न्यूज मीडिया के अंदर लगातार मजबूत होते अंडरवर्ल्ड और इसके साथ बढ़ते नैतिक-आपराधिक विचलन और फिसलन के बीच जैसे यह होना ही था. कोयला आवंटन घोटाला मामले में आरोपों में घिरी जिंदल स्टील ऐंड पावर कंपनी के मालिक और कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल ने जी न्यूज समूह पर ब्लैकमेलिंग और डरा-धमकाकर पैसा वसूलने का आरोप लगाया है. जिंदल ने सबूत के बतौर जी न्यूज समूह के दो संपादकों और बिजनेस हेड- सुधीर चौधरी और समीर अहलुवालिया का स्टिंग पेश किया है जिसमें वे दोनों जिंदल समूह के खिलाफ चल रही खबरों को रोकने के लिए 100 करोड़ रुपये का बिजनेस मांगते हुए नजर आते हैं.
लेकिन इस खुलासे के बाद से न्यूज मीडिया खासकर चैनलों में ऐसी हैरानी और घबराहट दिखाई पड़ रही है, जैसे अचानक कोई दुर्घटना हो गई हो. आनन-फानन में बचाव की कोशिशें शुरू हो गईं. ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) ने न सिर्फ इस मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित कर दी बल्कि जांच-पड़ताल के बाद जी न्यूज के एडिटर/बिजनेस हेड और बीईए के कोषाध्यक्ष सुधीर चौधरी को संगठन से बाहर कर दिया. मजे की बात यह है कि चौधरी की बीईए की सदस्यता खत्म करने का फैसला सदस्यों के बीच गोपनीय वोट के जरिए किया गया.
खबर यह भी है कि न्यूज चैनलों के मालिकों/प्रबंधकों के संगठन- न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन(एनबीए) की स्व-नियमन व्यवस्था- न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी भी इस मामले की जांच कर रही है. लेकिन सारा जोर जी-जिंदल मामले से भड़की आग पर तात्कालिक तौर पर काबू पाने और नुकसान कम करने पर है. इसके साथ ही दूरगामी नुकसान से बचाव के लिए इस पूरे प्रकरण को एक अपवाद, नैतिक भटकाव और एक खास न्यूज चैनल और उसके दो संपादकों के विचलन के रूप में पेश करने की कोशिश की जा रही है.
लेकिन यह चैनलों के मालिक और संपादक भी जानते हैं कि यह पूरा सच नहीं है. अगर मामला सिर्फ एक चैनल और उसके दो संपादकों के नैतिक विचलन और आपराधिक व्यवहार का होता तो चैनलों में इतनी घबराहट और बेचैनी नहीं दिखाई देती. लेकिन मुश्किल यह है कि खबरों की खरीद-बिक्री के इस हमाम में ज्यादातर चैनल और अखबार नंगे हैं. पेड न्यूज के पहले से जारी शोर-शराबे के बीच अब जी-जिंदल प्रकरण के खुलासे से न्यूज चैनलों को यह डर सताने लगा है कि कल उनका नंबर भी सकता है.
लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल हाल के कुछ वर्षों में न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में कॉरपोरेट के अलावा और भी कई तरह की पूंजी आई है जिनमें नेताओं-अफसरों-व्यापारियों/कारोबारियों/ठेकेदारों/बिल्डरों के अलावा चिट फंड कंपनियों की ओर से किया गया निवेश शामिल है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें ज्यादातर काला धन है जिसका मकसद चैनलों के आवरण में अपने दूसरे कानूनी-गैरकानूनी धंधों के लिए राजनीतिक और नौकरशाही का संरक्षण और प्रोत्साहन हासिल करना है.
सच पूछिए तो इन दोनों यानी कॉरपोरेट और आपराधिक पूंजी को मिलाकर न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का अंडरवर्ल्ड बनता है जिसमें मालिक-संपादक खबरों के सौदागर बन गए हैं. यहां खबर समेत हर पत्रकारीय मूल्य और नैतिकता बिकाऊ है और जिसके पास भी पैसा है, वह उसे खरीद/दबा/बदल सकता है. चाहे वह भ्रष्टाचार के मामलों में फंसी कोई कंपनी/नेता/अफसर हो या चुनाव लड़ रहा कोई माफिया डॉन. हालत इतने बदतर हो चुके हैं कि ज्यादातर चैनलों और अखबारों में जहां से भी और जैसे भी पैसा आता हो और उसके लिए चाहे खबर बेचनी हो या पत्रकारीय मूल्यों-नैतिकता को ताक पर रखना हो या कोई नियम-कानून तोड़ना पड़े, इसकी कोई परवाह या शर्म नहीं रह गई है.
इस मायने में जी-जिंदल प्रकरण पेड न्यूज की परिघटना का ही स्वाभाविक विस्तार है और इसमें चौंकाने वाली कोई बात नहीं है और न ही यह कोई अचानक हुई दुर्घटना है. जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ कहते रहे हैं कि बड़ी कॉरपोरेट पूंजी से संचालित न्यूज मीडिया ‘संरचनागत तौर पर झूठ बोलने के लिए बाध्य’ है. सच पूछिए तो न्यूज मीडिया के अंडरवर्ल्ड की मुनाफे की हवस और कॉरपोरेट और दूसरे निजी हितों को आगे बढ़ाने के दबाव ने संपादकों और पत्रकारों को भी हफ्ता वसूलने वाले हिटमैन और शार्प शूटर्स में बदलना शुरू कर दिया है.
क्या नवीन जिंदल के ‘उल्टा स्टिंग’ ऑपरेशन में जी न्यूज के संपादक भी ऐसे ही हिटमैन और शार्प शूटर की तरह नजर नहीं आते हैं? याद रखिए, वे न्यूज मीडिया के अंडरवर्ल्ड के हिटमैन और शार्प शूटर भर हैं, असली डॉन नहीं हैं. लेकिन अंडरवर्ल्ड का खेल देखिए, डॉन के बारे में कोई बात नहीं हो रही है. क्या इसमें आपको ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ नहीं सुनाई दे रही है?