पंजाबी सिनेमा के इतिहास में 50 करोड़ के आँकड़े को छूने वाली, आज के मल्टीप्लेक्स के ज़माने में पचास दिन पूरे करने व हर वर्ग के दर्शक द्वारा सराही जाने वाली वाली पहली फिल्म बन चुकी है पंजाबी फिल्म ‘अरदास करां’। फिल्म का निर्माण हम्बल मोशन पिक्चर्स ने किया है। गिप्पी ग्रेवाल ने इसका निर्देशन किया है। फिल्म के लेखक हैं राणा रणबीर, और सिनमटोग्रफऱ हैं बलजीत देओ।
कहानी तीन बुज़ुर्ग दोस्तों (सिख, हिंदू व मुस्लिम) के गिर्द घूमती है जिनके किरदार निभाए हैं मल्कीत रौनी, सरदार सोही व राणा जंग बहादुर ने। जि़ंदगी की समस्याओं से दुखी हो वह सिख दोस्त आत्महत्या करना चाहता है। लेकिन एक नौजवान (गिप्पी ग्रेवाल) के समझाने पर तीनों दोस्त एक लम्बे सफर पर घूमने जाने के लिए मान जाते हैं। गाड़ी का ड्राइवर जादू (मैजिक सिंह) जो खुद कैन्सर का मरीज़ है। जिसकी अपनी जि़ंदगी कुछ ही दिनों की है, लेकिन वह जि़ंदगी को जी भर के जीना चाहता है, उन्हें जि़ंदगी के अर्थ समझाता है। इस किरदार को बहुत ही खूबसूरती से निभाया है कलाकार गुरप्रीत घुग्गी ने। आखिर में उसकी मौत हो जाती है लेकिन वो गुरु ग्रंथ साहिब से लिए गए शब्दों और वाक्यों का इस्तेमाल करके सफलतापूर्वक सभी को जीने और अपने परिवारों को समझने की कला सीखा जाता है।
फिल्म के संवाद बहुत ही बढिय़ा व भावपूर्ण हैं। यही वजह है कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो कर फिल्म देखते हैं ताकि कुछ सुनने से रह न जाए।
गिप्पी ग्रेवाल ने निर्देशक होते हुए भी अपनी हीरो वाली इमेज को दिखाने की बिलकुल कोशिश नहीं की और कहानी व दूसरे किरदारों के साथ पूरा न्याय किया है। बलजीत देयो ने कनाडा के खूबसूरत स्थानों का बहुत निपुणता से छायांकन किया है। सभी कलाकारों ने अपने अपने किरदारों से न्याय किया है। संगीत मधुर है और गाने माहौल के मुताबिक डाले गए हैं। बड़ी बात ये कि यह फिल्म पंजाबी सिनेमा में एक नया विषय ले कर आती है। पुराने पंजाबी गाँव की कहानी, विदेश जाने के लिए जद्दोजहद और वहाँ जा कर पंजाब को याद करना, कॉलेज में पढ़ रहे लडक़े लड़कियों की प्रेम कहानी, एक पुरानी घटना को ले कर या एक लडक़ी के लिए झगड़े वग़ैरा वग़ैरा से दूर यह फिल्म जिंदगी की बात करती है। इंसानी रिश्तों की बात करती है। भावनाओं की बात करती है। छोटी-छोटी बातों को दिल पर ले कर जिंदगी को नरक बनाने से बचने की बात करती है। जिससे दर्शक को नयापन व ताज़गी का एहसास होता है।
बाकी हर दर्शक का नज़रिया अलग होना स्वाभाविक है। कुछ लोगों को बाकी सब अच्छा लगा पर किरदारों पर बारीकी से काम नहीं किया गया, इस बात की निराशा है। सरदार बहादुर माने जाते हैं, सरदार के किरदार को ऐसा कौन सा बड़ा दु:ख था कि वो खुदकुशी के लिए ही आमदा रहता है? फिल्म में जो समस्याएं जो दिखायी गयी हैं वो तो आम मसले हैं जो तकरीबन हर घर में होती हैं। इसके लिए कौन जान देने जाता है?
कार ड्राइवर (राणा रणबीर) जिस से हादसा हुआ दिखाया गया है, का किरदार फिल्म को सिर्फ बेवजह लम्बा करता है। पता नहीं किस मजबूरी में इसे फिल्म में डाला गया है। मैजिक सिंह की मौत के बाद फिल्म में पेड़ लगाने, अंग दान करने वग़ैरा का उपदेश देने की कोशिश खटकती है और फिल्म के असर को कम करती है। अंतिम सीन को इतना लम्बा खींचना ज़रूरी नहीं था। छोटे बच्चे झण्डे का अपने दादा के साथ रिश्ता बहुत भावुक व स्वाभाविक है और अच्छा लगता है। बच्चे का अभिनय भी क़ाबिले तारीफ़ व क़ाबिले जिक्र है।
कुल मिला के बहुत देर बाद एक अच्छी फिल्म देखने को मिली है। नए सबजेक्ट पर इतना बड़ा खतरा मोल लेने व पंजाबी सिनेमा को एक बेहतरीन फिल्म देने के लिए निर्माता व सारी टीम को बधाई।