क्या चन्नी के दम पर भीतरी लड़ाई के नुक़सान की भरपाई कर पाएगी पार्टी?
यह 18 सितंबर की सुबह 8:00 बजे के आसपास की बात है। उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की फोन पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से बात हो रही थी। सोनिया गाँधी ने कहा- ‘आई एम सॉरी अमरिंदर!’ (मुझे अफ़सोस है अमरिंदर!)। कैप्टन की कुर्सी का फ़ैसला हो चुका था।
इसके कुछ घंटे बाद निराश और कुछ हद तक क्रोधित अमरिंदर जब चंडीगढ़ स्थित पंजाब राजभवन में राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित से मिलकर उन्हें अपना इस्तीफ़ा सौंप रहे थे, लगभग उसी समय शहर में स्थित कांग्रेस भवन में पार्टी के 80 में से 78 विधायक नये मुख्यमंत्री के नाम पर फ़ैसला करने के लिए जुट रहे थे। अमरिंदर उसी पंजाब कांग्रेस में अकेले पड़ चुके थे, जिसके वह वर्षों कैप्टन रहे थे। इसके क़रीब 24 घंटे बाद चंडीगढ़ में चरणजीत सिंह चन्नी का नाम जब नये मुख्यमंत्री के रूप में घोषित हुआ, तो क़रीब 19 किलोमीटर दूर सिसवां स्थित अपने फार्म हाउस में वर्षों से राजनीतिक हलचल में घिरे रहने वाले सांसद पत्नी परनीत कौर के साथ कैप्टन कमोवेश अकेले से बैठे थे। अमरिंदर को आख़िर अपनी कुर्सी क्यों गँवानी पड़ी?
‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, उनके ही एक पूर्व राजनीतिक सलाहकार का उन्हें लेकर राहुल गाँधी को दिया गया सुझाव उनके ख़िलाफ़ गया। पी.के. (चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर), जिन्होंने दो महीने पहले ही कैप्टन के राजनीतिक सलाहकार के पद से इस्तीफ़ा दिया था; के इस सुझाव में कहा गया था कि अमरिंदर सिंह के ख़िलाफ़ ज़मीन पर जनता और विधायकों में भी नाराज़गी है और भाजपा से उनकी नज़दीकियों की ख़बरें भी कांग्रेस को नुक़सान पहुँचा रही हैं।
पी.के. से इस बैठक के दौरान राहुल गाँधी जानना चाहते थे कि यदि किसी अनुसूचित जाति (सिख या ग़ैर-सिख) को मुख्यमंत्री बना दिया जाए, तो कैसा रहेगा? इसके कुछ घंटे के भीतर राहुल गाँधी चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब की बाग़डोर सौंपने का फ़ैसला कर चुके थे। यह भी फ़ैसला किया गया कि मज़बूत सन्देश देने के लिए राहुल गाँधी चन्नी के शपथ ग्रहण में शामिल रहेंगे। पत्रकार 19 सितंबर को जब वरिष्ठ नेता सुखजिंदर सिंह रंधावा को भावी मुख्यमंत्री मानकर उनसे बधाई वाले अंदाज़ में बात कर रहे थे, तब भी रंधावा कह रहे थे कि ‘मेरी शपथ हो या किसी और की।’ लेकिन पत्रकार इतने बड़े इशारे को नहीं समझ पाये।
सोनी सोनिया गाँधी की पसन्द थीं। लेकिन ख़ूद उन्होंने सिख को मुख्यमंत्री बनाने के समर्थन के समर्थन वाला बयान दिया, जो सोची-समझी रणनीति थी। दिखावे के लिए चंडीगढ़ में विधायकों की राय लेने की क़वायद की गयी। ख़ूद चन्नी को उनको लेकर किये गये राहुल गाँधी के इस फ़ैसले की जानकारी नहीं थी। चन्नी का राज्यपाल को दिया गया सरकार बनाने के दावे वाला पत्र भी पहले ही तैयार कर लिया गया था और यह प्रभारी हरीश रावत के पास था, जिन्होंने सारे कयास ख़त्म करते हुए करते हुए ट्वीट करके चन्नी को विधायक दल का नेता चुने जाने की जानकारी दी।
अमरिंदर सिंह पंजाब में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा और मज़बूत चेहरा थे, इसमें कोई सवाल ही नहीं था। लेकिन अमरिंदर पिछले चुनाव के वादों, ख़ासकर गुरुग्रन्थ साहिब की बेअदबी के मामले में आरोपियों को सज़ा देने के वादे पर खरे नहीं उतरे थे। दो महीने पहले आलाकमान ने उन्हें अवसर दिया था कि वह इन वादों को पूरा करने के लिए तत्काल ठोस काम शुरू कर दें। लेकिन कैप्टन हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे। इस दौरान भाजपा से उनकी नज़दीकी बढऩे की अपुष्ट ख़बरें आने लगीं, जिनका कैप्टन ने कोई प्रतिवाद नहीं किया; जिससे उनके प्रति शक की भावना बढ़ी। बादल परिवार से उनकी नज़दीकियों पर तो पहले ही कांग्रेस के विधायक आगबबूला हुए बैठे थे। इस तरह अमरिंदर सत्ता से बाहर हो गये। इतनी जल्दी कि उन्हें कुछ करने का अवसर ही नहीं मिल पाया।
कांग्रेस या कह लीजिए राहुल गाँधी ने अनुसूचित जाति के चन्नी का मुख्यमंत्री के रूप में चयन करके एक तीर से कई शिकार कर लिये हैं। अमरिंदर सिंह से लेकर अकाली दल-बसपा गठबन्धन, आम आदमी पार्टी और भाजपा सब इस चयन से भौचक हैं। बसपा प्रमुख मायावती भी परेशान हुईं। वह जानती हैं कि इसका असर पंजाब से बाहर उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी पड़ेगा। इसलिए उन्होंने परेशानी में ही सही, मगर कहा कि कांग्रेस ने चन्नी को नाम का ही मुख्यमंत्री बनाया है; क्योंकि असली ताक़त किसी और के पास रहेगी। ज़ाहिर है मायावती का मक़सद एक दलित मुख्यमंत्री बनाने से कांग्रेस को मिलने वाले सम्भावित चुनावी लाभ से रोकना रहा होगा। पंजाब में अकाली दल और भाजपा ने दो महीने पहले ही उनकी सरकार बनने की स्थिति में उप मुख्यमंत्री का पद अनुसूचित जाति के विधायक को देने का वादा जनता से किया था। अब कांग्रेस ने इस समुदाय से मुख्यमंत्री ही बना दिया है। क्योंकि चन्नी सिख हैं। इसलिए कांग्रेस के लिए एक सिख राज्य में राजनीतिक लिहाज़ से यह और बेहतर फ़ैसला है। कांग्रेस का चयन एक सिख नहीं होता, तो अकाली दल आदि इस पर बहुत हो-हल्ला करते। लेकिन कांग्रेस ने उनके हाथ से यह हथियार भी छीन लिया।
इसके अलावा चन्नी युवा हैं। उनके सामने लम्बा राजनीतिक करियर है। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि आगामी साल 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद क्या राजनीतिक स्थिति बनेगी? यदि कांग्रेस सत्ता में लौटती है, तब भी कौन मुख्यमंत्री चुना जाएगा? यह उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। अमरिंदर के जाने के बाद दो उप मुख्यमंत्रियों के रूप में कांग्रेस ने एक जट्ट सिख और एक हिन्दू सवर्ण को चुना है, जिससे वह एक सम्पूर्ण राजनीतिक पैकेज देने में सफल रही है।
सिद्धू : हंगामा है क्यों बरपा?
नवजोत सिंह सिद्धू तबीयत से बाग़ी हैं। जब कुछ ग़लत लगता है, तो वह विद्रोह करने में देर नहीं लगाते। भारतीय क्रिकेट टीम का सन् 1996 का इंग्लैंड दौरा इसका सुबूत है। कप्तान मोहम्मद अज़हरूद्दीन से किसी मसले पर उनके खटपट हो गयी। नाराज़ सिद्धू इंग्लैंड दौरा छोडक़र ही भारत लौट आ गये। पंजाब में कांग्रेस की कप्तानी हासिल करने से लेकर अध्यक्ष पद छोडऩे तक की उनकी लड़ाई उनके उस तेवर को ही दर्शाती है। विरोधी भले ही कुछ भी कहें; लेकिन सिद्धू अपनी ही तबीयत के मालिक हैं।
कहा जाता है कि राजनीति में कुछ समझौते करने पड़ते हैं; लेकिन सिद्धू ने न भाजपा में रहते हुए कोई समझौता किया और न अब कांग्रेस में। भाजपा में वह अकाली दल से अलग पार्टी का अपना वजूद पंजाब में तैयार करना चाहते थे; लेकिन भाजपा आलाकमान ने उनकी नहीं सुनी और सिद्धू ने बाग़ी तेवर अपना लिये। यह ठीक है कि मंत्रियों को विभाग बाँटना और अफ़सरों की तैनाती मुख्यमंत्री का विशेषधिकार है और सिद्धू को संगठन पर फोकस करना चाहिए। इसे पार्टी अनुशासन के ख़िलाफ़ भले कह लें; लेकिन सिद्धू ने दाग़ी लोगों पर ही सवाल उठाये थे, जो कांग्रेस के लिए अच्छी ही बात थी। उनके विरोधी आरोप लगाते हैं कि सिद्धू तीन महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष बने; लेकिन उनका ध्यान सरकार पर ज़्यादा और संगठन पर कम है। पहले के दो महीने कैप्टन अमरिंदर सिंह को निपटाने में निकल गये और बाद में वह सरकार की नियुक्तियों में उलझ गये। लिहाज़ा संगठन का काम हुआ ही नहीं, जबकि विधानसभा चुनाव को बमुश्किल चार-पाँच महीने ही बचे हैं। हालाँकि चन्नी सरकार से सिद्धू के बाद इस्तीफ़ा देने वाली रज़िया सुल्ताना कहती हैं- ‘सिद्धू ईमानदार नेता हैं और पंजाब के उसूलों की लड़ाई लड़ रहे हैं।’
वैसे पंजाब के सारे घटनाक्रम से कांग्रेस में जिस नेता को सबसे ज़्यादा लाभ पहुँचा, वह नवजोत सिंह सिद्धू ही हैं। वह अपने सबसे बड़े राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी कैप्टन अमरिंदर सिंह को कांग्रेस के बिना किसी बड़े राजनीतिक नुक़सान के निपटाने में सफल रहे हैं। हो सकता है कि अमरिंदर सिंह कांग्रेस से जाने का अन्तिम फ़ैसला जल्दी ही कर लें। यदि ऐसा होता है, तो भले कांग्रेस का इससे नुक़सान हो; लेकिन व्यक्तिगत रूप से सिद्धू का कांग्रेस में सबसे बड़ा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पार्टी से बाहर हो जाएगा।
कैप्टन के इरादे
अमरिंदर सिंह जिस तरह अपनी ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के ख़िलाफ़ विधानसभा चुनाव में मज़बूत उम्मीदवार उतारने और राहुल-प्रियंका गाँधी को राजनीतिक अपरिपक्व बताने वाली टिप्पणियाँ कर रहे हैं, उससे ज़ाहिर होता है कि कांग्रेस का यह दिग्गज अपनी राह बदलने की तैयारी में है। सवाल हैं- वह जाएँगे किसके साथ? और कब जाएँगे? कितने विधायक उनके साथ जाएँगे? कांग्रेस शायद ख़ूद उन्हें पार्टी से बाहर न करे।
हालाँकि उनकी टिप्पणियों पर वरिष्ठ नेता असहमति जता चुके हैं और कह रहे हैं कि उन जैसे वरिष्ठ नेता से इस तरह के बयानों की उम्म्मीद नहीं की जाती। उनके निशाने पर सिद्धू सबसे ज़्यादा हैं। सिद्धू को ‘राष्ट्र के लिए ख़तरा’ जैसे बयान देकर कैप्टन ने भाजपा की भाषा ही बोली है। चर्चा रही है कि यदि मोदी सरकार विवादित तीन कृषि क़ानूनों को वापस ले ले या ठण्डे बस्ते में डाल दे, तो कैप्टन भाजपा में भी जा सकते हैं। देखा जाए तो क़द्दावर नेता होने के बावजूद अमरिंदर को मुख्यमंत्री पद से हटाने पर जनता में उनके प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखती। चुनाव के वादे पूरे न करने और श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी पर कार्रवाई न होने के कारण जनता में पहले से ही उनके प्रति ग़ुस्सा रहा था। यह तक कहा जा रहा था कि अमरिंदर कांग्रेस को शायद ही अगला चुनाव जिता पाते। कैप्टन के अपने प्रभाव क्षेत्र में ही जनता का कहना है कि अमरिंदर ने तो ख़ूद ही सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रचार करते हुए इसे अपना आख़िरी चुनाव बताकर मत (वोट) माँगे थे। जिन नवजोत सिद्धू से वह टक्कर ले रहे हैं, वह भी उनकी ही तरह जट्ट सिख और सिद्धू हैं। जट्ट सिख मानते हैं कि सिद्धू उनके समुदाय में भविष्य के नेता हैं। लिहाज़ा कैप्टन का सिद्धू को लेकर विरोध उनके गले नहीं उतर रहा। अमरिंदर के सिद्धू के ख़िलाफ़ बयानों का सिद्धू को नहीं, ख़ूद अमरिंदर को नुक़सान हुआ है। एक और क़द्दावर जट्ट सिख नेता सुखजिंदर सिंह रंधावा, जिन्हें अब उप मुख्यमंत्री बना दिया गया है और सरकार में जिनकी नंबर दो की हैसियत है; भी सिद्धू के साथ खड़े दिख रहे हैं। अमरिंदर 80 साल के क़रीब हैं और अपनी पारी खेल चुके हैं। लोग मानते हैं कि उन्हें सिद्धू को अपने उत्तराधिकारी के रूप में समर्थन देना चाहिए था। फ़िलहाल अमरिंदर यह टोह लेने की कोशिश कर रहे हैं कि कितने विधायक उनके साथ आ सकते हैं। अनुसूचित जाति के विधायक चरणजीत सिंह चन्नी को कांग्रेस ने जिस तरह मुख्यमंत्री बनाकर तुरुप का पत्ता चला है, उससे कांग्रेस विधायक दल में किसी बड़े विघटन की सम्भावना नहीं दिखती। अमरिंदर सिर्फ़ एक ही तरीक़े से कांग्रेस सरकार के लिए समस्या बन सकते हैं और वह यह है कि कांग्रेस के 20 से ज़्यादा विधायक राजा अमरिंदर के साथ चले जाएँ। पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वाले जानकार इसकी सम्भावना न के बराबर मानते हैं। ज़मीनी हक़ीक़त आज भी यह है कि चुनाव की दृष्टि से कांग्रेस अभी भी अन्य दलों के मुक़ाबले बेहतर स्थिति में है।
जातियाँ कितनी असरदार?
पंजाब की चुनावी राजनीति पर नज़र दौड़ाएँ, तो ज़ाहिर होता है कि जातियों का चुनाव में असर रहा है। चूँकि कांग्रेस ने पंजाब में अनुसूचित जाति से मुख्यमंत्री बनाया है, तो सबसे पहले पिछले चार विधानसभा चुनावों में अनुसूचित जाति की भूमिका की बात की जाए। इन चार विधानसभा चुनावों में अनुसूचित जाति के बहुसंख्यक वोट कांग्रेस को मिलते रहे हैं; चाहे यह हिन्दू मतदाता हों, या सिख मतदाता।
सन् 2002 के विधानसभा चुनाव में पंजाब में सिख अनुसूचित जातियों के 33 फ़ीसदी मत (वोट) कांग्रेस को और 26 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को मिले। सन् 2007 में 49 फ़ीसदी मत कांग्रेस को, जबकि 32 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को मिले। सन् 2012 में 51 फ़ीसदी मत कांग्रेस को और 34 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को प्राप्त हुए। वहीं सन् 2017 में 41 फ़ीसदी मत कांग्रेस को, 34 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को और 19 फ़ीसदी मत आम आदमी पार्टी को मिले। इसी तरह हिन्दू अनुसूचित जातियों में सन् 2002 में 47 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 11 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2007 में 56 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, तो 25 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को मत डाले। सन् 2012 में 37 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 33 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को मतदान किये। वहीं सन् 2017 में 43 फ़ीसदी ने कांग्रेस के, तो 26 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन के पक्ष में मतदान किया। यदि जट्ट सिख मतदाताओं की बात करें तो सन् 2002 में कांग्रेस को 23 फ़ीसदी ने, जबकि अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को 55 फ़ीसदी जट्ट सिख ने मत दिये।
सन् 2007 में कांग्रेस को 30 फ़ीसदी ने, अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को 61 फ़ीसदी ने मत दिये। सन् 2012 में कांग्रेस को 31 फ़ीसदी ने, जबकि अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को 52 फ़ीसदी ने मत दिये। वहीं सन् 2017 में 28 फ़ीसदी ने कांग्रेस को और 37 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को, जबकि पहली बार चुनाव में उतरी आम आदमी पार्टी को 30 फ़ीसदी जट्ट सिखों ने मत दिये। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा के इतने चुनावों में लगातार अकाली दल के साथ होने के बावजूद ग़ैर-दलित हिन्दुओं ने ज़्यादा समर्थन कांग्रेस का किया। सन् 2002 में 52 फ़ीसदी ग़ैर-अनुसूचित जाति हिन्दुओं ने कांग्रेस को मतदान किया, जबकि अकाली-भाजपा गठबन्धन को सिर्फ़ 26 फ़ीसदी मतदान इन्होंने किया। इसी तरह सन् 2007 में 49 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 38 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2012 में 46 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 36 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मत दिये। वहीं सन् 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 48 फ़ीसदी ने, अकाली-भाजपा गठबन्धन को 22 फ़ीसदी ने और आम आदमी पार्टी को 23 फ़ीसदी ग़ैर-हिन्दू दलितों के मत मिले।
बात करें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सिख मतदाताओं के मतों की, तो सन् 2002 में 39 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 32 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2007 में 43 फ़ीसदी ने कांग्रेस को और 43 फ़ीसदी ही ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2012 में 44 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 46 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। वहीं सन् 2017 के चुनाव में 37 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 32 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को और 19 फ़ीसदी ने आम आदमी पार्टी को मत दिये।