जब इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री थीं उस वक्त भारत के बैंक निजी पूंजीपतियों के हाथों में थे और जो पैसा जनता जमा करती थी उस पैसे का इस्तेमाल वे अपने हित और पूंजी बढ़ाने के लिए करते थे। कई बार बैंक अपने को दिवालिया घोषित कर जनता के पैसों को हड़प भी लेते थे। दूसरी ओर सरकार को योजनागत विकास में निजी बैंक मदद करने से कतराते थे, जिसकी वजह से सरकार को सामाजिक और आर्थिक कल्याण की योजनाओं को चलाने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। इस चुनौती से निपटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरागांधी ने 1969 और 1980 में सभी प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया ताकि सभी बैंकों में जमा पैसे का समय पर सामाजिक कल्याण के लिए इस्तेमाल किया जा सके और निजी वर्चस्व को समाप्त करते हुए सरकार की प्राथमिकताओं के आधार पर इसकी पूंजी का इस्तेमाल और निवेश किया जा सके। एक हद तक सरकार इस लक्ष्य को पाने में सफल रही और बाकी लक्ष्यों के लिए प्रयास किया जाना था। ऐसे ही समय में सरकार ने ‘आर्थिक सुधार’ के एजेंडे को स्वीकार कर लिया और उसके लिए बैंकों के दरवाजे खोल दिए।
एक समय लोक-कल्याणकारी सरकार ने जनता को निजी साहूकारों के बैंकों से निजात दिलाने की पहल की थी, आज की चुनी हुई सरकारें ऐसे कानूनी ढांचे का निर्माण कर नागरिकों को बैंकों में पैसा जमा करने को मजबूर कर रही हैं। दूसरी तरफ जनता का पैसा पूंजीपति लूटते रहें, इसके लिए बैंकों को कानूनी कवच भी दे दिया गया है।
भारत में कार्यरत सरकारी और निजी बैंक जमाधारकों को क्या सुविधा देंगे और उसके बदले में कितना और कितनी अवधि में सेवा शुल्क लेंगे या जमाधारकों को मुनाफा देंगे इसके लिए सरकार ने भारतीय रिजर्ब बैंक को नियामक के रूप में अधिकार दिया हुआ है और उसके अनुपालन के लिए भी कई नियामक संस्थाएं काम करती हैं। 1999 तक भारतीय बैंक संघ सेवा-शुल्क का निर्धारण करता था जिसे समाप्त कर सेवा-शुल्क के निर्धारण के लिए अलग-अलग बैंकों को स्वतंत्र शक्ति दे दी गई।
अब सेवा शुल्क-अलग-अलग बैंक अपने-अपने बोर्ड की मंजूरी के साथ तय करते हैं। इस संबंध में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का निर्देश सिर्फ यह कहता है कि किसी भी सेवा पर शुल्क उस सेवा को प्रदान करने की औसत लागत के अनुरूप होना चाहिए। बचत बैंक खातों में न्यूनतम जमा राशि न रखने पर लगने वाले दण्ड-प्रभार के संबंध में आरबीआई ने पहली जुलाई 2015 को दिशा-निर्देश जारी किए, जहां उसने बैंकों से कहा कि वे दण्ड-प्रभारों को तार्किक और न्यूनतम राशि से जितनी राशि कम है उसके अनुपात में रखें। आरबीआई ने नीतियों में जिस तरह के लगातार बदलाव किए उस के कारण भी बैंकों के सेवा-शुल्क में तीव्र वृद्धि हुई है।
बचत खाता धारकों के ऊपर लगाए गए बैंक-शुल्क उन गऱीबों को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं जिन्होंने बैंकों की सेवाओं को शायद झिझकते हुए स्वीकार किया है और बैंकिंग प्रणाली के बारे में अधिक जानकारी नहीं रखते हैं। एक ओर मनरेगा मजदूरी, एलपीजी सब्सिडी, पेंशन आदि जैसे प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण प्राप्त करने के लिए सरकार लोगों को बैंकिंग प्रणाली में प्रवेश करने के लिए मजबूर कर रही है तो दूसरी ओर उन्हें अपने खातों में न्यूनतम शेष राशि नहीं रखने के लिए विभिन्न बैंक-शुल्कों के रूप में दंडित किया जा रहा है। मूल सेविंग बैंक डिपाजिट अकाउंट और प्रधानमंत्री जन-धन योजना खाते सरकार के वित्तीय समावेशन अभियान का हिस्सा थे और बैंकिंग सेवाओं के लिए खाताधारकों से शुल्क नहीं लिया जाता था। उनमें अब बैंकिंग सेवाओं का लाभ उठाने के लिए कई नियम लगाए गए हैं – जैसे नकदी, एटीएम, ऑनलाइन आदि सहित अधिकतम चार बार लेनदेन करने की अनुमति है। प्रधानमंत्री जन-धन योजना खातों में राशि निकालने और जमा करने की सीमा भी होती है जो 10,000 प्र्रतिमाह और 50,000 प्रतिमाह हैं।
वित्त मंत्रालय में राज्य मंत्री शिव प्रताप शुक्ला ने लोकसभा में बताया कि उन्हें वित्तीय वर्ष 2017-18 में बचत खातों में मासिक औसत न्यूनतम जमा राशि के रख-रखाव न करने पर 21 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और तीन अग्रणी निजी बैंकों ने खाताधारकों से 4,990 करोड़ रुपये एकत्र किए गए थे। भारतीय स्टेट बैंक सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सबसे बड़ा बैंक है और किसी अन्य बैंक की तुलना में इसमें कामकाजी वर्ग के लोगों की अधिक राशि जमा है। सिर्फ भारतीय स्टेट बैंक ने 2,434 करोड़ रुपये दण्ड-प्रभार के रूप में संग्रह किए हैं, जो बाकी सभी बैंकों की एकत्रित की गई राशि का लगभग आधा है। इसके अलावा, यदि हम पिछले चार वर्षों के आकड़ों को एक साथ रखते हंै, तो न्यूनतम शेष राशि का रखरखाव न करने पर दण्ड प्रभाव से 11,500 करोड़ रुपये वसूले गए हैं।
बैंकिंग क्षेत्र में खराब संचालन, जवाबदेही और पारदर्शिता की कमी के कारण एनपीए बढऩे के अलावा, आरबीआई के नियमों और सरकारी नीतियों में लगातार बदलाव ने बैंकों को ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा किया है, जहां उन्हें उन सेवाओं को भी प्रदान करना पड़ रहा है जो सेवाएं पारंपरिक बैंकिंग का हिस्सा नहीं हैं। पर बैंकों को कई ऐसे काम भी दिए जा रहे हैं जो बैंकिंग का हिस्सा नही हैं। नतीजतन, बीमा और म्युचुअल फंड उत्पादों की बिक्री में व्यक्तिगत प्रोत्साहनों ने व्यावसायिक प्राथमिकताओं को स्थानांतरित कर दिया है और मुख्य बैंकिंग व्यवसाय को प्रभावित कर रहे हैं। अब सरकार ने बैंकों को नामांकन/अपडेशन गतिविधियों के लिए आधार-केंद्र खोलने के लिए भी कहा है।
पिछले साल भारतीय स्टेट बैंक के प्रबंध निदेशक रजनीश कुमार ने कहा कि भारतीय स्टेट बैंक बचत खातों में न्यूनतम शेष राशि का अनुपालन न करने पर जुर्माने के रूप में 2000 करोड़ रुपये जुटाने की योजना बना रहा था, जिसका एक हिस्सा 40 करोड़ बचत खातों से आधार जोडऩे के कारण बैंकों को होने वाली अतिरिक्त लागत की भरपाई के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। इसके अतिरिक्त नोटबंदी का भी बैंकों पर भारी दबाव पड़ा।
बचत खातों मेें न्यूनतम शेष राशि का रखरखाव नहीं करने के लिए दंड प्रभार के अलावा, एक साल पहले बैंकों ने ग्राहकों से एक ही बैंक की दूसरी शाखाओं में नकद लेनदेन के लिए शुल्क लेना शुरू कर दिया था। बिना किसी शुल्क के नकद जमा और निकासी की संख्या महीने में तीन से चार बार तक सीमित है और विभिन्न बैंक हर लेनदेन पर 10 रुपये से लेकर 150 रुपये तक की राशि ले रहे हंै। बैंकिंग क्षेत्र में ऑनलाइन सेवा और एटीएम सेवाओं को ग्राहकों को उनकी ज़रूरतों के अनुसार लेनदेन करने को विकल्प प्रदान करने और बैंक शाखाओं पर बोझ को कम करने के उद्देश्य से पेश किया गया था। जब लोगों ने इस तकनीकी परिवर्तन को अपनाया है, जो सभी ग्राहकों के लिए आसान नहीं था, तो अधिकांश बैंकों ने एटीएम के माध्यम से मुफ्त लेनदेन की संख्या पर सीमा लगा दी। ग्राहक बैंकिंग सेवाओं जैसे पते या मोबाइल नंबर में परिवर्तन, खाता बंद करने, एटीएम, एसएमएस अलर्ट सेवा, केवाईसी-संबंधित दस्तावेजों का नवीनीकरण आदि के लिए भी भुगतान कर रहे हैं, जिन पर पहले कोई शुल्क नहीं था। बैंकिंग सेवाओं के लिए शुल्क बिना किसी उचित कारण के बढ़ा दिए गए हैं।
हाल ही में केरल के मुख्यमंत्री ने बैंकों से आग्रह किया कि वे बचत बैंक खातों में न्यूनतम राशि न होने पर दंड-प्रभार लगाने की इस ‘जनविरोधी’ नीति को वापस लें और बैंक शुल्क के नाम पर गरीब लोगों की जमा राशि को न लूटें। मुख्यमंत्री ने बैंक-शुल्कों का जिक्र करते हुए कहा, ‘आम आदमी और गरीबों की संपत्ति की यह लूट ऐसे समय में हो रही है जब 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक के बुरे कर्जे से परेशान बैंक बड़े कर्जदारों को लगातार राहत प्रदान कर रहे हैं। अमीरों द्वारा बैंकों के किए गए नुकसान के लिए गरीब से गरीब लोगों को लूटा जा रहा है।’ ऑल इंडिया बैंक इम्प्लाइज एसोसिएशन के महासचिव सीएच वेंकटचलम के आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल को दिए ज्ञापन में बैंकों के ग्राहकों की सुरक्षा के लिए और बैंकों के किए जा रहे अनुचित व्यवहार जैसे बैंकिंग प्रभारों में मनमाने और एकतरफा बढ़ोतरी और उत्पादों की गलत बिक्री के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की।
आरबीआई के लिए यह समय आ गया है कि वह सामान्य खाताधारकों के लिए सभी मौजूदा बैंकिंग प्रभारों को हटाकर उन्हें बैंकिंग सेवाएं मुहैया कराए। आरबीआई और सरकार को बकायेदारों के खिलाफ कड़े कदम उठाकर और ऋण की वसूली करने की आवश्यकता है, न कि कॉर्पोरेट ऋणों से हुए नुकसान का बोझ गरीबों और कामकाजी लोगों पर बैंक शुल्कों के रूप में डाला जाए।
देश के नागरिक समाज, सामाजिक संस्थाएं और विभिन्न बैंक यूनियनें बैंक उपभोक्ताओं से गैर-वाजिब वसूले जा रहे पैसे के खिलाफ ‘नो बैंकिंग चार्जेज’ का अभियान चला रहे हैं। इन्होंने राजनैतिक पार्टियों से पारदर्शी और जवाबदेही बैंकिंग और वित्तीय व्यवस्था को अमल में लाने की मांग की है।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता एवं
इंस्टिट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एण्ड
सस्टेनेबिलिटी के निदेशक हैं।