पूरे देश में 1984 में सिख विरोधी दंगे हुए। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी इन दंगों को बढ़ावा देने वालों को सजा नहीं मिली। ये दंगा पीडि़त परिवार आज भी घनघोर आर्थिक परेशानियों से जूझ रही हैं। कुछ विधवाओं को छोटी सरकारी नौकरी मिली, जो अब नहीं रही। कुछ बेवाएं तो घरेलू नौकरानियों का काम करके किसी तरह घर चला रही हैं। वहीं इनके बच्चे उचित पढ़ाई लिखाई औैर मार्गदर्शन न मिलने के कारण गलत सोहबत में पड़ गए हैं। कुछ को तो मादक द्रव्यों की लत लग गई है।
देश और दिल्ली में इतनी सरकारें आईं लेकिन कभी किसी ने ठीक से इस समस्या के उचित हल के बारे में नहीं सोचा। दिल्ली में आप सरकार ने जो एसआईटी व्यवस्था की थी। वह तब बंद खाते में चली गई। जब एनडीए सरकार ने फरवरी 15 में एसआईटी गठित की जिसे छह महीने में तमाम मामलों की जांच पड़ताल करनी थी। बाद में इसकी तारीख फरवरी 2016 तक की गई और फिर अगस्त 2017 तक कर दी गई। लेकिन अब तक नतीजा सिफर ही है। अगस्त 2017 के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसकी तहकीकात के लिए एक पेनल बनाया।
सिख विरोधी दंगे तब भड़के थे जब 31 अक्तूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। अकेले दिल्ली में 2,433 लोंगों को बेतरह मौत के घाट उतार दिया गया। तब के ये ज़ख्म आज तक नहीं भरे।
यह ज़रूर है कि विभिन्न सरकारों ने दंगों की छानबीन के नाम पर दस आयोग गठित किए। इनकी सिफारिशों पर कितना कुछ अमल हुआ यह सरकार ही जानती है। लेकिन जिन पर आरोप थे उनमें से एक फीसद को भी सजा नहीं मिली। हरकिशन लाल भगत तो बिना मामले -मुकदमें के चल बसे लेकिन सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर और कमलनाथ आज भी खुले आम घूम रहे हैं। रंगनाथ मिश्र आयोग ही पहला ऐसा आयोग था जिसे इस सामूहिक हिंसा की जांच की जिम्मेदारी मिली थी। इसने हिंसा के शिकार हुए लोगों के बयान रिकार्ड किए और प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार को किसी भी जिम्मेदारी से बरी किया।
भारतीय जनता पार्टी की सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मई 2000 में नानावटी आयोग नियुक्त किया। इसकी रपट तब आई जब मनमोहन सिंह की सरकार आई। इस पैनेल ने रपट दी जिसमें हिंसा को सहसा हुई नाराजगी बताया गया पर वह दरअसल एक सुनियोजित और संगठित हिंसा थी। आयोग ने कहा कि इस बात के पुख्ता सबूत हैं जिनसे यह जाहिर होता है कि स्थानीय नेता और तत्कालीन सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं ने कैसे इसे अंजाम दिया। इनमें से कई के खिलाफ कार्रवाई करने की सिफारिशें भी होती रही हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कांग्रेस की ओर से देश से माफी मांगी। टाइटलर जो बड़े आरोपी माने जाते थे उन्हें मंत्रिमंडल से जाना पड़ा। लेकिन इसके सिवा कुछ खास नहीं हुआ। सिर्फ अभी हाल एक ऐसे ही मामले में गवाह रहे अभिषेक वर्मा ने दिल्ली पुलिस में एक शिकायत दर्ज कराई कि उसकी सुरक्षा बढ़ाई जाए क्योंकि उसे एक ई-मेल मिला है जिसमें कहा गया है यदि उसने टाइटलर के खिलाफ गवाही दी तो उसे और उसके परिवार को भून कर रख दिया जाएगा।
नरेंद्र मोदी सरकार ने जीपी माथुर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई है। यह मामले को देखेगी। पैनेल ने सिफारिश की है कि एक विशेष जांच दल (एसआईटी) गठित किया जाए जो दंगों के तमाम मामलों की फिर से पड़ताल करे। एसआईटी पुलिस स्टेशन और पहले की कमेंटियों की फाइलों की जांच के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची कि जिन मामलों के प्रमाण पाए जा चुके हैं उनमें 241 मामलों को बंद कर दिया जाए।
मानव अधिकारों के वकील एचएस फुल्का जो सिख विरोधी दंगों के शिकार लोगों के लिए पहले दिन से लड़ रहे हैं यदि वे सक्रिय नहीं रहे होते तो 1984 के सामूहिक हत्याकांड के कई मामले काफी पहले ही छिपा दिए जाते। ‘हम तब तक न्याय के लिए लड़ते रहेंगे जब तक हमें न्याय मिल नहीं जाता-फुल्काÓ। उन्होंने अभी हाल में दंगों के शिकार लोगों के मामले उठाने के लिए पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से इस्तीफा भी दे दिया है। लगभग उसी तरह जैसे साइमन वेजेंथल ने किया था। उन्होंने 63 साल तक नाजियों की तलाश की। आखिर उसने दोषी कमांडेंट को हवालात के पीछे ढकेल दिया वह भी विश्व युद्ध खत्म होने के लगभग 50 साल बाद। न्याय की खोज करने वाले सरकारों और न्याय व्यवस्था पर 30 साल बाद भी दबाव बनाए रखते हैं। यह उनकी ही अनथक कोशिश है जिसके कारण व्यवस्था मृतकों को कानूनी फाइलों में बंद नहीं कर पाती।
सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2017 में अपने पूर्व न्यायाधीश जेएम पांचाल और पूर्व न्यायाधीश केएसपी राधाकृष्णन को उस सुपरवाइजरी पैनेल का सदस्य बना दिया, जो 1984 दंगों से संबंधित 241 फाइलों को दुबारा खोलने और उनकी जांच परख करने के लिए बना था। इन फाइलों को एसआईटी ने बंद कर दिया था। इसका गठन एनडीए सरकार ने किया था। दिल्ली हाईकोर्ट ने मार्च में हत्याकांड से जुड़े उन पांच मामलों को फिर खोलने का आदेश दिया था जिन्हें 1986 में बंद कर दिया गया था। पूर्व विधायक महेंद्र सिंह यादव के सहयोगी को दंगों में अभियुक्त पाया गया था लेकिन उसे 1986 में छोड़ दिया गया। उससे दिल्ली हाईकोर्ट ने मुकदमे के संबंध में पूछताछ भी की थी।
सांसदों के एक समूह ने प्रधानमंत्री मोदी को लिख कर आश्चर्य जताया है कि तीन दशक से भी ज्य़ादा हो जाने के बाद भी दंगों के लिए जिम्मेदार लोगों को कोई सजा नहीं दी जा सकी है। उनसें अपील की गई है कि वे इस मुद्दे को प्राथमिकता दें और इसके शिकार लोगां को न्याय दिलवाएं।
लेकिन सिर्फ समुदाय और राजनीतिक दबाव से कुछ खास नहीं होगा जब तक कि मन से यह इरादा न हो कि 1984 के सिख दंगों के शिकार लोगों को हर हाल न्याय में दिलाएगें।