प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने खड़ी हो चुकी हैं ढेरों चुनौतियाँ
कोरोना महामारी की दूसरी लहर में जनता को जिस मुसीबत से गुज़रना पड़ा, उसने देश की शीर्ष-सत्ता में बैठे लोगों की विश्वसनीयता को कमज़ोर किया है। ऑक्सीजन की कमी से तड़पते लोगों, गाँव-गाँव जलती अनेक चिताओं और नदियों में तैरते शवों ने एक नयी, लेकिन दु:ख भरे भारत की तस्वीर सामने रखी। ज़ाहिर है इस नाकामी का सबसे बड़ा नुक़सान शीर्ष-सत्ता में बैठे लोगों, ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी को हुआ है। हाल के हफ़्तों में कई सर्वे रिपोट्र्स में भी प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को बड़ा नुक़सान होता दिखाया गया है। ऐसे में ये कयास लगने लगे हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव तक मोदी को अपनी लोकप्रियता बनाये रखने के लिए बड़ी चुनौतियाँ झेलनी पड़ सकती हैं। एक नेता के रूप में मोदी के सामने महँगाई और मंदी से लेकर बेरोज़गारी तक बड़ी चुनौतियाँ हैं। इन्हीं हालात पर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-
देश और देश के बाहर पिछले एक महीने में किये गये सर्वे बताते हैं कि पिछले सात साल की सत्ता के दौरान पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में जबरदस्त कमी आयी है। वह अभी भी देश में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय नेता हैं; लेकिन उनकी लोकप्रियता को ग्रहण लगाने वाली वर्तमान चुनौतियाँ आने वाले समय में राजनीतिक रूप से ज़्यादा विकराल हो सकती हैं। अगले साल छ: राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं, जिनमें पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा का मज़बूत $िकला बना उत्तर प्रदेश भी शामिल है; जिसमें हाल के स्थानीय निकाय के चुनावों में पार्टी की लोकप्रियता में बड़ी दरार पड़ी है। हाल की कुछ बड़ी असफलताओं ने प्रधानमंत्री की धार्मिक-राष्ट्रवादी वाली छवि से क़द्दावर हुई विश्वसनीयता को तो नुक़सान पहुँचाया ही है, कोरोना की दूसरी लहर के असाधारण दौर में देश भर में लोगों ने ऑक्सीजन के लिए तड़पते लोगों और जलती हज़ारों चिताओं को देखा, जिसने पहली बार जनता के मन के भीतर यह सन्देह पैदा किया है कि मोदी उनकी हर समस्या का हल नहीं हैं, जिससे उनकी छवि को बट्टा लगा है।
सरकार और भाजपा जानते हैं कि कोरोना प्रबन्धन में गम्भीर नाकामी से बड़ा नुक़सान हुआ है; लिहाज़ा इसकी भरपाई ‘धन्यवाद मोदी जी वाले भारी भरकम ख़र्च के द्वारा ‘मुफ्त कोरोना वैक्सीन जैसे विज्ञापनों से करने की कोशिश हुई है। सात साल में जो दूसरी बड़ी बात भाजपा में देखने को मिली है, वह प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश के विख्यात मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच खटपट की बड़े स्तर पर हो रही चर्चा है। अब सवाल यह है कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में अगले 24 महीनों में होने वाले घटनाक्रम मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री का चेहरा बनने में रोड़ा बन सकते हैं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का क्या रोल रहेगा? यह भी बहुत महत्त्वपूर्व है, जो हाल में ‘दिल्ली के विरोधÓ के बावजूद योगी की ढाल बनकर खड़ा होता दिखा है।
भाजपा के भीतर हाल के महीनों में ऐसी कुछ चीज़ो हुई हैं, जो खुलकर बाहर नहीं आयी हैं। यह कहना नितांत ग़लत है कि भाजपा के भीतर एक नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी का बिल्कुल भी विरोध नहीं है। सात साल के बाद भाजपा के भीतर हलचल है, जो बाहर आने के लिए ‘उचित समय और ‘खिड़की ढूँढ रही है। कुछ बड़े मंत्रियों से लेकर कुछ बड़े नेता शीर्ष नेतृत्व की शैली से असहमत हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रिश्तों को लेकर हाल के हफ़्तों में कुछ चीज़ो मीडिया में आयी हैं, जो पूरी तरह ग़लत नहीं हैं और इशारा करती हैं कि भाजपा के भीतर कुछ पक रहा है। ऐसा नहीं होता, तो हर दूसरे दिन उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बदले जाने की बातें सामने नहीं आतीं। यहाँ तक कि वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह तक का नाम गाहे-ब-गाहे उछलता रहता है। मोदी सरकार में वरिष्ठ मंत्री और आरएसएस के बहुत प्रिय नितिन गडकरी के प्रधानमंत्री बनने के नारे तो 23 जून को हिमाचल के कुल्लू में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की उपस्थिति में तब लग गये, जब गडकरी सूबे के दौरे पर आये हुए थे।
देश के इतिहास पर नज़र डालें, तो दोबारा सत्ता में आये कमोवेश हर प्रधानमंत्री, चाहे वह नेहरू हों या इंदिरा गाँधी हों या मनमोहन सिंह, 7-8 साल के बाद उनके सामने विश्वसनीयता की गम्भीर दिक़्कतें आनी शुरू हुईं। यह वो समय होता है, जब नाराज़ हो रही जनता विपक्ष के सरकार पर आरोपों के प्रति सहानुभूति दिखाने लगती है और उसे यह आरोप सही लगने लगते हैं। भले भाजपा स्वीकार न करे, मगर प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी यह दिक़्क़त आती दिख रही है। देश में ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतें आसमान छू रही हैं। पेट्रोल-डीजल की क़ीमतें आम आदमी के बस से बाहर जा चुकी हैं। अर्थ-व्यवस्था का बैंड बजा पड़ा है। जीडीपी माइनस में चल रही है। अनियोजित तालाबंदी (लॉकडाउन) के बाद बेरोज़गार हुए 10 करोड़ से ज़्यादा लोगों को दोबारा रोज़गार नहीं मिल पाया है, जिससे बेरोज़गारों की क़तार और लम्बी हो गयी है।
किसानों के प्रति मोदी सरकार ने लगभग असंवेदनशील अंदाज़ में काम किया है। किसान आन्दोलन आज भी जारी है और सरकार समर्थक मीडिया और शोशल मीडिया किसानों को आज भी ख़ालिस्तानी और पाकिस्तानी बता रहा है। अर्थ-व्यवस्था की हालत यह है कि हमारी तुलना बांग्लादेश से होनी लगी है और उसके आर्थिक प्रबन्धन को हमसे बेहतर बताया जा रहा है। मनमोहन सरकार को तो 2011 में स्वयंसेवी अन्ना हजारे के व्यापक प्रभाव वाले जन-आन्दोलन का सामना करना पड़ा था; मोदी ऐसे किसी भी आन्दोलन से बचे रहे हैं। विपक्ष भी सुस्त रहा है। दूसरे पिछले डेढ़ साल में कोरोना के कारण राजनीतिक गतिविधियाँ वैसे ही सीमित-सी हो गयी हैं। यदि ऐसा न होता, तो शायद मोदी सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों पर आन्दोलन हो रहे होते।
इसके अलावा हाल के वर्षों में भारतीय लोकतंत्र को चोट पहुँचाने वाली जो सबसे बड़ी बात देखने को मिली है, वह केंद्र और ग़ैर-भाजपा राज्यों के बीच खाई का चौड़ा होना है। इन राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व के मन में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के प्रति तल्ख़ी बढ़ी है, जिसका विकास कार्यक्रमों पर उलटा असर पड़ा है। यह तल्ख़ी किस स्तर की है? इसका अनुमान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के ‘हर समय झगड़ा ठीक नहींÓ वाले ट्वीट के बाद दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की उस टिप्पणी से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने मोदी को ‘झगड़ालू प्रधानमंत्री की संज्ञा दी है।
कोरोना वैक्सीन के वितरण को लेकर भी ग़ैर-भाजपा राज्यों के मुख्यमंत्री भेदभाव का आरोप लगाते रहे हैं। जीएसटी का राज्यों का हिस्सा उन्हें नहीं मिला है। उनकी योजनाओं में केंद्र के हस्तक्षेप से भी राज्य नाख़ुश हैं। पश्चिम बंगाल में टीएमसी के जबरदस्त बहुमत से जीतने की बाद भी वहाँ सरकार को गिराने की तमाम तिकड़में जारी हैं। यहाँ तक कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सामने आकर कहना पड़ा कि मोदी सरकार बंगाल को विभाजित करने पर तुली है। उन्होंने कहा कि भाजपा का एक वर्ग उत्तर बंगाल को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन राज्य में किसी भी ‘फूट डालो और राज करोÓ की नीति को वह सफल नहीं होने देंगी।
विपक्ष की चुनी सरकारों को चुन-चुनकर गिराने की भाजपा की कोशिशें और इसमें वहाँ का राज्यपालों की भूमिका पर भी ढेरों सवाल उठे हैं। अरुणाचल प्रदेश से लेकर कर्नाटक और मध्य प्रदेश तक भाजपा ने कांग्रेस की सरकारों को गिराया है। आम जनता में इसका ग़लत सन्देश गया है और भाजपा की छवि ‘सत्ता की लालची पार्टीÓ की बन गयी है। देश में कोरोना की दूसरी लहर में इस महामारी के बड़े स्तर पर पाँव पसारने के बावजूद बंगाल में जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने अन्तिम समय तक भीड़ भरी जनसभाओं के साथ चुनाव प्रचार जारी रखा, उससे भी ग़लत सन्देश गया।
दिल्ली में चिन्ता
भले अभी ज्यादा बाहर नहीं आयी है; लेकिन भाजपा के भीतर निश्चित ही खटपट है। उत्तर प्रदेश में हाल के निकाय चुनाव में भाजपा को बड़ी मार पड़ी है। दिल्ली में भाजपा के भीतर इससे भय पसरा है; क्योंकि उत्तर प्रदेश नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए अगले चुनाव में फिर जीत का सबसे बड़ा आधार है और वहाँ भाजपा का कमज़ोर होना उनके सपने को तोड़ सकता है। वैसे भी यहाँ 2014 की 80 सीटों के मुक़ाबले सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की 11 सीटें घटकर 69 रह गयी थीं। वह भी तब, जब वहाँ भाजपा की सरकार है। पार्टी के लिए सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह रही है कि मई के शुरू में पंचायत चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में भाजपा की बुरी तरह हार हुई है। इस चुनाव में मोदी के वाराणसी संसदीय क्षेत्र के तहत कुल 40 सीटों में से भाजपा को सि$र्फ आठ सीटें मिलीं। इससे पहले अप्रैल में भी वाराणसी की संस्कृत विश्वविद्यालय के छात्र चुनाव में भाजपा की छात्र इकाई एबीवीपी को बुरी तरह हराकर कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआई ने सभी सीटें जीत ली थीं।
इन नतीजों से निश्चित ही दिल्ली में चिन्ता है। बंगाल विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद जब भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने पार्टी की एक टीम लखनऊ भेजी, उसके बाद ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच तनातनी की ख़बरें मीडिया में आनी शुरू हुईं। बिना आग के धुआँ नहीं उठता, लिहाज़ा इन्हें काफ़ी सु$िर्खयाँ मिलीं। अटकलें यह भी रहीं कि पार्टी उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन या मंत्रिमंडल विस्तार की सोच रही है।
योगी को नाराज़ करने वाली एक और चर्चा राजनीतिक हलक़ों में गर्म हुई, वह यह कि दिल्ली एक साल बाद के विधानसभा चुनाव से पहले ही उत्तर प्रदेश का विभाजन करने की इच्छुक है। हालाँकि इतने कम समय में ऐसा करना बहुत आसान प्रतीत नहीं होता। अलग पूर्वांचल, बुंदेलखण्ड और हरित प्रदेश की माँग उत्तर प्रदेश में लम्बे समय से होती रही है। मायावती सरकार ने तो बाक़ायदा विधानसभा में इसका प्रस्ताव तक पास करवा लिया था। अलग पूर्वांचल बनता है, तो योगी का गढ़ गोरखपुर उसी के तहत आता है, जहाँ से वह पाँच बार सांसद रहे हैं। चर्चा के मुताबिक, प्रस्तावित पूर्वांचल में 125 विधानसभा सीटें और अधिकतम 25 ज़िले बनाये जा सकते हैं। कहते हैं कि योगी इसे लेकर बिल्कुल सहमत नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में कहावत है कि जिसने पूर्वांचल जीता, उसकी सरकार बनी। वैसे पूर्वांचल के मतदाता को लेकर कहा जाता है कि वह हर बार अपनी पसन्द बदल लेता है। वहाँ कई ऐसे ज़िले हैं, जहाँ भाजपा कमज़ोर है। वहाँ भाजपा की पैठ बढ़ाने के लिए ही योगी सरकार ने पूर्वांचल के विकास की योजना तैयार की थी और उसमें 28 ज़िलों को चुना था, जिन पर फोकस करना था।
इस सारे घटनाक्रम में सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि दिल्ली से बैठक के लिए भाजपा नेताओं की टीम के लखनऊ जाने के दौरान जब उत्तर प्रदेश सरकार में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा ने तेज़ी पकड़ी, तो आरएसएस का भी बयान आया; जिसमें यह कहा गया कि उत्तर प्रदेश में योगी के नेतृत्व में ही अगले चुनाव होंगे। इसी दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहद क़रीबी पूर्व अधिकारी ए.के. शर्मा को उत्तर प्रदेश भेजकर विधानपरिषद् का सदस्य बनाने को भी योगी और मोदी-शाह की जोड़ी के बीच जंग के रूप में लिया गया है। शर्मा वहीं व्यक्ति हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र में कोरोना प्रबन्धन का ज़िम्मा दे रखा है। यदि योगी के पक्ष को देखें, तो हाल के महीनों में उनकी सरकार ने अपनी योजनाओं को लेकर बड़े स्तर पर प्रचार का सहारा लिया है। यह माना जाता है कि योगी की टीम में कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी शामिल हैं, जो प्रचार की भाषा और कंटेंट का ख़ास ख़याल रखते हैं। विज्ञापनों को बहुत सन्तुलित तरीक़े से जनता के सामने लाने की कोशिश की जाती रही है। कोरोना को लेकर भी इन विज्ञापनों के ज़रिये सरकार की कुशलता का बख़ान किया गया था।
राजनीतिक हलक़ों में यह माना जाता है कि दिल्ली में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में योगी को लेकर राजनीतिक असुरक्षा की भावना रही है। हाल के वर्षों में योगी को जिस तरह हिन्दू नेता के तौर पर और मोदी के बाद प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में उभारा गया है; उससे यह स्थिति बनी है। चुनाव में प्रचार के लिए मोदी जैसी ही माँग भाजपा नेताओं में योगी की भी रहती है। ऐसे में वह स्वाभाविक तौर पर हिन्दुत्व के एजेंडे वाले राजनीतिक दल भाजपा में प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार बन जाते हैं। यह अलग बात है कि एक मुख्यमंत्री के तौर उनका प्रदर्शन बहुत ज़्यादा प्रभावशाली नहीं रहा है; लेकिन इसके बावजूद हिन्दुओं में उनकी अपनी छवि है, जिससे कोई इन्कार नहीं कर सकता।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह के आने के बाद ही भाजपा में यह नियम बना था कि 75 साल की आयु के बाद पार्टी के नेता को सरकारी पद के लिए नहीं चुना जाएगा। साल 2024 में जब लोकसभा के चुनाव होंगे, उस साल सितंबर में मोदी 73 साल के हो जाएँगे। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि भाजपा के भीतर प्रधानमंत्री पद की महत्त्वाकांक्षा रखने वाले नेता अपना नाम आगे करेंगे। लेकिन मोदी और योगी के बीच एक बड़ा नाम अमित शाह का भी है, जिन्हें उनके समर्थक अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देखते हैं। अमित शाह मोदी से क़रीब 14 साल छोटे हैं और 75 साल की सीमा में भी नहीं आते।
लेकिन भाजपा के भीतर इन सबसे हटकर एक और नेता को प्रधानमंत्री पद के लिए क़तार में माना गया है और वह नितिन गडकरी हैं। ख़ुद गडकरी या उनके समर्थकों ने कभी इसकी इच्छा ज़ाहिर नहीं की; लेकिन उन्हें आरएसएस का सबसे मज़बूत चेहरा इस पद के लिए माना जाता रहा है। गडकरी गम्भीर नेता तो हैं ही, साथ ही जिस तरह उन्होंने मोदी सरकार में अपने विभागों को सँभाला है, उससे उनकी छवि एक मेहनती मंत्री की बनी है; जो ज़मीनी हक़ीक़तों से भी रू-ब-रू होता है। इसके अलावा गडकरी लोकतांत्रिक नेता की छवि भी रखते हैं। भाजपा का अध्यक्ष पद भी उन्हें अचानक ही मिला था और इसके पीछे भी आरएसएस ही था। सबसे बड़ी बात यह है कि विपक्ष में भी गडकरी की मान्यता मोदी, शाह और योगी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है।
मोदी की परेशानियाँ
इसमें कोई दो-राय नहीं कि जिस तरह आज की तारीख़ में नरेंद्र मोदी भाजपा में बहुत ज़्यादा ताक़तवर हैं, उन्हें चुनौती देने वाला विपक्ष बिखरा और कमज़ोर-सा है। भाजपा की सबसे बड़ी राजनीतिक विरोधी और देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस संगठन की चुनौतियाँ झेल रही है। मोदी की बड़ी नाकामियों के बावजूद होने की एक बड़ी बजह कांग्रेस का एक राजनीतिक दल के रूप में उनके ख़िलाफ़ कोई बड़ा जन-आन्दोलन खड़ा नहीं कर पाना भी है। यदि देखा जाए, तो पिछले क़रीब डेढ़ साल के भीतर ऐसे कई बड़े अवसर आये, जिन पर मोदी सरकार को घेरा जा सकता था। मोदी सरकार के ख़िलाफ़ ऐसा आन्दोलन नहीं होने से आम जनता का मनोवैज्ञानिक लाभ मोदी को मिला है।
याद करिये 2011 में जब सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को लेकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ जन-आन्दोलन शुरू किया था, तो देखते-ही-देखते देश में कांग्रेस के ख़िलाफ़ माहौल बन गया था। हालाँकि यूपीए सरकार की बड़ी उपलब्धियाँ भी थीं और आरटीआई जैसा जनता को ताक़त देने वाला क़ानून भी वो लेकर आयी थी। लेकिन एक बार जब माहौल बना तो बनता ही गया। अन्ना का आन्दोलन भी ख़त्म हो गया, लेकिन लोगों के दिमाग़ में यह बैठा गया कि कांग्रेस ‘भ्रष्टाचारी दलÓ है। देखा जाए तो यूपीए की सरकार ने उन सब मामलों की जाँच की थी, जिसमें भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे और मंत्रियों सहित तमाम आरोपियों को सज़ा भी मिली थी। लेकिन जो माहौल सरकार के ख़िलाफ़ बना था, उसमें कमी नहीं आयी। तीन साल बाद नरेंद्र मोदी ने पहले से बन चुकी कांग्रेस विरोधी इस ज़मीन को अपने लिए शब्दों की जादूगरी से भरे शब्दों से ख़ूब भुनाया। बहुत से लोग यह मानते हैं कि उस समय मोदी की जगह यदि आडवाणी भी भाजपा का नेतृत्व करते, तो भी भाजपा ही जीतती।
यदि पिछले सात साल का रिकॉर्ड देखें, तो मोदी ने जिन सबसे आकर्षक मुद्दों- बड़े पैमाने पर रोज़गार, विकास और भ्रष्टाचार को ख़त्म करना, आदि के बूते चुनाव जीता था और देश की राजनीति के शीर्ष पर आ पहुँचे थे, उनमें ही वह ज़्यादा कुछ नहीं कर पाये हैं। रोज़गार की हालत ख़राब है। उलटे पहले पाँच साल के कार्यकाल में मोदी ने जिन बड़े सुधारों की घोषणाएँ कीं, उन्हें अमलीज़ामा उस स्तर पर नहीं पहना सके। उनके सात साल के कार्यकाल में आर्थिक आँकड़ें बहुत कमज़ोर रहे हैं। बड़े स्तर पर सरकारी या अद्र्ध-सरकारी सम्पत्तियों को बेचा गया है। पाँच ट्रिलियन अर्थ-व्यवस्था का वादा निराशा के सागर में हिचकोले खा रहा है।
उनके वर्तमान कार्यकाल में विकास की रफ्तार बेहद सुस्त है, जिसे कोरोना महामारी ने और ज़्यादा ख़स्ता हालत में ला खड़ा किया है। कुछ घंटे के नोटिस पर लागू लॉकडाउन ने अर्थ-व्यवस्था में गम्भीर गिरावट पैदा की और अक्टूबर, 2020 में औसत पारिवारिक आमदनी पिछले साल के मुक़ाबले 12 फ़ीसदी कम हो गयी। इसका सबसे बड़ा असर ग़रीबों और निम्न मध्यम वर्ग पर पड़ा। अर्थ-व्यवस्था उम्मीद से कहीं ज़्यादा ख़राब हालत में है। महँगाई उच्चतम स्तर पर है। साल 2019 के आख़िर तक यह दावा किया जा रहा था कि 2025 तक हमारी अर्थ-व्यवस्था 2.6 लाख करोड़ डॉलर की हो जाएगी; लेकिन यह अब बहुत लक्ष्य बड़ा लग रहा है। मुद्रास्फीति और तेल के दामों में उछाल भी इसके बड़े कारण हैं। जब मनमोहन सरकार सत्ता से बाहर हुई थी, उस समय भारत का जीडीपी दर कहीं बेहतर सात से आठ फ़ीसदी के बीच थी; लेकिन मोदी सरकार के समय 2019-20 की चौथी तिमाही आते-आते यह बहुत कमज़ोर 3.1 फ़ीसदी के स्तर पर पहुँच गयी।
जब बहुत उम्मीद और जोश से प्रधानमंत्री मोदी ने नवंबर, 2016 में नोटबंदी की घोषणा की थी और दावा किया था कि इससे जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद सहित देश की बहुत-सी समस्याएँ ख़त्म हो जाएँगी; तब लोगों को लगा था कि यह बहुत बड़ा फ़ैसला हुआ है। लेकिन कुछ हफ़्तों ही में अपना ही पैसा लेने के लिए लम्बी क़तारों में दिन-दिन भर खड़ा होने पर जनता का इससे मोहभंग हो गया। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी की दोबारा जीत ने भले नोटबंदी को पीछे डाल दिया, लेकिन उसके बाद सामने आये तथ्य ज़ाहिर करते हैं कि देश को इसका बड़ा नुक़सान उठाना पड़ा है। जीएसटी मोदी सरकार का दूसरा बड़ा फ़ैसला था और अब लगभग यह मान लिया गया है कि इस फ़ैसले ने देश में व्यापार की कमर तोड़ दी। पहले कार्यकाल में बतौर प्रधानमंत्री मोदी देश के युवाओं को वादे के अनुसार रोज़गार देने में नाकाम रहे हैं। हाल में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग दि इंडियन इकोनॉमी का एक सर्वे आया था, जिसमें कहा कि 2016 से देश ने कई आर्थिक झटके झेले हैं। नोटबंदी, जीएसटी और 2020 में कोरोना के चलते किश्तों में की गयी तालाबंदी ने रोज़गार कम कर दिया। मोदी सरकार में देश में बेरोज़गारी की दर पिछले 48 साल में सर्वाधिक है। कुछ सर्वे में बताया गया है कि केवल 2021 के इन छ: महीनों में ही क़रीब 2.6 करोड़ लोग अपना रोज़गार गँवा चुके हैं। इससे ग़रीबी रेखा का आँकड़ा भी बढ़ा है और यह 7.5 करोड़ पर पहुँच चुका है। इनमें एक बड़ी संख्या मध्यम वर्ग की है, जिसने सन् 2014 और सन् 2019 के चुनावों में मोदी का सबसे ज़्यादा समर्थन किया था।
यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि देश में हर साल अर्थ-व्यवस्था को दो करोड़ नौकरियाँ चाहिए; लेकिन पिछले एक दशक में यह आँकड़ा महज़ 43 लाख रहा है। अर्थात् इतनी ही नौकरियों का सृजन हो सका। मोदी के महत्त्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया में भी जिस उत्पादन को जीडीपी का 25 फ़ीसदी बनाने का लक्ष्य था, वह 2020-21 के माली साल तक बमुश्किल 15 फ़ीसदी तक ही पहुँचा है।सच तो यह है कि सबसे ख़राब हालत ही उत्पाद क्षेत्र की हुई है, जो सेंटर फॉर इकोनॉमिक डाटा एंड एनालिसिस के सर्वे से भी ज़ाहिर होती है। उत्पादन क्षेत्र में 2016 से लेकर अब तक नौकरियाँ लगभग आधी ही बची हैं। निर्यात तीसरा बड़ा क्षेत्र है, जहाँ मोदी सरकार की चुनौतियाँ हैं। देश में पिछले क़रीब एक दशक में निर्यात 300 अरब डॉलर पर थम गया है। यहाँ तक कि पिछले पाँच-छ: साल में बांग्लादेश जैसा छोटा देश भारत के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा तेज़ी से निर्यात में, जिसमें उसका वस्त्र उद्योग प्रमुख ज़रिया है, अपना मार्केट शेयर बढ़ा चुका है; जिसका सीधे रूप से भारत पर असर पड़ा है।
हाल के वर्षों में मोदी सरकार ने टैरिफ बढ़ाये हैं। इसका एक कारण ‘आत्मनिर्भर भारत के अपने नारे को मूर्त रूप देने की कोशिश भी है। हाँ, डिजिटल पेमेंट के मामले में भारत ने बड़ी छलाँग लगायी है, जिसका बड़ा श्रेय सरकार समर्थित भुगतान व्यवस्था को भी जाता है।
कृषि क्षेत्र में भी हालत बेहतर नहीं हो सकी है। मोदी सरकार के कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसान आन्दोलन ज़ाहिर करता है कि किसानों और कृषि को उसके महत्त्व के अनुरूप सरकार से समर्थन नहीं मिला है। किसान कह रहे हैं कि क़ानूनों के प्रावधान उनकी आय को कम कर देंगे। देश की बड़ी आबादी कृषि क्षेत्र से जुड़ी है और यह अभी भी रोज़गार का एक बड़ा ज़रिया बना हुआ है; लेकिन सच यह है कि जीडीपी में कृषि का योगदान बहुत कम है। कृषि क्षेत्र की यह हालत तब है, जब मोदी ने वादा किया था कि उनका लक्ष्य किसानों की आय दोगुनी करना है।
कम हुए मोदी-समर्थक
देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन करने वाला वर्ग हाल के हफ्तों में कुछ बेचैन हुआ है। इसका कारण मोदी का कोरोना वायरस जैसी महामारी के मोर्चे पर नाकाम होना है। लोग मानते हैं कि सबसे बड़े संकट में प्रधानमंत्री ने आँखें मूँद लीं और जनता को उसी के भरोसे छोड़ दिया गया। जिस पैमाने पर ऑक्सीजन की कमी देश में हुई और लोगों की मौत हुई, उससे वे विचलित हुए हैं। ऐसे बहुत लोग हैं, जिन्होंने माना कि इतने बुरे समय में प्रधानमंत्री मोदी का चुप रहना ग़लत था। बहुत-से ऐसे लोग अब मोदी के समर्थक नहीं रहे। यहाँ तक कि सोशल मीडिया पर वे उन सन्देशों का समर्थन करते दिखे हैं, जो मोदी के ख़िलाफ़ हैं। यदि एजेंसियों की बात करें, तो ग्लोबल लीडर्स अप्रूवल रेटिंग ट्रैकर के सर्वे में मोदी की लोकप्रियता में 13 फ़ीसदी की गिरावट बतायी गयी है, जो सात साल में सबसे ज़्यादा है।
तालाबंदी से लोगों का बड़ी संख्या में बेरोज़गार होना भी मोदी के ख़िलाफ़ गया है। वाशिंगटन स्थित प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वे के मुताबिक, हाल के महीनों में मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या 3.20 करोड़ कम हो गयी है। कोरोना के हाल के संकट में सबसे बड़ी मार मध्यम वर्ग को ही पड़ी है। उधर ‘लोक नीतिÓ के सर्वे के मुताबिक, मोदी के प्रति लोगों में निराशा बढ़ी है। मध्यम वर्ग का बड़ा हिस्सा इसमें शामिल है। प्रधानमंत्री के काम को नापसन्द करने वालों की जो संख्या अगस्त, 2019 में 12 फ़ीसदी थी, वह अप्रैल, 2021 में बढ़कर 28 फ़ीसदी पहुँच गयी है।
मॉर्निंग कंसल्ट ग्लोबल लीडर्स अप्रूवल रेटिंग ट्रैकर और अन्य सर्वे के मुताबिक, अगस्त, 2019 से जनवरी, 2021 के बीच मोदी की अप्रूवल रेटिंग (मानांकन) लगभग 80 फ़ीसदी के आसपास रही। लेकिन अप्रैल, 2021 में यह रेटिंग 67 फ़ीसदी हो गयी। अर्थात् मोदी की लोकप्रियता में 13 फ़ीसदी की कमी आयी है। उधर 13 देशों के राष्ट्राध्यक्षों (ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इटली, जापान, मेक्सिको, साउथ-कोरिया, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका) की अप्रूवल रेटिंग और डिसअप्रूवल रेटिंग को ट्रैक करने वाली मॉर्निंग कंसल्ट की ‘ग्लोबल अप्रूवल रेटिंगÓ के हालिया आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि अभी भी इन 13 देशों के नेताओं में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय होने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी की अप्रूवल रेटिंग में पहली अप्रैल से 11 मई के बीच 10 फ़ीसदी की कमी आयी है। अप्रैल में जो रेटिंग 73 थी, वह 11 मई को घटकर 63 फ़ीसदी हो गयी। उनके डिसअप्रूवल रेटिंग में पहली अप्रैल से 11 मई के बीच 10 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। हाल में भारतीय पॉलस्टर ओरमैक्स मीडिया के 23 राज्यों के शहरी मतदाताओं के बीच कराये सर्वे में भी प्रधानमंत्री मोदी की अप्रूवल रेटिंग, जो दूसरी लहर से पहले 57 फ़ीसदी थी; वह 11 मई तक 9 फ़ीसदी घटकर 48 फ़ीसदी पर आ गयी।
मोदी की अप्रूवल रेटिंग पहली बार 50 फ़ीसदी के नीचे आयी है। भारतीय टीवी चैनल भी समय समय पर सर्वे करते हैं। हाल में एवीपी न्यूज-सी वोटर के सर्वे में जब जनता से पूछा गया कि क्या दूसरी लहर में प्रधानमंत्री का चुनाव प्रचार करना सही था? तो 58 फ़ीसदी शहरी और 61 फ़ीसदी ग्रामीणों ने ‘नहींÓ में जवाब दिया। एक सवाल यह था कि केंद्र और राज्य सरकारों में से लोग आख़िर किससे ज़्यादा नाराज़ हैं? तो सि$र्फ 17 फ़ीसदी लोगों ने राज्य सरकार से अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की; जबकि केंद्र से नाराज़ रहने वालों की तादाद सर्वे में 24 फ़ीसदी थी। वहीं 54 फ़ीसदी ने बताया कि वह इस बारे में कुछ नहीं बता सकते हैं। लोगों से पूछा गया कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में उनकी सबसे बड़ी नाराज़गी क्या है? जवाब में 44 फ़ीसदी शहरी और 40 फ़ीसदी ग्रामीण लोगों ने कहा कि ‘कोरोना से न निपटना। वहीं 20 फ़ीसदी शहरी लोगों ने और 25 फ़ीसदी ग्रामीण लोगों ने कहा- ‘कृषि क़ानून, जबकि नौ फ़ीसदी शहरी और नौ ग्रामीण लोगों ने कहा कि ‘सीएए पर दिल्ली दंगेÓ। यही नहीं, 10 फ़ीसदी ग्रामीण और सात फ़ीसदी शहरी लोगों ने भारत-चीन सीमा विवाद को भी एक कारण बताया। यह स्नैप पोल 23 से 27 मई के बीच किया गया था।