2014 के लोकसभा चुनावों में जब ‘आम आदमी पार्टी’ ने पंजाब में लगभग एक तिहाई सीटें जीत ली तो सभी को हैरानी हुई थी, केवल उन लोगों को छोड़कर जो पंजाब के सियासी हालात को 60-70 के दशकों से जानते हैं। उनके लिए आम आदमी पार्टी के चार सांसदों का जीतना एक सामान्य बात थी।
यदि पंजाब के इतिहास को थोड़ा झांक कर देखें तो इसमें ‘गदरी बाबाओं’ से लेकर ‘नक्सलवादी आंदोलन’, ‘छात्र संघर्ष और ‘किसान आंदोलन’ ही नजऱ आएंगे। कम्युनिस्ट विचारधारा वहां आज भी मौजूद हैं कामरेड सतपाल डांग, विमला डांग, दर्शन सिंह कनेडियन, हरकिशन सिंह सुरजीत, और बलदेव सिंह मान जैसे कम्युनिस्ट नेता पंजाब से ही निकले। पंजाब जब आतंकवाद से जूझ रहा था, उस समय कम्युनिस्ट पार्टियां ही थी जो खुल कर उनका विरोध कर रहीं थी। कई बार उन्होंने आमने-सामने आतंकवादियों का सामना भी किया। इन नेताओं ने आतंकवादियों के गढ़ों में जाकर जनसभाएं की। इसकी कीमत इन्हें अपनी जान दे कर चुकानी पड़ी।
इससे पूर्व भी मोगा के छात्र आंदोलन के दौरान पृथपाल सिंह रंधावा जैसा नेता सामने आया और पंजाब में कम्युनिस्ट सोच पूरी तरह फैलने लगी। बाकी सियासी दल इससे घबराने लगे थे। खास तौर पर अकाली । लेकिन ये सारे छात्र नेता किसी एक कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं गए। इनमें से कुछ नक्सलवादी आंदोलनों का हिस्सा बन गए और कुछ निष्क्रिय हो कर घर बैठ गए। कुछ लोग माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) में चले गए। सियासी रूप से वामपंथ का आंदोलन कभी भी वोटों की राजनीति में सफल नहीं रहा, लेकिन आम लोगों के दिमाग में माक्र्सवाद का प्रभाव छोड़ गया।
जब अन्ना आंदोलन के बाद दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) का गठन हुआ और वहां ‘आप’ की सरकार बन गई तो पंजाब में वे लोग जो माक्र्सवाद की विचारधारा के होते हुए भी किसी कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं गए थे, उन्हें ‘आप’ का मंच सही लगा और डाक्टर धर्मवीर गांधी व प्रोफेसर साधु सिंह (फरीदकोट से सांसद) जैसे लोग -‘आप’ में शामिल हो गए। इसी प्रकार पंजाब के गावों में बसे ज़्यादातर लोग जो अकाली और कांग्रेस दोनों से दुखी थे वे ‘आप’ में चले आए। उन लोगों को लगा कि ‘आप’ एक ऐसी पार्टी है जो पंजाब की सियासी खला को भर सकती है। इस वजह से उन्होंने ‘आप’ का साथ दिया और इनके प्रत्याशी, पटियाला, (डाक्टर धर्मवीर गांधी), संगरूर (भगवंत मान), फतेहगढ़ साहिब (हरिंदर सिंह खालसा) और फरीदकोट (प्रोफेसर साधु सिंह) से विजयी हुए।
यह एक संयोग ही था कि लोकसभा में आप का प्रतिनिधित्व करने वाले चारों सांसद पंजाब से ही थे। देखा जाए तो पटियाला, संगरूर, फतेहगढ़ साहिब और फरीदकोट राज्य के मालवा क्षेत्र में आते हैं। यह इलाका कपास के लिए मशहूर रहा है और यहां किसान आंदोलन भी खूब चले हैं। दोआबा और माझा में ‘आप’ कुछ ज़्यादा नहीं कर पाई।
इसी प्रकार विधानसभा चुनाव में भी एक समय ऐसा लगता था कि यहां ‘आप’ की सरकार बन सकती है। लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने स्थानीय नेताओं की अनदेखी की और सारे फैसले दिल्ली से लेकर राज्य पर थोपते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि पार्टी मालवा में भी अपना आधार नहीं बचा पाई और वह 20 सीटों पर सिमट गई। यहां कांग्रेस को 77, आम आदमी पार्टी को 20, लोक इंसाफ पार्टी को 02, अकाली दल को 15, और भाजपा को 03 सीटें मिली। पंजाब के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि अकाली दल मुख्य विपक्ष नहीं बन पाया। यह स्थान पहली बार चुनाव लड़ रही ‘आप’ ले गई।
विधानसभा के गठन के बाद ऐसा लगा जैसे ‘आप’ ने इस राज्य में रुचि लेनी ही छोड़ दी। पार्टी में राजनीतिक विचारधारा की कंगाली भी इसका एक कारण बनी। पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल के पास न तो कोई आर्थिक कार्यक्रम है और न ही कोई राजनैतिक सिद्धांत। इस वजह से उन लोगों का पार्टी में रहना संभव नहीं था जो किसी विचारधारा से जुड़े थे। खास कर माक्र्सवाद की समझ रखने वाले। उन लोगों के सुझावों को न माना जाना और वे काम नहीं करने दिए गए जो ये लोग करना चाहते थे। इस कारण राज्य और केंद्र के नेतृत्व के बीच दूरियां बढ़ती गईं और सुखपाल सिंह खैरा, अमरजीत सिंह संदोहा, हरविंदर सिंह फुलका और नाजऱ सिंह मानसहिया जैसे विधायक ‘आप’ से इस्तीफा दे गए। इनके पार्टी छोडऩे का प्रभाव पंजाब में पूरी पार्टी पर पड़ा है।
सवाल यह नहीं है कि ‘आप’ का वजूद पंजाब में रहता है या नहीं, पर ‘आप’ के उभार ने एक बात स्पष्ट कर दी है कि राज्य में तीसरी पार्टी के लिए काफी संभावना है। यदि ‘आप’ के नेता कोई पुख्ता कदम नहीं उठाते तो इस का यहां खत्म हो जाना लगभग तय है। फिर वे लोग किस ओर जाएंगे, जो ‘आप’ मे एक मज़बूत सियासी विकल्प तलाश रहे थे। पार्टी को विधानसभा चुनावों में मिले 23.7 फीसद वोट किस ओर जाते हैं यह देखना रोचक होगा।
‘आप’ के भविष्य पर सवालिया निशान
पंजाब में ‘आप’ का उदय जिस अप्रत्याशित तरीके से हुआ उसी प्रकार उसका सूर्य अस्त भी हो रहा है। इसका मुख्य कारण है केंद्रीय नेतृत्व का तानाशाही रवैया। दिल्ली में बैठे ‘आप’ के नेताओं को यह गलतफहमी हो गई थी कि अरविंद केजरीवाल के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पंजाब में ‘आप’ की लहर उठी थी, जबकि सत्य यह है कि वामपंथी सोच के वे लोग जो कम्युनिस्ट पार्टियों के काम उनके संगठन के तरीकों और नेताओं से नाखुश थे वे ‘आप’ में आए थे। उन्होंने ही यहां संगठन खड़ा किया। उनका साथ यहां के बुद्धिजीवियों ने दिया। एक समय ऐसा भी आया था कि पंजाब में ‘आप’ की सरकार बनती दिखने लगी थी। शायद केंद्रीय नेतृत्व को ऐसी आशा नहीं थी। वहां बैठे लोग न तो पंजाब की राजनीति को समझते थे और न ही यहां की संस्कृति को। उन्होंने यह कोशिश भी नहीं की कि वे जानें कि ‘आप’ को राज्य में इतना समर्थन क्यों मिल रहा है। इस सारेे मामले में यह प्रभाव दिया गया कि अरविंद केजरीवाल खुद पंजाब का मुख्यमंत्री बनने के सपने देखने लगे। केजरीवाल ने कभी भी इस प्रभाव को खत्म करने की कोशिश नहीं की। माना जाता है कि पंजाब के लोग किसी भी गैऱ पंजाबी को अपना मुख्यमंत्री स्वीकार नहीं करतेे। इसलिए नेतृत्व को यह भी कहा गया कि वे किसी को भी राज्य का भावी मुख्यमंत्री घोषित कर दें ताकि लोगों में विश्वास बना रहे, पर पार्टी ने ऐसा नहीं किया।
दूसरी ओर कांग्रेस व अकाली दल ने इस बात का जमकर प्रचार किया कि ‘आप’ के सत्ता में आने के बाद यहां का मुख्यमंत्री ग़ैर सिख और ग़ैर पंजाबी होगा। गावों में इसका बहुत असर हुआ और जो लोग ‘आप’ के लिए वोट देने का मन बनाए बैठे थे वे कांग्रेस की ओर हो गए। नतीजा यह हुआ कि जिन 36 विधानसभा हल्कों में पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान बढ़त ली थी उनमें से 16 इनके हाथ से निकल गए। उन्हें केवल 20 सीटें ही मिली जबकि कांग्रेस की झोली में 77 सीटें हो गईं। अकाली 15 सीटें जीत पाए और उन्हें पिछले चुनावों के मुकाबले 41 सीटें कम मिली जबकि कांग्रेस को 31 सीटों का लाभ हुआ। इतना ही नहीं जब पंजाब की पार्टी के कुछ नेताओं ने अपना रूख आला कामान के सामने रखा तो केजरीवाल ने कई नेताओं को पार्टी से निकाल दिया।
‘आप’ का नेतृत्व क्या करना चाहता है इसका किसी को कुछ पता नहीं । एक समय हिमाचल प्रदेश के 200 से ज़्यादा नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता एक साथ ‘आप’ में चले गए थे। संजय सिंह ने उन्हें पार्टी में शामिल किया, पर उसके बाद केजरीवाल, संजय सिंह और किसी और नेता ने हिमाचल प्रदेश के किसी कार्यकर्ता का फोन तक नहीं उठाया। आखिरकार दो-तीन साल तक इंतज़ार के बाद वे लोग दूसरी पार्टियों में चले गए। आज हिमाचल प्रदेश में ‘आप’ का एक भी सक्रिय कार्यकर्ता नहीं है।
गुजरात में ‘आप’ के लिए जीे जान से काम करने वाली व नौ विधानसभाओं को संभालने की जिम्मेदारी निभाने वाली एक महिला नेता का आरोप है कि ‘आप’ का नेतृत्व पार्टी टिकट देने के लिए लाखों रुपए मांगता था। उसका आरोप है कि वहां उन्ही को टिकट मिले जिन्होंने पार्टी को पैसा दिया। रिश्वत और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से उपजी इस पार्टी के नेताओं पर पैसे बटोरने का इल्ज़ाम लगना काफी चौंकाने वाला है।
पंजाब में अब ‘आप’ संगरूर की एकमात्र सीट ही जीत पाई है। वह भी इसलिए कि वहां से उनके प्रत्याशी भगवंत मान एक लोकप्रिय हास्य कलाकार होने के साथ-साथ व्यक्तिगत तौर पर लोगों से जुड़े हैं। लोकसभा चुनाव के ये नतीजे इस बात का पक्का सबूत है कि राज्य में ‘आप’ का वजूद खत्म हो रहा है।