पंजाब में कांग्रेस सरकार पर कोरोना वैक्सीन (टीका) निजी चिकित्सा संस्थानों को दोगुने से ज़्यादा दाम पर देने के आरोप लगे, जिससे पहले से पार्टी में गुटबाज़ी से परेशान कैप्टन अमरिंदर सिंह की मुश्किलें ज़्यादा बढ़ गयीं। ऐसा फ़ैसला मौज़ूदा हालात में बिल्कुल तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता; क्योंकि माँग के हिसाब से आपूर्ति बहुत कम है। यह फ़ैसला किस बैठक में किसने लिया? और किसके आदेश से हुआ? यह सरकार की ओर से अभी तक स्पष्ट नहीं किया गया है। स्वास्थ्य मंत्री बलबीर सिंह सिद्धू ने बताया कि उन्हें ख़ुद फ़ैसले की जानकारी नहीं थी।
उन्होंने सरकार के बचाव में कहा कि कुछ फ़ैसले ग़लत हो सकते हैं, जिनमें यह भी शामिल है। लिहाज़ा सरकार ने इसे तुरन्त प्रभाव से वापस ले लिया। उनके विभाग से जुड़ा कोई फ़ैसला सरकार करे और उन्हें इसकी जानकारी न हो ऐसा सम्भव नहीं है। सबसे पहले इस सन्दर्भ में जानकारी मुख्य सचिव विन्नी महाजन के ट्वीट के ज़रिये आया। इसके तुरन्त बाद विपक्षी दल शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी ने विरोध जताया। केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी ने सरकार के इस फ़ैसले को आम लोगों के हितों से खिलवाड़ बताया और कहा कि यह सरकार द्वारा राजस्व कमाने का ज़रिया है। कोरोना टीके की कमी का हवाला देकर केंद्र सरकार पर भेदभाव करने का आरोप लगाने वाले कैप्टन निजी अस्पतालों और चिकित्सा संस्थानों को टीका दें, तो ज़ाहिर है कि उनकी नीति स्पष्ट नहीं है।
पंजाब में मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज़्यादा रही है। ऐसे में सरकार को टीकाकरण अभियान ज़्यादा मज़बूती से चलाना चाहिए; लेकिन यहाँ पहले दूसरा ही खेल हुआ। राज्य सरकार को कोवेक्सीन 400 रुपये की मिली, जबकि उसने निजी चिकित्सा संस्थानों को 1060 रुपये के हिसाब से दी। एक टीके पर 660 रुपये सरकारी ख़जाने में आये। इसे वैक्सीन कोष का नाम दिया गया है। आख़िर इस कोष में यह राशि लाने का मतलब क्या है? और इसका इस्तेमाल कहाँ और किस तौर पर किया जाना है? निजी चिकित्सा संस्थान टीका लगाने के 1560 रुपये ले रहे थे। कोरोना से बचाव के लिए एक छोटा-सा अमीर वर्ग सरकारी अस्पतालों की बजाय निजी चिकित्सा संस्थानों से वैक्सीन लेने वाला है। उन्हें ही ध्यान में रखकर सरकार ने ऐसा क़दम उठाया होगा; लेकिन इसके लिए मुनाफ़े का ध्येय नहीं होना चाहिए था। चूँकि ध्येय यह रहा इसलिए सरकार को इतनी आलोचना का सामना करना पड़ा। राज्य सरकार का अपना टीकाकरण अभियान काफ़ी मंद चल रहा है। इसकी वजह पर्याप्त मात्रा में कोरोना टीके उपलब्ध न होना बताया गया। जिस समय निजी चिकित्सा संस्थानों को टीके देने का फ़ैसला किया गया, उस दौरान राज्य में 80,000 टीके थे। उसमें से 42,000 टीके उन्हें दे दिये गये यानी आधे से ज़्यादा छोटे-से वर्ग के लिए और बाक़ी बहुसंख्यक वर्ग के लिए; जो टीके की प्रतीक्षा कर रहा है।
शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल कहते हैं कि स्वास्थ्य मंत्री बलबीर सिंह सिद्धू को फ़ैसले की जानकारी थी, इसमें उनका निजी हित भी हो सकता है। उनके विभाग से जुड़े ऐसे अहम फ़ैसले से उन्हें अलग कैसे रखा जा सकता है? इस मामले की जाँच होनी चाहिए, ताकि पता चल सके कि किसने कितना पैसा कमाया। टीकों के अलग-अलग दाम पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी ऐतराज़ जताते हुए इसे पारदर्शी बनाने को कहा है। न्यायालय ने कहा कि सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक कम्पनी को केंद्र सरकार के लिए अलग दाम, राज्य सरकारों और निजी चिकित्सा संस्थानों के लिए अलग-अलग दाम तय नहीं करने चाहिए। इस सन्दर्भ में राहुल गाँधी एक देश एक दाम की माँग करते हैं। देश भर में मुफ़्त टीकाकरण की वकालत करते हैं, अच्छी बात है। लेकिन उनकी ही पार्टी की सरकारों पर केंद्र के इस अभियान को सही तौर पर न चलाने का आरोप लग रहा है।
राजस्थान में कांग्रेस सरकार पर टीकाकरण अभियान को सही तरीक़े से न चलाने के आरोप लगे हैं। वहाँ मुनाफ़ा कमाने के लिए निजी चिकित्सा संस्थानों को कोरोना टीके देने जैसा काम तो नहीं हुआ, लेकिन उनका इस्तेमाल नहीं किया गया; जबकि वहाँ माँग बहुत ज़्यादा थी। राज्य सरकार अपने तौर पर मुफ़्त टीकाकरण में फ़िलहाल सक्षम नहीं दिखती। इसके लिए केंद्र से मदद की दरकार है। पंजाब में भी दूसरी लहर के बाद जिस तरह से संक्रमण मामले बढ़े और मौतों का आँकड़ा बढ़ा, मुख्यमंत्री कैप्टन ने सरकार की ओर से मुफ़्त टीकाकरण की घोषणा कर दी। इसके लिए प्रयास भी हो रहे हैं; मगर टीके से मुनाफ़ा कमाने वाले फ़ैसले से वह बुरी तरह से घिर गये।
फ़ैसले पर सरकार की ओर से कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया है; जबकि मुख्यमंत्री को इस सन्दर्भ में ज़रूर बताना चाहिए था। सरकार के फ़ैसला वापस लेने के बावजूद विपक्षी दलों का प्रदर्शन रुका नहीं है। वे स्वास्थ्य मंत्री बलबीर सिद्धू के ख़िलाफ़ मामला दर्ज कर कार्रवाई के पक्ष में हैं। मोहाली में उनके आवास के बाहर विपक्षी दलों का प्रदर्शन बताता है कि मुद्दा अभी गर्म है। बलबीर सिद्धू कहते हैं कि विपक्षी दल बेवजह राजनीति कर रहे हैं। महामारी के इस दौर में राजनीति करने की अपेक्षा उन्हें सरकार का सहयोग करना चाहिए। वे मानते हैं कि निजी चिकित्सा संस्थानों को वैक्सीन आपूर्ति का फ़ैसला ठीक नहीं था। सरकारें बहुत-से ऐसे फ़ैसले लेती हैं, जो जनहित में नहीं होते। इसका पता लगने के बाद उन्हें वापस भी लिया जाता है। हमारी सरकार ने भी ऐसा ही किया है। कितनी आपूर्ति की? कितना पैसा मिला? और वह किस खाते में गया? सब कुछ स्पष्ट है। इसमें किसी तरह का कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ है। केंद्र सरकार ग़ैर-भाजपाई राज्य सरकारों के साथ टीका वितरण में भेदभाव कर रही है। इसके बावजूद राज्य इस सन्दर्भ में पीछे नहीं है। अब तो केंद्र सरकार 75 फ़ीसदी टीके ख़रीदकर सीधे तौर पर 21 जून से टीकाकरण अभियान शुरू करेगी।
अब राज्य सरकारों की इसमें बहुत बड़ी भूमिका नहीं होगी। दोनों टीके लगाने का राष्ट्रीय औसत 5.0 $फीसदी है, जबकि पंजाब में यह 5.3 फ़ीसदी है। एक टीका लगाने में भी राज्य का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत 20.2 के मुक़ाबले 20.0 फ़ीसदी है। इस सन्दर्भ में कर्नाटक 25.7 फ़ीसदी और दोनों टीकों में 5.9 फ़ीसदी के साथ आगे है। राज्य में राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा मृत्यु दर होने के कारण केंद्र को आपूर्ति बढ़ानी चाहिए थी और इसकी माँग राज्य सरकार करती रही है। अब राज्य में स्थिति सँभल रही है; पर कैप्टन सरकार के लिए स्थिति ज़्यादा अनुकूल नहीं है।
अधिकतर टीके वापस
स्वास्थ्य मंत्री बलबीर सिंह सिद्धू के मुताबिक, निजी चिकित्सा संस्थानों को कोरोना टीकों की आपूर्ति के फ़ैसले की उन्हें जानकारी नहीं थी। चौतरफ़ा विरोध के बाद सरकार ने तुरन्त प्रभाव से फ़ैसला वापस ले लिया। कुछ $फीसदी को छोड़कर बाक़ी स्टाक वापस मिल गया है। यह सब पारदर्शी है। इसमें किसी तरह का भ्रष्टाचार नहीं हुआ है। विपक्षी दल बेवजह इसे मुद्दा बनाकर राजनीति कर रहे हैं। राज्य सरकार कोरोना संकट में बेहतर काम कर रही है। राज्य सरकार मुफ़्त टीकाकरण करने के लक्ष्य को तय समय में पूरा करेगी।
96 जन-प्रतिनिधियों पर दर्ज हैं मामले
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में रखी स्टेट्स रिपोर्ट बताती है कि पंजाब में 96 मौज़ूदा और पूर्व सांसदों और विधायकों पर राज्य के विभिन्न थानों में मामले दर्ज हैं। इनमें से 12 फ़ीसदी मामलों में ही सुनवायी चल रही है, बाक़ी में अभी जाँच या रद्द करने की अर्जी पुलिस की ओर से दी गयी है। पंजाब में छ: जन प्रतिनिधियों पर आपराधिक मामले भी हैं।
163 प्राथमिकी में से 118 में तो अभी जाँच ही चल रही है। यह कब तक चलेगी? कहना मुश्किल है। कोरोना-काल की वजह से भी जाँच में देरी हो रही है। 19 मामले ऐसे हैं, जिनमें कुछ पता नहीं चल रहा है। केवल 21 मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। इन नेताओं में शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल और कांग्रेस सांसद रवनीत बिट्टू, विधायक सुखपाल सिंह खैरा, सुच्चा सिंह लंगाह, तोता सिंह, सिकंदर सिंह मलूका, मोहन लाल, गुलजार सिंह रणिके, वीरसिंह लोपोके, विक्रम सिंह मजीठिया, रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा और परमिंदर सिंह ढींढसा जैसे नाम हैं। राज्य में सबसे ज़्यादा मामले बैंस बन्धुओं पर हैं। सिमरजीत सिंह बैंस पर 15 और उनके भाई बलविंदर सिंह बैंस पर छ: मामले हैं। पूर्व सांसद और अकाली दल (ए) के अध्यक्ष सिमरनजीत सिंह मान पर सन् 2011 में दर्ज मामला भी प्रमुख है। ठीक इसी तरह हरियाणा में मौज़ूदा और पूर्व सांसदों और विधायकों पर 21 मामले दर्ज हैं। इनमें 15 विचाराधीन (अंडर ट्रायल) हैं, जबकि छ: मामलों में जाँच चल रही है।
चंडीगढ़ में पूर्व और मौज़ूदा सांसदों और विधायकों पर सात मामले दर्ज हैं। इनमें आम आदमी पार्टी के सांसद भगवंत मान, शिअद के राज्य सभा सदस्य बलविंदर सिंह भुदंड़, शिअद विधायक बिक्रम सिंह मजीठिया, आम आदमी पार्टी के विधायक अमन अरोड़ा, पूर्व शिअद सांसद प्रेमसिंह चंदूमाजरा, भाजपा नेताओं में तीक्ष्ण सूद, अरुण नारंग, मास्टर मोहन लाल, मदन मोहन मित्तल, मनोरंजन कालिया और विजय सांपला आदि शामिल हैं। इनसे जुड़े सभी मामलों की जाँच चल रही है। पुलिस की ओर से उच्च न्यायालय में बताया गया कि कोरोना की वजह से जाँच में देरी हो रही है। हरियाणा में सबसे ज़्यादा छ: मामले गुडग़ाँव से पूर्व विधायक रहे सुखबीर कटारिया पर हैं।