पंजाब विधानसभा चुनाव पर सभी की नज़र है। सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अपनी सरकार बचाने की कोशिश की है, जबकि आम आदमी पार्टी (आप) ने ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटें जीतने की। वहीं अकाली दल ने भी अपनी खोयी प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश की है। पहली बार पाँच दल मैदान में हैं, जिनमें भाजपा और अमरिंदर सिंह के अलावा किसानों की पार्टी भी है। चुनाव में मतदान तक क्या-क्या हुआ? मतदान के बाद वहाँ किस तरह की चर्चा हैं? बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-
कवि कुमार विश्वास ने जब अपने पुराने साथी अरविन्द केजरीवाल पर ख़ालिस्तान समर्थक होने जैसा आरोप लगाया, तब पंजाब विधानसभा चुनाव में मतदान के चंद ही दिन शेष थे और आम आदमी पार्टी ख़ुद को अगली सरकार के रूप में देखने की कल्पना कर रही थी। लेकिन इसके बाद अचानक उसे रक्षात्मक होना पड़ा। केजरीवाल की तरफ़ से इसका खण्डन आया; लेकिन उनका राजनीतिक नुक़सान हो चुका था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पंजाब में कमोवेश उसी समय दो चुनाव सभाएँ करने गये और अपने तरीक़े से विपक्ष पर हमला किया। यही दिन थे, जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का एक आक्रामक बयान आया, जिसमें भाजपा की केंद्र सरकार की नीतियों पर सीधा हमला था और पंजाब के लोगों को सन्देश भी। चुनाव के आख़िरी हिस्से में ही एक और बात हुई। डेरा प्रमुख राम रहीम सिंह को अचानक पैरोल मिल गयी। मतदान के आख़िरी 10 दिन में हुए इन घटनाक्रमों ने पंजाब के लोगों का मन कितना बदला? यह तो नतीजे ही बताएँगे। लेकिन यह साफ़ है कि पंजाब में मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) में ही रहा है और कांग्रेस हल्की बढ़त लिये दिखती है।
भाजपा ने ख़ुद को इस चुनाव में भविष्य के लिए तैयार करने की कोशिश की है। यदि अकाली दल इस चुनाव में पिछली बार से बेहतर प्रदर्शन करता है और सीटें 25 से पार ले जाता है, तो 117 सीटों वाली विधानसभा मामला फँस सकता है। लेकिन दलित चेहरे के साथ कांग्रेस और ग्रामीण इलाक़ों में थोड़ी मज़बूत दिख रही आम आदमी पार्टी साफ़तौर पर मुख्य मुक़ाबले में हैं। पाँच प्रमुख दलों में से सिर्फ़ कांग्रेस के पास दलित चेहरा है।
देश भर में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार चरणजीत सिंह चन्नी अकेले दलित मुख्यमंत्री हैं। क्या इसे एक उपलब्धि के रूप में मानकर दलित एकतरफ़ा कांग्रेस के पाले में गये हैं? ऐसा हुआ है, तो आम आदमी पार्टी ही नहीं, बल्कि अन्य दलों को भी कांग्रेस के मुक़ाबले ख़ुद को खड़ा करके रखने की मेहनत बेकार जा सकती है। लेकिन अगर दलित मतदाता बड़े स्तर पर बँटे होंगे (जिसकी सम्भावना कम है), तो कांग्रेस को आम आदमी पार्टी से टक्कर मिलेगी।
कवि कुमार विश्वास ने दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल को लेकर चुनाव प्रचार की ऊँचाई पर जब यह सनसनीख़ेज दावा किया कि केजरीवाल ने एक दिन ख़ालिस्तान के प्रधानमंत्री बनने की बात उनसे कही थी, तो यह तुरन्त बड़ी बहस का मुद्दा बन गया। पंजाब के पिंडों (गाँवों) में भले यह बहुत तेज़ी से नहीं पहुँच पाया; लेकिन शहरों में इसकी जबरदस्त चर्चा हुई। पंजाब में आम आदमी पार्टी को पसन्द करने वालों में काफ़ी संख्या उन लोगों की है, जो थोड़ा गर्म मिजाज़ के माने जाते हैं। यह लोग अकाली दल को मतदाता देते रहे हैं; लेकिन कांग्रेस को कतई पसन्द नहीं करते। कांग्रेस की जगह उनकी पसन्द पिछले चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी बनी थी। मुख्यत: यह ग्रामीण इलाक़े के लोग हैं, जिनमें किसान भी हैं। हालाँकि जो लोग आम आदमी पार्टी से उसकी दिल्ली सरकार के किये काम के दावों को लेकर जुड़े, वे कवि विश्वास के गम्भीर क़िस्म के दावे से बिदके हैं। ये वोट कांग्रेस को मिल सकते हैं। यदि अकाली दल को भी गये होंगे, तो भी कांग्रेस को लाभ होगा।
मतदान के संकेत
वैसे पंजाब में मतदान के बाद हर सियासी दल अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहा है। यहाँ तक की भाजपा भी, जिसने आज तक अकाली दल वैसाखी के अलावा कभी ख़ुद अपने बूते चुनाव नहीं लड़ा। किसान आन्दोलन में सबसे ज़्यादा नाराज़गी भाजपा के ही ख़िलाफ़ रही। हालाँकि भाजपा ने एक असफल कोशिश इस चुनाव में हिन्दू ध्रुवीकरण की भी की थी; लेकिन सफल नहीं हुई। आमतौर पर माना जाता है कि ज़्यादा मतदान सत्ता-विरोधी होता है। देश के चुनावी इतिहास में यह कई बार साबित भी हुआ है। इस बार पंजाब में पिछले चुनाव की तुलना में आठ फ़ीसदी कम मतदान हुआ है। इसका पहला संकेत यह हो सकता है कि चार महीने पुरानी चन्नी सरकार के ख़िलाफ़ विरोधी लहर (एंटी इंकम्बेंसी) नहीं बन पायी।
चन्नी से पहले चूँकि अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री थे और उन्होंने मतदान से बहुत पहले अपनी पार्टी बनाकर भाजपा के साथ गठबन्धन का ऐलान भी कर दिया, लोगों के मन में सरकार की विरोधी लहर कैप्टन के साथ ही चली गयी और ज़्यादातर लोगों के मन में चन्नी की सरकार की चार महीने वाली छवि ही रह गयी। ऊपर से चन्नी ने मुख्यमंत्री बनते ही लोगों के लिए राहत वाली घोषणाओं के दरवाज़े खोलकर आम आदमी पार्टी की सम्भावित घोषणाओं का असर कम कर दिया।
याद करें, तो सन् 2017 में 77.40 फ़ीसदी मतदान हुआ था। इस बार आँकड़ा 67 फ़ीसदी के आसपास रह गया। इसे जानकार यह मानते हैं कि सरकार के विरोध वाला मत कम पड़ा। हाँ, कुछ जानकार इसे त्रिशंकु विधानसभा का आसार भी मानते हैं। उनके मुताबिक, इसका कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी ने सन् 2017 में जो सीटें जीती थीं, उन पर उन्हें पाँच फ़ीसदी तक का नुक़सान हो सकता है। नुक़सान का आकलन करें, तो कांग्रेस को शायद कम नुक़सान उठाना पड़े। चुनाव के दौरान हिन्दू मतदाता भ्रमित दिखा। भाजपा उसे अपने साथ जुडऩे का लालच दे रही थी। लेकिन उसके दिमाग़ में यह बात हमेशा रही कि भाजपा सरकार नहीं बना सकती, तो वोट बर्बाद क्यों किया जाए? वैसे हिन्दू वोट भी बँटा होगा, क्योंकि इनमें से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों को मिलेगा। चुनाव के आख़िरी हिस्से में डेरा प्रमुख राम रहीम सिंह को अचानक पैरोल मिल गयी। ज़्यादातर लोगों का मानना था कि चुनावी पैरोल थी और इसका मक़सद डेरा समर्थकों से किसी एक ख़ास राजनीतिक दल के हक़ में वोट डलवाना था। डेरा के ज़्यादातर अनुयायी दलित वर्ग से हैं। यह माना जाता है कि भाजपा ने डेरा प्रमुख के ज़रिये ख़ुद को और अकाली दल को वोट डलवाया। लिहाज़ा कोशिश कांग्रेस को दलित वोट का नुक़सान देने की हो सकती है। समुदाय के कई उप जातियों में बँटे हैं।
कुछ लोग मानते हैं कि डेरा के प्रभाव का असर हुआ और समुदाय के मतदाताओं का किसी हद तक ध्रुवीकरण हुआ। निश्चित ही इसका फ़ायदा भाजपा और शिरोमणि अकाली दल को होगा; लेकिन ज़्यादातर जानकारों का कहना है कि डेरा अनुयायियों का ध्रुवीकरण नहीं हो सका। चरणजीत चन्नी का दलित होना, इसमें एक बड़ा फैक्टर रहा। इस चुनाव में मतदाताओं में सन् 2017 की तुलना में वोट डालने के मामले में कम उत्साह था। आम आदमी पार्टी का बदलाव का नारा कोई ख़ास कारगर नहीं दिखा। यह नारा चल जाता, तो शायद उसका वोट फ़ीसद ज़्यादा रहता। इस चुनाव में भले किसानों का मुद्दा सामने नहीं दिखा; लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसका व्यापक असर था। उतना ही, जितना पश्चिम उत्तर प्रदेश में है।
चूँकि इस बार बहुकोणीय मुक़ाबला था, इसलिए इसका नतीजों पर भी असर दिखेगा। ज़्यादा नुक़सान आम आदमी पार्टी को हो सकता है। यह इसलिए, क्योंकि विरोधी लहर से जिस वोट बैंक का कांग्रेस को नुक़सान होना था, वह वोट आम आदमी पार्टी को नहीं मिल पाया। यही वे मतदाता हैं, जो वोट डालने ही नहीं आये। ऐसे में ज़्यादा वोट फ़ीसद विरोध का संकेत देता है, जो इस बार हुआ नहीं।
क्या कांग्रेस का दलित कार्ड चलेगा?
कांग्रेस ने बिना नाम लिये चन्नी को देश का इकलौता दलित मुख्यमंत्री बताकर इसका लाभ पंजाब ही नहीं, उत्तर प्रदेश और अन्य चुनावी राज्यों में भी लेने की कोशिश की। आँकड़े देखें, तो राज्य की 117 विधानसभा सीटों में से 34 सीटें आरक्षित हैं।
पंजाब में क़रीब 32 फ़ीसदी दलित मतदाता हैं, और इस वर्ग के लिए अलग-अलग इलाक़ों में 34 सीटें आरक्षित हैं। वैसे तो सभी राजनीतिक दलों ने दलित कार्ड खेलने की कोशिश की; लेकिन कांग्रेस का दावा इसलिए मज़बूत रहा कि उसके पास चरणजीत चन्नी दलित के रूप में दलित मुख्यमंत्री चेहरा है।
पंजाब में सन् 1967 के बाद कोई दलित मुख्यमंत्री नहीं बना था। देखा जाए, तो राज्य में दलित मतदाता 58 से ज़्यादा विधानसभा सीटों पर सीधा प्रभाव डालते हैं। बहुत-से जानकार मानते हैं कि किसानों के अलावा पंजाब में इस बार दलित मतदाताओं का भी निर्णायक रुख़ रहा है। पंजाब में दलितों में सबसे बड़ा वर्ग रविदासिया समाज का है। भगत बिरादरी, वाल्मीकि भाईचारा, मज़हबी सिख भी ख़ासी संख्या में हैं। चन्नी दलितों के रविदासिया समाज से ताल्लुक़ रखते हैं। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री चन्नी को फिर से मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करके दलित-लाभ लेने की कोशिश की है।
अकाली दल-बसपा गठबन्धन ने दलित समुदाय को लुभाने के लिए उप मुख्यमंत्री का पद देने की घोषणा की थी। इस लिहाज़ से देखें, तो दलित मतदाता का ज़्यादा झुकाव सबसे ज़्यादा कांग्रेस और उसके बाद अकाली दल-बसपा गठबन्धन की तरफ़ रहा है। वैसे यदि पिछले चुनावों पर नज़र दौड़ाएँ, तो दलित मतदाता किसी राजनीतिक दल विशेष के साथ नहीं रहा है। सन् 2002 के चुनाव में कांग्रेस से 14 दलित प्रत्याशी चुने गये थे; जबकि अकाली दल से 12 दलित चुनकर आये थे। अगर सन् 2007 की बात करें, तो इस साल सबसे ज़्यादा दलित विधायक अकाली दल से बने और 17 सीटों पर जीत हासिल की। वहीं तीन दलित सीटों पर भाजपा जीती, तो वहीं सात सीटें कांग्रेस के हाथ आयीं।
यही नहीं, 2012 के चुनाव में भी अकाली दल ने दलितों का दिल जीतते हुए 21 सीटों पर जीत का परचम लहराया। कांग्रेस को 10 सीटों पर ही जीत हासिल हुई। इसके बाद सन् 2017 के चुनाव में कांग्रेस ने दलित मतदाताओं पर अकाली दल की पकड़ को कमज़ोर करते हुए सारे समीकरण बदल दिये और 21 सीटों पर जीत दर्ज की। अकाली दल को महज़ तीन सीटों पर जीत मिली। इस तरह देखा जाए, तो जब जब दलित वोटों का ज़्यादा समर्थन जिस पार्टी को मिला, उसी की सरकार बनी। पिछले दो चुनावों से यह साफ़ ज़ाहिर है कि दलित विधायक जिस पार्टी के ज़्यादा जीते उसी की सरकार बनी, वह भी अच्छे बहुमत से। ऐसे में यदि कांग्रेस एक दलित को मुख्यमंत्री बनाकर दलित वोट की उम्मीद कर रही है, तो इसके ज़मीनी कारण हैं।
मैदान में चर्चित चेहरे
पंजाब के विधानसभा चुनाव में इस बार चार ऐसे नेता मैदान में हैं, जो प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। इनमें मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी, पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और पूर्व मुख्यमंत्री राजिंदर कौर भट्ठल शामिल हैं। जबकि भट्ठल को छोडक़र बाक़ी सभी और सुखबीर सिंह बादल, भगवंत मान तथा किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल मुख्यमंत्री पद के अन्य उम्मीदवार हैं। वैसे नवजोत सिंह सिद्धू का चुनाव मुक़ाबला भी दिलचस्प है, भले वह फ़िलहाल मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर हैं।
देखा जाए, तो यह चुनाव पंजाब के 55 साल के इतिहास में सबसे अलग चुनाव है। सन् 2012 तक पंजाब में कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल (भाजपा के साथ) ही मुख्य मुक़ाबले में होते थे। हालाँकि 2017 में जब आम आदमी पार्टी (आप) ने चुनाव लडऩे का फ़ैसला किया, तो राज्य में मुक़ाबला त्रिकोणीय हो गया। आम आदमी पार्टी ने काफ़ी मज़बूती से चुनाव लड़ा और 20 सीटें जीतकर अकाली दल जैसे स्थापित दल को तीसरे पायदान पर धकेल दिया।
अब 2021 में तो सारा परिदृश्य ही बदल गया है। कांग्रेस से बाहर होकर पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने अपनी पार्टी बना ली और अब वह फिर (भाजपा के सहयोग से) मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। किसान आन्दोलन से उभरे नेता बलबीर सिंह राजेवाल इस चुनाव में नया चेहरा हैं। संयुक्त समाज मोर्चा गठित करके मैदान में उतरे राजेवाल फ़िलहाल ज़मीनी संगठन के अभाव से जूझ रहे हैं। हालाँकि इससे चुनाव ज़रूर दिलचस्प हो गया है।
अब बात करते हैं, इस चुनाव के चर्चित हलक़ों (क्षेत्रों) की। चमकौर साहिब से मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी मैदान में हैं। कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है। देश के अकेले दलित मुख्यमंत्री होने के कारण देश भर में उनके हलक़े की चर्चा है। उनका मुक़ाबला अकाली दल-बसपा गठबन्धन के हरमोहन सिंह से है। चन्नी को कांग्रेस ने चन्नी भदौड़ से भी चुनाव में उतारा है। पटियाला शहर दूसरी ऐसी सीट है, जहाँ पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस से अलग होकर और पंजाब लोक कांग्रेस पार्टी के नाम से पार्टी बनाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह भाजपा के सहयोग से फिर मैदान में हैं। यह चुनाव उनके लिए इज़्ज़त का चुनाव बन गया है। क़रीब 80 साल के इस नेता का राजनीतिक भविष्य इस चुनाव पर निर्भर है। उनकी सांसद पत्नी अभी भी कांग्रेस में हैं। आम आदमी पार्टी ने यहाँ अजीतपाल कोहली और कांग्रेस ने पूर्व मेयर विष्णु शर्मा को मैदान में उतारा है।
जलालाबाद सीट पर शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल मैदान में हैं। चुनाव के सबसे अमीर प्रत्याशी बादल बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। उनका गठबन्धन जीता, तो सुखबीर मुख्यमंत्री बन सकते हैं। कांग्रेस ने मोहन सिंह फलियांवाल और आम आदमी पार्टी ने जगदीप कंबोज को उनके ख़िलाफ़ मैदान में उतारा है। भाजपा के पूरन चंद भी मैदान में हैं। इस धूरी की सीट भी काफ़ी चर्चा में है, जहाँ आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार भगवंत मान मैदान में हैं। मान को टक्कर देने के लिए कांग्रेस ने दलवीर सिंह गोल्डी को, जबकि अकाली दल ने प्रकाश चंद गर्ग और भाजपा ने रनदीप सिंह देओल को मुक़ाबले में उतारा है।
लम्बे समय से पंजाब के गढ़, जहाँ से शिरोमणि अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल कई बार से चुनाव लड़ते रहे हैं और मुख्यमंत्री भी रहे हैं; उनके ख़िलाफ़ इस बार कांग्रेस ने जगपाल सिंह अबुलखुराना और आम आदमी पार्टी ने गुरमीत खुड्डियाँ को, जबकि भाजपा से राकेश ढींगरा को उतारा है। यहाँ मुक़ाबला काफ़ी कड़ा है। अमृतसर (पूर्व) से कांग्रेस के टिकट पर लड़ रहे पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू भले ही मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं; लेकिन वह कड़े मुक़ाबले में फँसे हैं। दिलचस्प यह है कि उनके ख़िलाफ़ एक नहीं कई ताक़तें हैं। शिरोमणि अकाली दल नेता बिक्रम मजीठिया से मुख्य मुक़ाबला है, जिन्हें अमरिंदर सिंह का भी समर्थन है। अमृतसर (पूर्व) सिद्धू की परम्परागत सीट है; लेकिन मजीठिया से उनकी जंग के कारण मुक़ाबला दिलचस्प हो गया है। आम आदमी पार्टी ने वहाँ जीवनजोत कौर को उतारा है।
इनके अलावा मोगा सीट भी बड़ी चर्चा में है, जहाँ बॉलीवुड अभिनेता सोनू सूद की बहन मालविका सूद कांग्रेस टिकट पर मैदान में उतरी हैं। यह उनका पहला चुनाव है; लेकिन पार्टी ने पूरी ताक़त से उनका चुनाव प्रबन्धन सँभाला है। लुधियाना के समराला की सीट पर किसान आन्दोलन का बड़ा चेहरा बलबीर सिंह राजेवाल मैदान में हैं। राजेवाल का यह पहला चुनाव है। उन्हें चुनाव प्रबन्धन का अनुभव नहीं; लेकिन किसानों के समर्थन की उम्मीद कर रहे हैं।
दलित फैक्टर
पंजाब में पठानकोट की भोआ, गुरदासपुर की दीनानगर और हरगोबिंदपुर, अमृतसर की जंडियाला गुरु, अमृतसर वेस्ट, अटारी, बाबा बकाला, कपूरथला की फगवाड़ा, जालंधर की फिल्लौर, करतारपुर, जालंधर वेस्ट, आदमपुर, होशियारपुर की शाम चौरासी और छब्बेवाल, शहीद भगत सिंह नगर की बंगा, फतेहगढ़ साहिब की बस्सी पठान, रूप नगर की चमकौर साहिब, मोगा की निहाल सिंह वाला, लुधियाना की गिल, पायल, जगरांव और रायकोट, फजिल्का की बल्लुआना, श्री मुख़्तसर साहिब की मलौत, भठिंडा की भुचो मंडी और भठिंडा ग्रामीण, मानसा की बुढलाडा, संगरूर की दिरबा, बरनाला की भादौर और मेहल कलान, पटियाला की नाभा और सुतराना तथा फ़िरोज़पुर सीटें दलित सीटों में शामिल हैं। इस तरह पंजाब की कुल 117 विधानसभा सीटों में से 34 दलित प्रत्याशियों के लिए आरक्षित हैं। प्रदेश में सबसे ज़्यादा सिख मतदाता हैं, जबकि संख्या के लिहाज़ से दूसरे स्थान पर दलित हैं। सिख मतदाता 38.49 फ़ीसदी, दलित मतदाता 31.49 फ़ीसदी, जट्ट सिख 19 फ़ीसदी और हिन्दू मतदाता 10.57 फ़ीसदी हैं।