर पर पहुंचने का स्वप्न देखने वाली संगीत कला को असीम ऊंचाइयां हासिल हुईं. पंडित जी के कारण ही सितार जैसे वाद्य के बहाने तंत्र वाद्य की परिभाषा में भी व्यापक परिवर्तन संभव हुआ. कला भाषा में कई प्रयोगों और घरानेदारों के प्रति सम्मान भाव रखने के बावजूद उनके कुछ नया कर पाने का जोखिम उठाने के चलते सितार की पारंपरिक दुनिया एकाएक बदल गई.
पंडित रवि शंकर की कला यात्रा के संदर्भ में एक और बात जानना महत्वपूर्ण है. उनके साथ जिस दूसरे महत्वपूर्ण कलाकार उस्ताद अली अकबर खां की प्रतिभा सरोद पर अपना हुनर विकसित कर रही थी वह भी उस्ताद अलाउद्दीन खां के संरक्षण में थी जो दो मित्र या सहोदर बंधुओं को एक साथ ही शास्त्रीयता की तालीम देने में समर्पित थे. यह देखना भी यहां प्रासंगिक होगा कि पंडित रवि शंकर में परंपरा और आधुनिकता के जिस सहमेल का सबसे विकसित रूप पाया जाता रहा है वह कहीं न कहीं शुरुआती दिनों में उनके बड़े भाई पंडित उदय शंकर के नाट्य दल में सम््मिलित होने के कारण ही अपना रूपाकार पा सका था. बाद में धीरे धीरे जिस तरह पंडित जी ने अपना सांगीतिक व्यक्तित्व गढ़ा वह एक इतिहास है या शायद हम कह सकते हैं कि इतिहास से भी ज्यादा वह कहीं न कहीं अपने योगदान को मिथकीय आख्यान में बदलने की सामर्थ्य रखता है.
पंडित रवि शंकर की दुनिया में एक बड़ा समय वह आया जब पश्चिम के जगत ने उनकी कला में दिलचस्पी दिखाई. बुर्जुआ समझी जाने वाली जैज और रॉक संगीतकारों की जमात ने रवि शंकर के संगीत में वह स्वर औैर असर पाया जिसके चलते पहली बार भारतीय संगीत को भी अपनी आत्मा के विस्तार के लिए विदेशों का मौसम रास आया. यह बात अपने में खासी महत्वपूर्ण है कि इन लोगों ने सितार के स्वराघात और उसके व्याकरण में अपने पाश्चात्य संगीत के सुरों को भी कहीं नजदीक से झंकृत होते हुए देखा. फिर क्या था, सितार और भारतीय संगीत दोनों ही पश्चिम के लिए एक जाना-पहचाना नाम बनते चले गए. उनके संगीत के साक्षी और सहयोगी बनने में विख्यात वायलिन वादक यहुदी मैन्यूहिन जैसे लोग शामिल थे. पश्चिम के संगीतकारों और रसिकों की एक बड़ी जमात में जैज के कलाकार जॉन कॉल्ट्रेन, ज्यां पियरे रैम्पल, मैस्टी स्लाव राेस्ट्रोप्रोविच, फिलिप ग्लॉस और जॉर्ज हैरिसन जैसे मूर्धन्य उनके प्रशंसकों की सूची में शामिल हैं. यह पंडित रवि शंकर की कला की बड़ी सफलता है कि लंदन के सिंफनी ऑर्केस्ट्रा और न्यूयॉर्क के फिलहाॅर्माेनिक ने एंड्रेप प्रेविन तथा जुबिन मेहता जैसे अप्रतिम संगीतकारों के सान्निध्य में पंडित रवि शंकर के सहयोग से ऑर्केस्ट्रा की कुछ बेहद आकर्षक धुनों की रचना की जो आज भी संगीत की एक अमूल्य धरोहर के रूप में गिनी जाती हैं. पंडित जी ने हिंदी सिनेमा के लिए भी संगीत दिया और बेहद कलात्मक ढंग से संगीत देने में वे सफल रहे. उनके द्वारा संगीत निर्देशित फिल्मों में नीचा नगर, अनुराधा, गोदान और मीरा जैसे फिल्मों को याद किया जा सकता है.
रिचर्ड एटनबरो की महान फिल्म गांधी के संगीत निर्देशन के लिए उन्हें ऑस्कर के लिए भी नामित किया गया था. सत्यजीत रे की अमर फिल्मों की श्रृंखला अप्पू त्रयी के लिए भी अपने प्रयोगधर्मी संगीत के लिए 50 के दशक में पंडित रवि शंकर का नाम बेहद उल्लेखनीय अर्थों में उभरा.
जीवन के अंतिम दशक में भी पंडित रवि शंकर सक्रिय और उदग्र बने रहे. उनका संगीत दरअसल शाश्वत का संगीत है, जिसकी गूंज शताब्दियों के आर-पार भी अपना स्वर बिखेरने में पूरी तरह से सक्षम है. उनका सितार आलाप, जोड़, झाला भर का सितार नहीं है, वरन वह इन सबके माध्यम से होकर गुजरता हुआ कहीं जीवन के विचार का भी संगीत है. यह अकारण नहीं है कि उन्होंने संगीत के माध्यम से वैश्विक परिदृश्य पर जो सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया उसी के चलते आज हमारे देश का शास्त्रीय संगीत कहीं ज्यादा आदर की निगाह से देखा जाने लगा है. यह पंडित रवि शंकर ही कर सकते थे कि एक ओर भैरवी और बिहाग जैसे रागों में नवाचार भरते हुए वे उसी क्षण दूसरी ओर कम प्रचलित रागों मसलन श्री पटमंजरी और सरस्वती में भी सहजता से मौलिकता का सृजन करते थे.
पंडित रवि शंकर को संगीत के लिए दुनिया भर के प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले जिनमें ग्रैमी से लेकर मैगसायसाय तक शामिल हैं. इसके अलावा भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी उन्हें विभूषित किया गया. आज जब पूरी दुनिया विश्वग्राम में बदल चुकी है, यह उनके संगीत की अप्रतिम सफलता ही है कि वे अपनी शर्तों पर पूरब और पश्चिम का मिलन 50 वर्ष पूर्व ही करवा चुके थे. आगे भी उनका नाम इसलिए याद किया जाएगा कि संगीत के साथ-साथ उसके शास्त्र, अंतरानुशासन और बारीकियों को वैश्विक चेहरा दिलाने में वे सबसे पहले भारतीय कलाकार के रूप में सामने आए और किवदंति बनते चले गए.